द्विषष्टितमोऽध्यायः स्वर्गीयमेतत्परमं पवित्रं पुत्रीयमेतच्च परं रहस्यम् ॥ जप्यं महत्पूर्वसु वैतदग्र्यं दुःस्वप्नशान्तिः मरमायुषेयम् प्रजेशदेवषिमनुप्रधानां पुण्यप्रसूति प्रथितामजस्य ॥ ममापि विख्यापन संयमाय सिद्धि जुषध्वं सुमहेशतत्त्वम् इत्येतदन्तरं प्रोक्तं मनोः स्वायंभुवस्य तु । विस्तरेणाऽऽनुपूर्व्या च भूयः किं वर्णयाम्यहम् इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते प्रजापतिवंशानुकीर्तनं नामकषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६१॥ अथ द्विषष्टितमोऽध्यायः पृथिवीदोहनम् शांशपायन उवाच क्रमं मन्वन्तराणां तु ज्ञातुमिच्छामि तत्त्वतः | दैवतानां च सर्वेषां ये च यस्यान्तरे मनोः ५१७ ॥१८४ ॥१८५ ॥१८६ ॥१ स्वर्ग प्रदान करनेवाले, पुत्रप्रद एवं सर्वश्रेष्ठ इस चरित्र को बडे-बड़े पर्वो के अवसरों पर जपना चाहिये, ऐसा करने से दुःस्वप्नों की शान्ति एवं दीर्घायु की प्राप्ति होती है । प्रजापति, मनु, देवर्षिगण एवं अजन्मा ब्रह्मा को पुण्यप्रद सुप्रसिद्ध सन्तानों के उत्पत्ति विवरण से संयुक्त महेश्वर के तत्त्वपूर्ण आख्यान से संचलित, हमारे यश को बढानेवाले इस महापुराण के श्रवण से आप लोग सिद्धियाँ प्राप्त करें। स्वायम्भुव मन्वन्तर का वृत्तान्त इस प्रकार क्रमश: विस्तारपूर्वक कहा जा चुका अब इसके बाद क्या कर्णन करूँ ? १८३१८६। श्री वायुमहापुराण में प्रजापति वंशानुकीर्तन नामक इकसठवाँ अध्याय समाप्त ॥५६॥ अध्याय ६२ शांशपायन ने कहा- अब मैं मन्वन्तरों का क्रम एवं उन मन्वन्तरों में होनेवाले समान देवताओं के विषय में जानना चाहता हूँ |१|
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