५०४ वायुपुराणम् सर्वास्ता हि चतुष्पादाः सर्वाश्चैफार्थवाचिकाः | पाठान्तरे पृथग्भूता वेदशाखा यथा तथा ॥ चतुःसाहस्रिकाः सर्वाः शांशपायनिकामृते लोमहर्षणिका सूलास्ततः फाश्यपिकाः पराः । सार्वाणकास्तृतीयास्ता यजूर्वाक्यार्थपण्डिताः शांशपायनिकालान्या नोदनार्थविभूषिताः । सहस्राणि ऋचासण्टौ षट्शतानि तथैव च एताः पञ्चदशान्याश्च दशान्या दशभिस्तथा । वालखिल्याः सहस्रैषाः ससावर्णाः प्रकीर्तिताः अष्टौ साम सहस्राणि सामानि च चतुर्दश । आरण्यकं सहोमं च एतद्गायन्ति सामगाः द्वादशैव सहस्राणि छन्व आर्ध्वयवं स्मृतम् | यजुषां ब्राह्मणानां च तथा व्यासो व्यकल्पयत् संग्राम्यारण्यकं तत्स्यात्समन्त्रकरणं तथा । अतः परं कथानां तु पूर्वा इति विशेषणम् ग्राम्यारण्यं समन्त्रं च ऋग्वाह्मणयजुः स्मृतम् । तथा हारिद्रदीयाणां खिलान्युपखिलानि च ॥ तथैव तैत्तिरीयाणां परक्षुद्रा इति स्मृतम् द्वे सहस्र शते न्यूने वेदे वाजसनेयके | ऋग्गणः परिसंख्यातो ब्राह्मणं तु चतुर्गुणम् अष्टौ सहस्राणि शतानि चाष्टावशोतिरन्यान्यधिकश्च पादः ॥ एतत्प्रमाणं यजुषासूचां च सशुक्रियं साखिलयाज्ञवल्क्यम् ॥५६ ॥६० ॥६१ ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ ॥६८ वेद शाखाओ की भाँति पाठान्तर मे भिन्न-भिन्न हैं। शांशपायन को संहिता को छोड़कर इन सब को संख्या चार सहस्र है | इन समस्त वेद शाखाओं में लोमहर्पण की शाखा ही मुख्य है, उसके बाद कश्यप की शाखा की महत्ता मानी गई है, सार्वाणिक शाखा का तृतीय स्थान है, ये शाखाएं यजुर्वेद की है जिन्हें उसके पण्डित लोग जानते हैं ।५६-६०। इनके अतिरिक्त जो शांशपायन की शाखा है वह प्रेरणात्मक अर्थ से विभूषित है, उसकी ऋचाओं की संख्या आठ सहस्र छः सौ है । ये समस्त संहिताएं, इसके अतिरिक्त पन्द्रह यथा दस-दस संहिताएँ, जो बालखिल्य सहनँप एवं सार्वण की संहिताओं के नाम से कही गई हैं, आठ सहस्र साम, चौदह सहल साममंत्र हवनमंत्र समेत आरण्यक -- इन सब को साम के गायन करने वाले ऋषि लोग गाते हैं । इसके अति- रिक्त व्यासदेव न यजुः और ब्राह्मण के बारह सहस्र छन्दों का विभाग किया, जो ग्राम्य एवं आरण्यक संहिताओ एवं मंत्रकरणक के साथ आध्वर्यन के नाम से स्मरण किये जाते हैं। इसके उपरान्त कथाओं का पूर्वा यह विशेषण कहा जाता है ।६१ ६५१ ऋक्, ब्राह्मण और यजु ये तीन मंत्रों के साथ ग्राम्य और आरण्य के नाम स्मरण किये जाते है | हारिद्रवीय के खिल उपखिल तथा तैत्तिरीय के पर और क्षुद्र भाग भी दो-दो प्रकार के स्मरण किये जाते है । इसके अतिरिक्त दो सहस्र में एक सौ कम वाजसनेयी संहिता की ऋचाओं को तथा उसके चतुगुणित ब्राह्मण को परिगणित किया । आठ सहस्र माठ सो अस्सी यजु और ऋक् की
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