ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/२५. ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषयः
अथ ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषयः
[सम्पाद्यताम्]सृष्टिमारभ्याद्यपर्य्यन्तं येषां येषां स्वतःपरतःप्रमाणसिद्धानां ग्रन्थानां पक्षपातरहितै रागद्वेषशून्यैः सत्यधर्मप्रियाचरणैः सर्वोपकारकैरार्यैर्विद्वद्भि-र्यथाङ्गीकारः कृतस्तथाऽत्रोच्यते -
य ईश्वरोक्ता ग्रन्थास्ते स्वतःप्रमाणं कर्त्तुं योग्याः सन्ति , ये जीवोक्तास्ते परतःप्रमाणार्हाश्च। ईश्वरोक्तत्वाच्चत्वारो वेदाः स्वतःप्रमाणम्। कुतः ? तदुक्तौ भ्रमादिदोषाभावात् , तस्य सर्वज्ञ- त्वात् सर्वविद्यावत्त्वात् , सर्वशक्तिमत्त्वाच्च। तत्र वेदेषु वेदानामेव प्रामाण्यं स्वीकार्यं , सूर्यप्रदीपवत्। यथा सूर्य्यः प्रदीपश्च स्वप्रकाशेनैव प्रकाशितौ सन्तौ सर्वमूर्त्तद्रव्यप्रकाशकौ भवतः , तथैव वेदाः स्वप्रकाशेनैव प्रकाशिताः सन्तः सर्वानन्यविद्याग्रन्थान् प्रकाशयन्ति। ये ग्रन्था वेदविरोधिनो वर्त्तन्ते , नैव तेषां प्रामाण्यं स्वीकर्त्तुं योग्यमस्ति। वेदानां तु खलु अन्येभ्यो ग्रन्थेभ्यो विरोधादप्य- प्रामाण्यं न भवति , तेषां स्वतः प्रमाण्यात्तद्भिन्नानां ग्रन्थानां वेदाधीनप्रामाण्याच्च।
ये स्वतःप्रमाणभूता मन्त्रभागसंहिताख्याश्चत्वारो वेदा उक्तास्तद्भिन्नास्तद्व्याख्यानभूता ब्राह्मणग्रन्था वेदानुकूलतया प्रमाणमर्हन्ति। तथैवैकादशशतानि सप्तविंशतिश्च वेदशाखा वेदार्थव्याख्याना अपि वेदानुकूलतयैव प्रमाणमर्हन्ति। एवमेव यानि शिक्षा कल्पोऽथ व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति षडङ्गनि। तथाऽऽयुर्वेदो वैद्यकशास्त्रम् , धनुर्वेदः शस्त्रास्त्रराजविद्या , गान्धर्ववेदो गानविद्या , अर्थवेदश्च शिल्पशास्त्रं , चत्वार उपवेदा अपि। तत्र चरकसुश्रुतनिघण्ट्वादय आयुर्वेदे ग्राह्याः। धुनर्वेदस्य ग्रन्थाः प्रायेण लुप्ताः सन्ति। परं तु तस्य सर्वविद्याक्रियावयवैः सिद्धत्वादिदानीमपि साधयितुमर्हाः सन्ति। अङ्गिरः प्रभृतिभिर्निर्मिता धनुर्वेदग्रन्था बहव आसन्निति। गान्धर्ववेदश्च सामगानविद्यादिसिद्धः। अर्थवेदश्च विश्वकर्मत्वष्टृ-मयकृतश्चतसृ-संहिताख्यो ग्राह्यः।
भाषार्थ - जो जो ग्रन्थ सृष्टि की आदि से लेके आज तक पक्षपात और रागद्वेषरहित सत्यधर्मयुक्त सब लोगों के प्रिय प्राचीन विद्वान् आर्य लोगों ने 'स्वतःप्रमाण' अर्थात् अपने आप ही प्रमाण, 'परतःप्रमाण' अर्थात् वेद और प्रत्यक्षानुमानादि से प्रमाणभूत हैं, जिन को जिस प्रकार करके जैसा कुछ माना है, उन को आगे कहते हैं-
