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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/३५. ग्रन्थसंकेतविषयः

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अथ ग्रन्थसङ्केतविषयः

[सम्पाद्यताम्]

अथ वेदभाष्ये ये सङ्केताः करिष्यन्ते त इदानीं प्रदर्श्यन्ते। ऋग्वेदादीनां वेदचतुष्टयानां , षट्शास्त्राणां षडङ्गानां , चतुर्णां ब्राह्मणानां , तैत्तिरीयारण्यकस्य च यत्र यत्र प्रमाणानि लेखिष्यन्ते तत्र तत्रैते सङ्केता विज्ञेयाः - ऋग्वेदस्य ऋ॰ , मण्डलस्य प्रथमाङ्को , द्वितीयः सूक्तस्य , तृतीयो मन्त्रस्य विज्ञेयः। तद्यथा -' ऋ॰ 1।1।1॥ '; यजुर्वेदस्य य॰ , प्रथमाङ्कोऽध्यायस्य , द्वितीयो मन्त्रस्य। तद्यथा -' य॰ 1। 1॥ '; सामवेदस्य साम॰ , पूर्वार्चिकस्य पू॰ , प्रथमाङ्कः प्रपाठकस्य , द्वितीयो दशतेस्तृतीयो मन्त्रस्य। तद्यथा -' साम॰ पू॰ 1।1।1॥ ' पूर्वार्चिकस्यायं नियमः। उत्तरार्चिकस्य खलु - साम॰ उ॰ , प्रथमाङ्कः प्रपाठकस्य , द्वितीयो मन्त्रस्य।

अत्रायं विशेषोऽस्ति। उत्तरार्चिके दशतयो न सन्ति , परन्त्वर्द्धप्रपाठके मन्त्रसंख्या पूर्णा भवति। तेन प्रथमः पूर्वार्द्धप्रपाठको , द्वितीय उत्तरार्द्धप्रपाठकश्चेत्ययमपि सङ्केत उत्तरार्चिके ज्ञेयः। तद्यथा -' साम॰ उ॰ 1। पू॰ 1॥ साम॰ उ॰ 1। उ॰ 1॥ ' अत्र द्वौ सङ्केतौ भविष्यतः। उकारेणोत्तरार्चिकं ज्ञेयं , प्रथमाङ्केन प्रथमः प्रपाठकः , पू॰ इत्यनेन पूर्वार्द्धः प्रथमः प्रपाठकः , द्वितीयाङ्केन मन्त्रसंख्या ज्ञेया। पुनर्द्वितीये सङ्केते द्वितीय-उकारेण उत्तरार्द्धः प्रथमः प्रपाठकः , द्वितीयाङ्केन तदेव। अथर्ववेदे अथर्व॰ , प्रथमाङ्कः काण्डस्य , द्वितीयो वर्गस्य , तृतीयो मन्त्रस्य। तद्यथा -' अथर्व॰ 1।1।1॥ '

भाषार्थ - अब वेदभाष्य में चारों वेद के जहां जहां प्रमाण लिखे जावेंगे उन के संकेत दिखलाते हैं। देखो ऋग्वेद का जहां प्रमाण लिखेंगे वहां ऋग्वेद का ऋ॰ और मण्डल 1 सूक्त 1 मन्त्र 1। इन का पहला दूसरा तीसरा क्रम से सङ्केत जानना चाहिए। जैसे 'ऋ॰ 1।1।1।'; इसी प्रकार यजुर्वेद का य॰, पहला अङ्क अध्याय का, दूसरा मन्त्र का जान लेना। जैसे-'य॰ 1। 1।'; सामवेद का नियम यह है कि साम॰, पूर्वार्चिक का पू॰, पहला प्रपाठक का, दूसरा दशति का, तीसरा मन्त्र का जानना चाहिये। जैसे-'साम॰ पू॰ 1।1।1।' यह नियम पूर्वार्चिक में है। उत्तरार्चिक में प्रपाठकों के भी पूर्वार्द्ध उत्तरार्द्ध होते हैं, अर्द्धप्रपाठक पर्य्यन्त मन्त्रसंख्या चलती है। इसलिए प्रपाठक के अङ्क के आगे पू॰ वा उ॰ धरा जायगा। उस पू॰ से पूर्वार्द्ध प्रपाठक और उ॰ से उत्तरार्द्ध प्रपाठक जान लेना होगा। इस प्रकार उत्तरार्चिक में दो सङ्केत होंगे। 'साम॰ उ॰ 1। पू॰ 1॥' 'साम॰ उ॰ 1। उ॰ 1॥' इसी प्रकार अथर्ववेद में अथर्व॰, पहला अङ्क काण्ड का, दूसरा वर्ग का, तीसरा मन्त्र जान लेना। जैसे-'अथर्व॰ 1।1।1॥'

