जो नाड़ी कम्पे और फुरे और वारंवार अंगुलियोंको छुवे तिस नाड़ी को असाध्य जानना ऐसी नाड़ी को वैद्य दूरसे वर्जित करे ॥३७॥
स्थिरा नाडी भवेद्यस्य विद्युद्द्युतिरिवेक्षते ।
दिनैकं जीवितं तस्य द्वितीय मृत्युरेव च ॥३८॥
जिसकी नाड़ी स्थिर रहके बिजलीकी भांति गति दर्शावे वह एक दिन जीवे, दूसरे दिनमें मत्यु होती है ऐसे नाडीको जाननेवालोंने कहा है ॥३८॥
शीघ्रा नाडी मलोपेता शीतला वाऽय दृश्यते ।
द्वितीये विवसे मृत्युर्नाडी विज्ञातृभाषितम् ॥३९॥
मलसे युक्त हुई नाड़ी शीघ्र चले वा शीतल दीखे वह एक दिन जीवता है पीछे दूसरे दिन मृत्युको प्राप्त होता है ॥३९।।
मुखे नाडी भवेत्तीव्रा कदाचिच्छीतला वहेत् ।
आयाति पिच्छिलस्वेदःसप्तरात्रं न जीवति ॥४०॥
मुखमें शीघ्र चलती हुई नाड़ी कदाचित् शीतल हुई वहे और जिस रोगी को सचिक्कन पसीना आवे वह रोगी सात रात्रि नहीं जीवता ॥४०॥
देहे शैत्यं मुखे श्वासो नाडी तीव्रा विदाहिनी।
मासार्द्धजीवितं तस्यनाडी विज्ञातृभाषितम् ॥४१॥
जिसके देहमें शीतलपना हो, मुखमें श्वास चले, दाडवाली हुई नाड़ी शीघ्र चले वह रोगी १५ दिन जीवता है ऐसे नाडियोंके जाननेवालोंने कहा है ॥४१॥
मुखे नाडी यदा नास्ति मध्ये शैत्यं बहिःक्लमः ।
यदा मंदा वहेन्नाडी त्रिरात्रं नैव जीवति ॥४२॥
जब अग्र भागमें नाड़ी न हो तो और मध्यभागमें शीतल बहे और शरीरमें ग्लानि हो तो इस अवस्थामें नाड़ी मंद होनेसे ऐसा रोगी तीन रात्रि नहीं जीवता ।।४२।।
प्रतिसूक्ष्मातिवेगा च शीतला च भवेद्यदि ।
तदावैद्योविजानीयात् स रोगीत्वायुषःक्षयी ॥४३॥