इस विषय में उन लोगों का सिद्धान्त यह है कि-ईश्वर की कही हुई जो चारों मन्त्र संहिता हैं, वे ही स्वयंप्रमाण होने योग्य हैं, अन्य नहीं, परन्तु उनसे भिन्न भी जो जो जीवों के रचे हुए ग्रन्थ हैं, वे भी वेदों के अनुकूल होने से परतःप्रमाण के योग्य होते हैं। क्योंकि वेद ईश्वर के रचे हुए हैं, और ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वविद्यायुक्त तथा सर्वशक्तिवाला है, इस कारण से उस का कथन ही निर्भ्रम और प्रमाण के योग्य है। और जीवों के बनाए ग्रन्थ स्वतःप्रमाण के योग्य नहीं होते, क्योंकि वे सर्वविद्या और सर्वशक्तिमान् नहीं होते। इसलिये उन का कहना स्वतःप्रमाण के योग्य नहीं हो सकता।
ऊपर के कथन से यह बात सिद्ध होती है कि-वेदविषय में जहां कहीं प्रमाण की आवश्यकता हो, वहां सूर्य और दीपक के समान वेदों का ही प्रमाण लेना उचित है। अर्थात् जैसे सूर्य और दीपक अपने ही प्रकाश से प्रकाशमान होके, सब क्रियावाले द्रव्यों को प्रकाशित कर देते हैं, वैसे ही वेद भी अपने प्रकाश से प्रकाशित होके अन्य ग्रन्थों का भी प्रकाश करते हैं। इस से यह सिद्ध हुआ कि जो-जो ग्रन्थ वेदों से विरुद्ध हैं, वे कभी प्रमाण वा स्वीकार करने के योग्य नहीं होते। और वेदों का अन्य ग्रन्थों के साथ विरोध भी हो, तब भी अप्रमाण के योग्य नहीं ठहर सकते। क्योंकि वे तो अपने ही प्रमाण से प्रमाणयुक्त हैं।
इसी प्रकार ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मणादि ग्रन्थ जो वेदों के अर्थ और इतिहासादि से युक्त बनाये गये हैं, वे भी परतःप्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल ही होने से प्रमाण और विरुद्ध होने से अप्रमाण हो सकते हैं। मन्त्रभाग की चार संहिता कि जिन का नाम वेद है, वे सब स्वतःप्रमाण कहे जाते हैं। और उन से भिन्न ऐतरेय शतपथ आदि प्राचीन सत्य ग्रन्थ हैं, वे परतःप्रमाण के योग्य हैं। तथा ग्यारह सौ सत्ताईस (1127) चार वेदों की शाखा भी वेदों के व्याख्यान होने से परतःप्रमाण हैं।
तथा (आयुर्वेदः) अर्थात् जो वैद्यकशास्त्र-चरक, सुश्रुत और धन्वन्तरिकृत निघण्टु आदि ये सब मिलकर ऋग्वेद का उपवेद कहाता है। (धनुर्वेदः) अर्थात् जिस में शस्त्र-अस्त्रविद्या के विधानयुक्त अङ्गिरा आदि ऋषियों के बनाये ग्रन्थ, जो कि अङ्गिरा भरद्वाजादिकृत संहिता हैं, जिन से राजविद्या सिद्ध होती है। परन्तु वे ग्रन्थ प्रायः लुप्त से हो गये हैं, जो पुरुषार्थ से इस को सिद्ध किया चाहे तो वेदादि विद्यापुस्तकों से साक्षात् कर सकता है। (गान्धर्ववेदः) जो कि सामगान और नारदसंहिता आदि गानविद्या के ग्रन्थ हैं। (अर्थवेदः) अर्थात् शिल्पशास्त्र जिसके प्रतिपादन में विश्वकर्मा, त्वष्टा, देवज्ञ और मयकृत संहिता रची गई हैं, ये चारों उपवेद कहाते हैं।
शिक्षा पाणिन्यादिमुनिकृता। कल्पो मानवकल्पसूत्रादिः। व्याकरणमष्टाध्यायी-महाभाष्य-धातुपाठोणादिगण-प्रातिपदिक-गणपाठाख्यम्। निरुक्तं यास्कमुनिकृतं निघण्टुसहितं चतुर्थं वेदाङ्गं मन्तव्यम्। छन्दः पिङ्गलाचार्य्यकृत-सूत्रभाष्यम्। ज्योतिषं वसिष्ठाद्यृष्युक्तं रेखाबीजगणितमयं चेति वेदानां षडङ्गानि सन्ति।
