५१० वायुपुराणम् यदा यक्तियते येन तदा तत्सोऽभिमन्यते । *येनेदं क्रियते पूर्व तदन्येन विभावितन् यदा तु क्रियते किंचित्केन चिद्वाङ्मयं दवचित् । तेनैव तत्कृतं पूर्व कर्तॄणां प्रतिभाति वै विरक्तं चातिरिक्तं च ज्ञानाज्ञाने प्रियाप्रिये | धर्माधर्मो सुखं दुःखं मृत्युचामृतमेव च ॥ ऊर्ध्व तिर्यगधोभागस्तस्यैवादृष्टकारणम् स्वायंभुवोऽथ ज्येष्ठल्य ब्रह्मणः परमेष्ठितः । प्रत्येकविधं भवति त्रेतास्विह पुनः पुनः व्यस्यते ह्य कविद्यं तद्द्वापरेषु पुनः पुनः । ब्रह्मा चैतदुवाचाऽऽदौ तस्मिन्वैवस्वतेऽन्तरे आवर्तमाना ऋषयो युगाख्यालु पुनः पुनः । कुर्वन्ति संहिता होते जायमानाः परस्परम् अष्टाशोतिसहस्राणि श्रुतर्षीणां स्मृतानि वै । ता एव संहिता ह्यत आवर्तन्ते पुनः पुनः श्रिता दक्षिणपन्थानं ये श्मशानानि भेजिरे | युगे युगे तु ताः शाखा व्यस्यन्ते तैः पुनः पुनः द्वापरेविह सर्वेषु संहिताश्च श्रुतषिभिः । तेषां गोत्रेष्विमाः शाखा भवन्तीह पुनः पुनः ॥ ताः शाखास्तत्र कर्तारो भवन्तीह युगक्षयात् ॥११६ ॥११७ ॥११८ ॥११६ ॥१२० ॥१२१ ॥१२२ ॥१२३ ॥१२४ जो ज्ञाम प्रदर्शित किये हैं, जो कुछ दिखलाया है उसका अनुसन्धान दूसरा कौन कर सकता है ? इसके अतिरिक्त जब-जब अन्यान्य शास्त्रवेत्तागण जिन-जिन जानों एवं पदार्थो का तत्त्व चिन्तन करते हैं, वे सब भी उसी अव्यय ब्रह्म के द्वारा प्रकाशित हुए है। जो लोग कहीं पर किसी समय में जिस किसी वाङ्मय के ज्ञानपथ का आविष्कार करते है, वे सब भी उसी ब्रह्म के द्वारा विरचित हैं। वास्तव में सभी कर्ताओं का वही आदिकर्ता है । ११३-११७॥ विरक्त, अतिरिक्त, ज्ञान, अज्ञान, प्रिय, अप्रिय, धर्म, अधर्म, सुख, दुःख, मृत्यु, अमरता, ऊर्ध्व, तिर्यक् और अधोभाग - ये सभी उस ब्रह्म के अदृष्ट कारण से सम्बद्ध है | इस पृथ्वीतल पर प्रत्येक त्रेतायुग में सर्वप्रथम विधाता परमेष्ठी पितामह के पुत्र स्वायम्भुव मनु हो एकमात्र समस्त विद्याओ के ज्ञाता होकर द्वापर युग में उस एक विद्या का विभाग करते है । उस वैवस्वत मन्वन्तर में सर्वप्रथम ब्रह्मा ही इस समस्त विद्या का उपदेश करते है । तदनन्तर प्रत्येक युग में पिता से पुत्र एवं पुत्र से पिता इस प्रकार परस्पर उत्पन्न होने पर बारम्बार संहिताओ का प्रवर्तन करते हैं |११८-१२१। जिन अट्टासी सहस्र वेदज्ञ ऋषियो को चर्चा ऊपर स्मरण की गई है, वे ही इन संहिताओं का प्रत्येक युग में प्रवर्तन करते हैं | दक्षिणा- यन में सूर्य के अवस्थित होने पर जो श्मशान वास करने वाले मुनि गण है वे ही प्रत्येक युग में उन शाखाओं का विभाग करते हैं । इस प्रकार सभी द्वापर युगों मे प्रतिज्ञाता ऋषियों द्वारा संहिताओं की रचना होती है, उन्हो के गोत्रों मे उत्पन्न होनेवाले वेद की शाखाओ का पुनः पुनः विभाजन करते है | वेद की वे शाखाएं तथा उनके रचयितागण युगक्षय होने पर भी विद्यमान रहते है | १२२-१२४। अतीत एवं भविष्यत्कालीन
- इधमधंस्थाने भवेदं क्रियते पूर्व नंतदन्येन भाषितमिति ख. घ ङ पुस्तकेषु ।