एवं ब्राह्मणस्याद्यस्यैतरेयस्य ऐ॰ प्रथमाङ्कः पञ्चिकाया , द्वितीयः कण्डिकायाः। तद्यथा -' ऐ॰ 1।1॥ '; शतपथब्राह्मणे श॰ , प्रथमाङ्कः काण्डस्य , द्वितीयः प्रपाठकस्य , तृतीयो ब्राह्मणस्य , चतुर्थः कण्डिकायाः। तद्यथा -' श॰ 1।1।1।1। '; एवमेव सामब्राह्मणानि बहूनि सन्ति , तेषां मध्याद्यस्य यस्य प्रमाणमत्र लेखिष्यते तस्य तस्य सङ्केतस्तत्रैव करिष्यते। तेष्वेवैकं छान्दोग्याख्यं तस्य छां॰ , प्रथमाङ्कः प्रपाठकस्य , द्वितीयः खण्डस्य , तृतीयो मन्त्रस्य। तद्यथा -' छां॰ 1।1।1॥ '; एवं गोपथब्राह्मणस्य गो॰ , प्रथमाङ्कः प्रपाठकस्य द्वितीयो ब्राह्मणस्य। यथा -' गो॰ 1।1॥ '

एवं षट्शास्त्रेषु प्रथमं मीमांसाशास्त्रम् , तस्य मी॰ , प्रथमाङ्कोऽध्यायस्य , द्वितीयः पादस्य , तृतीयः सूत्रस्य। तद्यथा -' मी॰ 1।1।1॥ '; द्वितीयं वैशेषिकशास्त्रं , तस्य वै॰ , प्रथमाङ्कोऽध्यायस्य , द्वितीय आह्निकस्य , तृतीयः सूत्रस्य। तद्यथा -' वै॰ 1।1।1॥ '; तृतीयं न्यायशास्त्रं तस्य न्या॰ , अन्यद्वैशेषिकवत्। चतुर्थं योगशास्त्रं तस्य यो॰ , प्रथमाङ्कः पादस्य , द्वितीयः सूत्रस्य -' यो॰ 1।1॥ '; पञ्चमं सांख्यशास्त्रं , तस्य सां॰ , प्रथमाङ्कोऽध्यायस्य , द्वितीयः सूत्रस्य -' सां॰ 1।1। '; षष्ठं वेदान्तशास्त्रमुत्तरमीमांसाख्यं तस्य वे॰ , प्रथमाङ्कोऽध्यायस्य , द्वितीयः पादस्य , तृतीयः , सूत्रस्य -' वे॰ 1।1।1॥ '

तथाङ्गेषु प्रथमं व्याकरणं , तत्राष्टाध्यायी , तस्या अ॰ , प्रथमाङ्कोऽध्यायस्य , द्वितीयः पादस्य , तृतीयः सूत्रस्य। तद्यथा -' अ॰ 1।1।1॥ ' एतेनैव कृतेन सूत्रसङ्केतेन व्याकरणमहाभाष्यस्य सङ्केतो विज्ञेयः। यस्य सूत्रस्योपरि तद्भाष्यमस्ति तद्व्याख्यानं लिखित्वा तत्सूत्रसङ्केतो धरिष्यते। तथा निघण्टुनिरुक्तयोः प्रथमाङ्कोऽध्यायस्य , द्वितीयः खण्डस्य। निघण्टौ -' 1।1॥ ' निरुक्ते -' 1।1॥ ' खण्डाध्यायौ द्वयोः समानौ। तथा तैत्तिरीयारण्यके तै॰ , प्रथमाङ्कः प्रपाठकस्य , द्वितीयोऽनुवाकस्य - ' तै॰ 1।1॥ ' इत्थं सर्वेषां प्रमाणानां तेषु तेषु ग्रन्थेषु दर्शनार्थं सङ्केताः कृतास्तेन येषां मनुष्याणां द्रष्टुमिच्छा भवेदेतैरटैस्तेषु ग्रन्थेषु लिखितसङ्केतेन द्रष्टव्यम्। यत्रोक्तेभ्यो ग्रन्थेभ्यो भिन्नानां ग्रन्थानां प्रमाणं लेखिष्यते तत्रैकवारं समग्रं दर्शयित्वा पुनरेवमेव सङ्केतेन लेखिष्यत इति ज्ञातव्यम्।

भाषार्थ - इसी प्रकार ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रथम ऐतरेय ब्राह्मण का ऐ॰, पहला अङ्क पञ्चिका का, दूसरा कण्डिका का-'ऐ॰ 1।1।'; शतपथ ब्राह्मण का श॰, पहला अङ्क काण्ड का दूसरा प्रपाठक का, तीसरा ब्राह्मण का, चौथा कण्डिका का-'श॰ 1।1।1।1॥'; सामब्राह्मण बहुत हैं, उन में से जिस जिस का प्रमाण जहां लिखेंगे उस उस का ठिकाना वहां धर देंगे। जैसे एक छान्दोग्य कहाता है उस का छां॰, पहला अङ्क प्रपाठक का, दूसरा खण्ड का, तीसरा मन्त्र का। जैसे-'छां॰ 1।1।1।'; चौथा गोपथ ब्राह्मण कहाता है, उस का गो॰, पहला अङ्क प्रपाठक का, दूसरा ब्राह्मण का। जैसा-'गो॰ 1।1॥' इस प्रकार का सङ्केत चारों ब्राह्मणों में जानना होगा।