तथा षडुपाङ्गानि - तत्राद्यं कर्मकाण्डविधायकं धर्मधर्मिव्याख्यामयं व्यासमुन्यादिकृत-भाष्यसहितं जैमिनि-मुनिकृतसूत्रं पूर्वमीमांसाशास्त्राख्यं ग्राह्यम्। द्वितीयं विशेषतया धर्मधर्मिविधायकं प्रशस्त-पादकृतभाष्यसहितं कणादमुनिकृतं वैशेषिकशास्त्रम्। तृतीयं पदार्थविद्या-विधायकं वात्स्यायन-भाष्यसहितं गोतममुनिकृतं न्यायशास्त्रम्। चतुर्थं यत्त्रिभिर्मीमांसा-वैशेषिक-न्यायशास्त्रैः सर्वपदार्थानां श्रवणमननेनानुमानिक-ज्ञानतया निश्चयो भवति , तेषां साक्षाज्ज्ञान-साधनमुपासना-विधायकं व्यासमुनिकृत-भाष्यसहितं पतञ्जलिमुनिकृतं योगशास्त्रम्। तथा पञ्चमं तत्त्वपरिगणन-विवेकार्थं भागुरिमुनिकृत-भाष्यसहितं कपिलमुनिकृतं सांख्यशास्त्रम्। षष्ठं बौद्धायन-वृत्त्यादि-व्याख्यानसहितं व्यासमुनिकृतं वेदान्तशास्त्रम्। तथैव ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्डक-माण्डूक्य-तैत्तिरीय-ऐतरेय-छान्दोग्य-बृहदारण्यका दशोपनिषदश्चोपाङ्गानि च ग्राह्याणि।
एवं चत्वारो वेदाः सशाखा व्याख्यान-सहिताश्चत्वार उपवेदाः , षड् वेदाङ्गानि , षट् च वेदोपाङ्गानि मिलित्वा षड् भवन्ति। एतैरेव चतुर्दशविद्या मनुष्यैर्ग्राह्या भवन्तीति वेद्यम्।
भाषार्थ - इसी प्रकार मन्वादिकृत मानवकल्पसूत्रादि, आश्वलायनादिकृत श्रौतसूत्रादि, पाणिनिमुनिकृत अष्टाध्यायी, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और पतञ्जलिमुनिकृत महाभाष्य पर्यन्त व्याकरण। तथा यास्कमुनिकृत निरुक्त और निघण्टु, वसिष्ठमुनि आदि कृत ज्योतिष सूर्यसिद्धान्त आदि, और (छन्दः) पिङ्गलाचार्यकृत सूत्रभाष्य आदि ये वेदों के छः अङ्ग भी परतःप्रमाण के योग्य।
और ऐसे ही वेद के छः उपाङ्ग अर्थात् जिनका नाम षट्शास्त्र है-उन में से एक व्यासमुनि आदि कृत भाष्य सहित जैमिनिमुनिकृत पूर्वमीमांसा, जिसमें कर्मकाण्ड का विधान और धर्मधर्मी दो पदार्थों से सब पदार्थों की व्याख्या की है। दूसरा-वैशेषिक शास्त्र जो कि कणादमुनिकृत सूत्र और गोतममुनि कृत प्रशस्तपादभाष्यादि-व्याख्यासहित। तीसरा-न्यायशास्त्र जो कि गोतममुनिप्रणीत सूत्र और वात्स्यायनमुनिकृत-भाष्यसहित। चौथा-योगशास्त्र जो कि पतञ्जलिमुनिकृत सूत्र और व्यासमुनिकृत-भाष्यसहित। पांचवां सांख्यशास्त्र जो कि कपिलमुनिकृत सूत्र और भागुरिमुनिकृतभाष्यसहित। और छठा-वेदान्तशास्त्र जो कि ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक ये दश उपनिषत् तथा व्यासमुनिकृत सूत्र जो कि बौद्धायनवृत्त्यादिव्याख्यासहित वेदान्तशास्त्र है, ये छः वेदों के उपाङ्ग कहाते हैं।
