एकपष्टितमोऽध्यायः कबन्धस्तु द्विधा कृत्वा पथ्याकं पुनर्ददौ । द्वितीयं वेदस्पर्शाय स चतुर्धाकरोत्पुनः सोदो ब्रह्मबलश्चैव पिप्पलादस्तथैव च । शौष्कायनिश्च धर्मज्ञश्चतुर्थस्तपनः स्मृतः ॥ वेदस्पर्शस्य चत्वारः शिष्यास्त्वेते दृढव्रताः पुनश्च त्रिविधं विद्धि पथ्यानां भेदमुत्तमम् । जानलिः कुसुदादिश्च तृतीयः शौनकः स्मृतः शौनकस्तु द्विधा कृत्वा ददावेकं तु बभ्रुवे । द्वितीयां संहितां धीमान्सैन्धवायनसंज्ञिते सैन्धवो सुञ्जकेशाय भिन्ना सा च द्विधा पुनः । नक्षत्रकल्पो वैतानस्तृतीयः संहिताविधिः ॥ चतुर्थोऽङ्गिरसः कल्पः शान्तिकल्पश्च पश्चमः श्रेष्ठास्त्वथर्वणो ह्य ते संहितानां विकल्पनाः । षट्शः कृत्वा मयाऽप्युक्तं पुराणसृषिसत्तमाः आत्रेयः सुमतिर्धीमान्काश्यपो ह्यकृतव्रणः । भारद्वाजोऽग्निवश्व वसिष्ठो मित्रयुश्च यः ॥ सार्वाण: सौमदत्तिस्तु सुशर्मा शांशपायनः एते शिष्या सम ब्रह्मपुराणेषु दृढव्रताः । त्रिभिस्तित्रः कृतास्तिस्रः संहिताः पुनरेव हि काश्यपः संहिताकर्ता सार्वणिः शांशपायनः | सामिका च चतुर्थी स्यात्सा चैवा पूर्वसंहिता ५०३ ॥ ५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ॥५५ ॥५७ ।।५८ को बभ्रु किये, जिनमें से एक को पथ्य नामक शिष्य को तथा दूसरे को वेदस्पर्श नामक शिष्य को उपदेश दिया । तदनन्तर वेदस्पर्श ने उसके चार भाग किये [४८ - ५०० मोद, ब्रह्मबल, पिप्पलाद तथा धर्मज्ञ शोकायनि- ये चार वेदस्पर्श के सुप्रसिद्ध शिष्य है जो सभी दृढ़ व्रतधारी थे । पथ्य के उत्तम शिष्यों की संख्या तीन जानिये उनके जाजलि, कुमुदादि और शौनक नाम प्रसिद्ध हैं। विद्वान् शौनक ने दो विभाग कर एक सहिता
- को दिया और दूसरी को सैन्धवायन नामक शिष्य को समर्पित किया। सैन्धव ने मुञ्जकेश को उपदेश
दिया, जिसके द्वारा वह पुनः दो भागो में विभक्त हुई । प्रथम नक्षत्रकल्प, द्वितीय वैतान, तृतीय संहिता- विधि, चतुर्थ अङ्गिरस कल्प तथा पंचम शान्तिकल्प हैं ।५१-५४॥ अथर्ववेद की संहिताओं के ये विकल्प श्रेष्ठ माने गये हैं। है ऋषिवर्थ्यवृन्द ! मैंने भी पुराणों का छ प्रकार के विभागों में उपदेश किया है | अि गोत्रोत्पन्न बुद्धिमान् सुमति, कश्यपगोत्रीय अकृतव्रण, अग्नि के समान तेजस्वी भरद्वाज, वशिष्ठ मित्रंयु, सार्वणि सोमदत्ति और सुशर्मा शांशपायन हैं ! हे विप्रवृन्द | ये हमारे पुराणों में शिष्य हैं, जो सव के सर्व दृढ व्रतधारी है। इनमें से तीन शिष्यों ने संहिता के तीन विभागकर पुनः तीन भाग किये, जो संहिताकर्ता काश्यप, सावण और शांशपायन के नाम से प्रसिद्ध हैं । सामिका नामक चौथी संहिता है जो पूर्व संहिता के नाम से विख्यात है |५५-५८॥ ये सभी संहिताएँ चार-चार पादों वाली एवं एक अर्थ की वाचिका हैं ।