ऐसे ही छः शास्त्रों में प्रथम मीमांसा शास्त्र, उसका मी॰, अध्याय पाद और सूत्र के तीन अङ्क क्रम से जानो-'मी॰ 1।1।1।; दूसरा वैशेषिक का वै॰ पहला अङ्क अध्याय का, दूसरा आह्निक का, तीसरा सूत्र का। जैसे-'वै॰ 1।1।1॥' तीसरे न्यायशास्त्र का न्या॰ और तीन अङ्क वैशेषिक के समान जानो। चौथे योगशास्त्र का यो॰, प्रथम अङ्क पाद का, दूसरा सूत्र का-'यो॰ 1।1।'; पांचवें सांख्यशास्त्र का सां॰, अध्याय और सूत्र के दो अङ्क क्रम से जानो। जैसे-'सां॰ 1।1॥'; छठे वेदान्त का वे॰,अध्याय पाद और सूत्र के तीन अङ्क क्रम से-'वे॰ 1।1।1॥'

तथा अङ्गों में अष्टाध्यायी व्याकरण का अ॰, अध्याय, पाद, सूत्र के तीन अङ्क क्रम से जानो। जैसे-'अ॰ 1।1।1॥' इसी प्रकार जिस सूत्र के ऊपर महाभाष्य हुआ करेगा उस सूत्र का पता लिख के महाभाष्य का वचन लिखा करेंगे। उसी से उस का पता जान लेना चाहिए। तथा निघण्टु और निरुक्त में दो दो अङ्क अध्याय और खण्ड के लिखेंगे। तथा तैत्तिरीय आरण्यक में तै॰ लिख के प्रपाठक और अनु के दो अङ्क लिखेंगे। ये सङ्केत इसलिये लिखे हैं कि वारंवार ठिकाना न लिखने पड़ें, थोड़े से ही काम चल जाय, जिस किसी को देखना पड़े, वह उन ग्रन्थों में देख ले। और जिन ग्रन्थों के सङ्केत यहां नहीं लिखे उन के प्रमाणों का जहां कहीं काम पड़ेगा तो लिख दिया जायेगा।

परन्तु इन सब ग्रन्थों के सङ्केतों को याद रखना सब को योग्य है कि जिस से देखने में परिश्रम न पड़े।

॥इति ग्रन्थसङ्केतविषयः॥35॥

वेदार्थाभिप्रकाशप्रणयसुगमिका कामदा मान्यहेतुः ,

संक्षेपाद् भूमिकेयं विमलविधिनिधिः सत्यशास्त्रार्थयुक्ता।

सम्पूर्णाकार्य्यथेदं भवति सुरुचि यन्मन्त्रभाष्यं मयातः ,

पश्चादीशानभक्त्या सुमतिसहितया तन्यते सुप्रमाणम्॥1॥

मन्त्रार्थभूमिका ह्यत्र मन्त्रस्तस्य पदानि च।

पदार्थान्वयभावार्थाः क्रमाद् बोध्या विचक्षणैः॥2॥

यह भूमिका जो वेदों के प्रयोजन अर्थात् वेद किसलिये और किस ने बनाये, उन में क्या क्या विषय हैं, इत्यादि बातों की अच्छी प्रकार प्राप्ति करानेवाली है। इस को जो लोग ठीक ठीक परिश्रम से पढ़ें और विचारेंगे, उन का व्यवहार और परमार्थ का प्रकाश, संसार में मान्य और कामनासिद्धि अवश्य होगी। इस प्रकार जो निर्मल विषयों के विधान का कोश अर्थात् खजाना और सत्यशास्त्रों के प्रमाणों से युक्त जो भूमिका है, इस को मैंने संक्षेप से पूर्ण किया। अब इस के आगे उत्तम बुद्धि देनेवाली परमात्मा की भक्ति में अपनी बुद्धि को दृढ़ करके प्रीति के बढ़ानेवाले मन्त्रभाष्य का प्रमाणपूर्वक विस्तार करता हूं॥1॥

इस मन्त्रभाष्य में इस प्रकार का क्रम रहेगा कि प्रथम तो मन्त्र में परमेश्वर ने जिस बात का प्रकाश किया है, फिर मूल मन्त्र, उस का पदच्छेद, क्रम से प्रमाण सहित मन्त्र के पदों का अर्थ, अन्वय, अर्थात् पदों की सम्बन्धपूर्वक योजना और छठा भावार्थ अर्थात् मन्त्र का जो मुख्य प्रयोजन है। इस क्रम से मन्त्रभाष्य बनाया जाता है॥2॥

विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्न आ सुव॥

-य॰ 30।3।

इति श्रीमत्परिव्राजकाचार्य्येण श्रीयुतदयानन्दसरस्वतीस्वामिना

विरचिता संस्कृतभाषार्य्यभाषाभ्यां सुभूषिता सुप्रमाण-

युक्तर्ग्वेदादिचतुर्वेदभाष्यभूमिका समाप्तिमगमत्॥