इसका यह अभिप्राय है कि जो शाखा शाखान्तर व्याख्यासहित चार वेद, चार उपवेद, छः अङ्ग और उपाङ्ग हैं, ये सब मिल के चौदह विद्या के ग्रन्थ हैं।
एतासां पठनाद्यथार्थं विदितत्वान्मानस-बाह्यज्ञान-क्रियाकाण्ड-साक्षात्करणाच्च महाविद्वान् भवतीति निश्चेतव्यम्। एत ईश्वरोक्ता वेदास्तद्व्याख्यानमया ब्राह्मणादयो ग्रन्था आर्षा वेदानुकूलाः सत्यधर्म-विद्यायुक्ता युक्तिप्रमाणसिद्धा एव माननीयाः सन्ति। नैवैतेभ्यो भिन्नाः , पक्षपातक्षुद्र-विचारस्वल्प-विद्याऽधर्माचरण-प्रतिपादना अनाप्तोक्ता वेदार्थविरुद्धा युक्तिप्रमाणविरहा ग्रन्थाः केनापि कदाचिदङ्गीकार्या इति।
ते च संक्षेपतः परिगण्यन्ते - रुद्रयामलादयस्तन्त्रग्रन्थाः। ब्रह्मवैवर्त्तादीनि पुराणानि च। प्रक्षिप्तश्लोकत्यागाया मनुस्मृतेर्व्यतिरिक्ताः स्मृतयः। सारस्वतचन्द्रिकाकौमुद्यादयो व्याकरणाभासग्रन्थाः। मीमांसाशास्त्रादि-विरुद्ध-निर्णयसिन्ध्वादयो ग्रन्थाः। वैशेषिक-न्यायशास्त्र-विरुद्धास्तर्कसंग्रहमारभ्य जागदीश्यन्ता न्यायाभासा ग्रन्थाः। योगशास्त्रविरुद्धा हठप्रदीपिकादयो ग्रन्थाः। सांख्यशास्त्रविरुद्धा सांख्यतत्त्वकौमुद्यादयः। वेदान्तशास्त्रविरुद्धा वेदान्तसार-पञ्चदशी-योगवासिष्ठादयो ग्रन्थाः। ज्योतिषशास्त्रविरुद्धा मुहूर्त्तचिन्तामण्यादयो मुहूर्तजन्मपत्र-फलादेशविधायकाः ग्रन्थाः।
तथैव श्रौतसूत्रविरुद्धास्त्रिकण्डिका-स्नान-सूत्र-परिशिष्टादयो ग्रन्थाः। मार्गशीर्षैकादशीकाशीस्थल-जलसेवन-यात्राकरण-दर्शन-नामस्मरण-स्नान-जडमूर्तिपूजाकरण-मात्रेणैव मुक्तिभावन-पापनिवारण-माहात्म्य-विधायकाः सर्वे ग्रन्थाः। तथैव पाखण्डि-सम्प्रदायि-निर्मितानि सर्वाणि पुस्तकानि च , नास्तिकत्व- विधायका ग्रन्थाश्चोपदेशाश्च। ते सर्वे वेदादि-शास्त्रविरुद्धा युक्तिप्रमाण-परीक्षाहीनाः सन्त्यतः शिष्टैरग्राह्या भवन्ति।
भाषार्थ - इन ग्रन्थों का तो पूर्वोक्त प्रकार से स्वतः-परतःप्रमाण करना, सुनना और पढ़ना सब को उचित है। इन से भिन्नों का नहीं। क्योंकि जितने ग्रन्थ पक्षपाती क्षुद्रबुद्धि कम विद्यावाले अधर्मात्मा असत्यवादियों के कहे वेदार्थ से विरुद्ध और युक्तिप्रमाणरहित हैं, उन को स्वीकार करना योग्य नहीं।
आगे उन में से मुख्य मुख्य मिथ्या ग्रन्थों के नाम भी लिखते हैं-जैसे रुद्रयामल आदि तन्त्रग्रन्थ। ब्रह्मवैवर्त्त, श्रीमद्भागवत आदि पुराण। सूर्यगाथा आदि उपपुराण। मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक और उस से पृथक् सब स्मृतिग्रन्थ। व्याकरणविरुद्ध सारस्वतचन्द्रिका कौमुद्यादि ग्रन्थ। धर्मशास्त्र विरुद्ध निर्णयसिन्धु आदि तथा वैशेषिक न्यायशास्त्र विरुद्ध तर्कसंग्रह मुक्तावल्यादि ग्रन्थ। हठदीपिका आदि ग्रन्थ, जो कि योगशास्त्र से विरुद्ध हैं तथा सांख्यशास्त्रविरुद्ध सांख्यतत्त्वकौमुदी आदि ग्रन्थ। वेदान्तशास्त्रविरुद्ध वेदान्तसार, पञ्चदशी, योगवासिष्ठादि ग्रन्थ। ज्योतिषशास्त्र से विरुद्ध मुहूर्त्तचिन्तामण्यादि मूहूर्तजन्मपत्र-फलादेशविधायक पुस्तक।
ऐसे ही श्रौतसूत्रादिविरुद्ध त्रिकण्डिकास्नानविधायकादि सूत्र। तथा मार्गशीर्ष एकादश्यादिव्रत, काश्यादि स्थल, पुष्कर गङ्गादि जल, यात्रा माहात्म्यविधायक पुस्तक तथा दर्शन नामस्मरण जड़मूर्तिपूजा करने से मुक्तिविधायक ग्रन्थ। इसी प्रकार पापनिवारणविधायक और ईश्वर के अवतार वा पुत्र अथवा दूतप्रतिपादक वेदविरुद्ध शैव, शाक्त, गाणपत, वैष्णवादि मत के ग्रन्थ तथा नास्तिक मत के पुस्तक और उन के उपदेश। ये सब वेद, युक्ति, प्रमाण और परीक्षा से विरुद्ध ग्रन्थ हैं। इसलिये सब मनुष्यों को उक्त अशुद्ध ग्रन्थ त्याग कर देने योग्य हैं।
प्र॰ - तेषु बह्वनृतभाषणेषु किञ्चित्सत्यमप्यग्राह्यं भवितुमर्हति विषयुक्तान्नवत् ?
उ॰ - यथा परीक्षका विषयुक्तममृत-तुल्यमप्यन्नं परीक्ष्य त्यजन्ति , तद्वदप्रमाणा ग्रन्थास्त्याज्या एव। कुतः ? तेषां प्रचारेण वेदानां सत्यार्थाप्रवृत्तेस्तदप्रवृत्त्या ह्यसत्यार्थान्धकारा-पत्तेरविद्यान्धकारतया यथार्थज्ञानानुत्पत्तेश्चेति।
अथ तन्त्रग्रन्थानां मिथ्यात्वं प्रदर्श्यते - तत्र पञ्चमकारसेवनेनैव मुक्तिर्भवति , नान्यथेति।
तेषां मतं यत्रेमे श्लोकाः सन्ति -
मद्यं मांसं च मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।
एते पञ्च मकाराश्च मोक्षदा हि युगे युगे॥1॥
पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत्पतति भूतले।
पुनरुत्थाय वै पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥2॥
प्रवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णा द्विजातयः।
निवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णाः पृथक् पृथक्॥3॥
मातृयोनिं परित्यज्य विहरेत् सर्वयोनिषु।
लिङ्गं योन्यां तु संस्थाप्य जपेन्मन्त्रमतन्द्रितः॥4॥
मातरमपि न त्यजेत्।
इत्याद्यनेकविधमल्पबुद्ध्यधर्माश्रेयस्कर्मानार्याभिहित-युक्तिप्रमाणरहितं वेदादिभ्योऽत्यन्त-विरुद्धमनार्षमश्लीलमुक्तं तच्छिष्टैर्न कदापि ग्राह्यमिति। मद्यादिसेवनेन बुद्ध्यादि-भ्रंशान्मुक्तिस्तु न जायते , किन्तु , नरकप्राप्तिरेव भवतीत्यन्यत्सुगमं प्रसिद्धं च। एवमेव ब्रह्मवैवर्त्तादिषु मिथ्यापुराणसंज्ञासु किं च नवीनेषु मिथ्याभूता बह्व्यः कथा लिखितास्तासां स्थालीपुलाकन्यायेन स्वल्पाः प्रदर्श्यन्ते। तत्रैवमेका कथा लिखिता -
' प्रजापतिर्ब्रह्मा चतुर्मुखो देहधारी स्वां सरस्वतीं दुहितरं मैथुनाय जग्राहेति। ' सा मिथ्यैवास्ति। कुतः ? अस्याः कथाया अलङ्काराभिप्रायत्वात्। तद्यथा -
भाषार्थ - कदाचित्, इन ग्रन्थों के विषय में कोई ऐसा प्रश्न करे कि-इन असत्य ग्रन्थों में भी जो जो सत्य बात हैं, उनका ग्रहण करना चाहिए?
तो इसका उत्तर यह है कि-जैसे अमृत तुल्य अन्न में विष मिला हो तो उस को छोड़ देते हैं, क्योंकि उन से सत्यग्रहण की आशा करने से सत्यार्थप्रकाशक वेदादि ग्रन्थों का लोप हो जाता है। इसलिये इन सत्यग्रन्थों के प्रचार के अर्थ उन मिथ्या ग्रन्थों को छोड़ देना अवश्य चाहिये। क्योंकि विना सत्यविद्या के ज्ञान कहां, विना ज्ञान के उन्नति कैसी? और उन्नति के न होने से मनुष्य सदा दुःखसागर ही में डूबे रहते हैं।
अब आगे उन पूर्वलिखित अप्रमाण ग्रन्थों के संक्षेप से पृथक् पृथक् दोष भी दिखलाये जाते हैं। देखो-तन्त्रग्रन्थों में ऐसे ऐसे श्लोक लिखे हुए हैं कि-
(मद्यं मांसं॰) मद्य पीना, मांस मच्छी खाना, मुद्रा अर्थात् सब के साथ इकट्ठे बैठ के रोटी बड़े आदि उड़ाना, कन्या बहिन माता और पुत्रवधू आदि के साथ भी मैथुन कर लेना। इन पांच मकारों के सेवन से सब की मुक्ति होना॥1॥
(पीत्वा॰ पीत्वा॰) किसी मकान के चार आलयों में मद्य के पात्र धर के एक कोने से खड़े खड़े मद्य पीने का आरम्भ करके दूसरे में जाना, दूसरे से पीते हुए तीसरे में और तीसरे से चौथे में जाकर पीना, यहां तक कि जब पर्यन्त पीते पीते बेहोश हो कर लकड़ी के समान भूमि में न गिर पड़े, तब तक बराबर पीते ही चले जाना। इस प्रकार वारंवार पीके अनेक बार उठ उठ कर भूमि में गिर जाने से मनुष्य जन्म मरणादि दुःखों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है॥2॥
(प्रवृत्ते भैरवीचक्रे॰) जब कभी वाममार्गी लोग रात्रि के समय किसी स्थान में इकट्ठे होते हैं, तब उन में ब्राह्मण से लेके चाण्डाल पर्यन्त सब स्त्री पुरुष आते हैं। फिर वे लोग एक स्त्री को नंगी करके वहां उस की योनि की पूजा करते हैं। सो केवल इतना ही नहीं किन्तु कभी कभी पुरुष को भी नंगा करके स्त्री लोग भी उस के लिङ्ग की पूजा करती हैं। तदनन्तर मद्य के पात्र में से एक पात्र अर्थात् प्याला भरके, उस स्त्री और पुरुष दोनों को पिलाते हैं। फिर उसी पात्र से सब वाममार्गी लोग क्रम से मद्य पीते और अन्नमांसादिक खाते चले जाते हैं। यहां तक कि जब तक उन्मत्त न हो जायें तब तक खाना पीना बन्द नहीं करते हैं। फिर एक स्त्री के साथ एक पुरुष अथवा एक के साथ अनेक भी मैथुन कर लेते हैं। जब उस स्थान से बाहर निकलते हैं, तब कहते हैं कि अब हम लोग अलग अलग वर्णवाले हो गये॥3॥
(मातृयोनिं॰) उन के किसी किसी श्लोक में तो ऐसा लिखा है कि माता को छोड़ के सब स्त्रियों से मैथुन कर लेवे, इस में कुछ दोष नहीं। और (मातरमपि न त्यजेत्) किसी किसी का यह भी मत है कि माता को भी न छोड़ना। तथा किसी में लिखा है कि योनि में लिङ्ग प्रवेश करके आलस्य छोड़कर मन्त्र को जपे तो वह शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है॥4॥
इत्यादि अनेक अनर्थरूप कथा तन्त्रग्रन्थों में लिखी हैं। वे सब वेदादिशास्त्र, युक्तिप्रमाणों से विरुद्ध होने के कारण श्रेष्ठ पुरुषों के ग्रहण करने योग्य नहीं। क्योंकि मद्यादि सेवन से मुक्ति तो कभी नहीं हो सकती, परन्तु ज्ञान का नाश और दुःखरूप नरक की प्राप्ति दीर्घकाल तक होती है।
इसी प्रकार ब्रह्मवैवर्त्त और श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थ जो कि व्यास जी के नाम से सम्प्रदायी लोगों ने रच लिये हैं, उन का नाम पुराण कभी नहीं हो सकता, किन्तु उन को नवीन कहना उचित है।
अब उनकी मिथ्यात्वपरीक्षा के लिए कुछ कथा यहां भी लिखते हैं-
प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरमभ्यध्यायद् दिवमित्यन्य आहुरुषसमित्यन्ये। तामृश्यो भूत्वा रोहितं भूतामभ्यैत्। तस्य यद्रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्योऽभवत्॥
- ऐ॰ पं॰ 3। कण्डि॰ 33, 34॥
प्रजापतिर्वै सुपर्णो गरुत्मानेष सविता॥
- शत॰ कां॰ 10। अ॰ 2। ब्रा॰ 7। कं॰ 4॥
तत्र पिता दुहितुर्गर्भं दधाति पर्जन्यः पृथिव्याः॥
- निरु॰ अ॰ 4। खं॰ 21॥
द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र
बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्।
उत्तानयोश्चम्वो3र्योनिरन्तरत्रा
पिता दुहितुर्गर्भमाधात् ॥1॥
- ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 164। मं॰ 33॥
शासद्वह्निर्दुहितुर्नप्त्यङ्गाद्विद्वाँ
ऋतस्य दीधितिं सपर्य्यन्।
पिता यत्र दुहितुः सेवमृञ्जन्त्सं
शग्म्येन मनसा दधन्वे॥2॥
- ऋ॰ मं॰ 3। सू॰ 31। मं॰ 1॥
भाष्यम् - सविता सूर्य्यः सूर्य्यलोकः प्रजापतिसंज्ञकोऽस्ति। तस्य दुहिता कन्यावद् द्यौरुषा चास्ति। यस्माद्यदुत्पद्यते तत्तस्यापत्यवत् , स तस्य पितृवदिति रूपकालङ्कारोक्तिः। स च पिता तां रोहितां किञ्चिद्रक्त-गुणप्राप्तां स्वां दुहितरं किरणैर्ऋष्यवच्छीघ्रमभ्यध्यायत् प्राप्नोति। एवं प्राप्तः प्रकाशाख्यमादित्यं पुत्रमजीजनदुत्पादयति। अस्य पुत्रस्य मातृवदुषा पितृवत्सूर्य्यश्च।
कुतः! तस्यामुषसि दुहितरि किरणरूपेण वीर्य्येण सूर्य्याद्दिवसस्य पुत्रस्योत्पन्नत्वात्। यस्मिन् भूप्रदेशे प्रातः पञ्चघटिकायां रात्रौ स्थितायां किञ्चित्सूर्य्यप्रकाशेन रक्तता भवति तस्योषा इति संज्ञा। तयोः पितादुहित्रोः समागमादुत्कटदीप्तिः प्रकाशाख्य आदित्यपुत्रो जातः। यथा मातापितृभ्यां सन्तानोत्पत्तिर्भवति , तथैवात्रापि बोध्यम्।
एवमेव पर्जन्यपृथिव्योः पितादुहितृवत्। कुतः ? पर्जन्यादद्भ्यः पृथिव्या उत्पत्तेः। अतः पृथिवी तस्य दुहितृवदस्ति। स पर्जन्यो वृष्टिद्वारा तस्यां वीर्य्यवज्जलप्रक्षेपणेन गर्भं दधाति। तस्माद् गर्भादोषध्यादयोऽपत्यानि जायन्ते। अयमपि रूपकालङ्कारः॥
अत्र वेदप्रमाणम् -
(द्यौर्मे पिता॰) प्रकाशो मम पिता पालयितास्ति , ( जनिता) सर्वव्यवहाराणामुत्पादकः। अत्र द्वयोः सम्बन्धत्वात्। तत्रेयं पृथिवी माता मानकर्त्री। द्वयोश्चम्वोः पर्जन्यपृथिव्योः सेनावदुत्तानयोरूर्ध्वतानयोरुत्तान-स्थितयोरलङ्कारः। अत्र पिता पर्जन्यो दुहितुः पृथिव्यां गर्भं जलसमूहमाधात् , आ सामन्ताद्धारयतीति रूपकालङ्कारो मन्तव्यः॥1॥
(शासद्वह्नि॰) अयमपि मन्त्रोऽस्यैवालङ्कारस्य विधायकोऽस्ति। वह्निशब्देन सूर्य्यो , दुहिताऽस्य पूर्वोक्तैव। स पिता , स्वस्या उषसो दुहितुः सेकं किरणाख्य-वीर्य्यस्थापनेन गर्भाधानं कृत्वा , दिवसपुत्रमजनयदिति॥2॥
अस्यां परमोत्तमायां रूपकालङ्कारविधायिन्यां निरुक्तब्राह्मणेषु व्याख्यातायां कथायां सत्यामपि ब्रह्मवैवर्त्तादिषु भ्रान्त्या याः कथा अन्यथा निरूपितास्ता नैव कदाचित्केनापि सत्या मन्तव्या इति।
भाषार्थ - नवीन ग्रन्थकारों ने एक यह कथा भ्रान्ति से मिथ्या करके लिखी है, जो कि प्रथम रूपकालङ्कार की थी-(प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरम॰) अर्थात् यहां प्रजापति कहते हैं सूर्य को, जिस की दो कन्या एक प्रकाश और दूसरी उषा। क्योंकि जो जिस से उत्पन्न होता है, वह उस का ही सन्तान कहाता है। इसलिये उषा जो कि तीन चार घड़ी रात्रि शेष रहने पर पूर्व दिशा में रक्तता दीख पड़ती है, वह सूर्य की किरण से उत्पन्न होने के कारण उस की कन्या कहाती है। उन में से उषा के सम्मुख जो प्रथम सूर्य की किरण जाके पड़ती है, वही वीर्यस्थापन के समान है। उन दोनों के समागम से पुत्र अर्थात् दिवस उत्पन्न होता है॥
'प्रजापति' और 'सविता' ये शतपथ में सूर्य के नाम हैं॥
तथा निरुक्त में भी रूपकालङ्कार की कथा लिखी है कि-पिता के समान पर्जन्य अर्थात् जलरूप जो मेघ है, उस की पृथिवीरूप दुहिता अर्थात् कन्या है। क्योंकि पृथिवी की उत्पत्ति जल से ही है। जब वह उस कन्या में वृष्टि द्वारा जलरूप वीर्य को धारण करता है, उस से गर्भ रहकर ओषध्यादि अनेक पुत्र उत्पन्न होते हैं॥
इस कथा का मूल ऋग्वेद है कि-
(द्यौर्मे पिता॰) द्यौ जो सूर्य का प्रकाश है, सो सब सुखों का हेतु होने से मेरे पिता के समान और पृथिवी बड़ा स्थान और मान्य का हेतु होने से मेरी माता के तुल्य है। (उत्तान॰) जैसे ऊपर नीचे वस्त्र की दो चांदनी तान देते हैं, अथवा आमने सामने दो सेना होती हैं, इसी प्रकार सूर्य और पृथिवी, अर्थात् ऊपर की चांदनी के समान सूर्य, और नीचे की बिछौने के समान पृथिवी है। तथा जैसे दो सेना आमने सामने खड़ी हों, इसी प्रकार सब लोकों का परस्पर सम्बन्ध है। इस में योनि अर्थात् गर्भस्थापन का स्थान पृथिवी, और गर्भस्थापन करनेवाला पति के समान मेघ है। वह अपने विन्दुरूप वीर्य के स्थापन से उस को गर्भधारण कराने से ओषध्यादि अनेक सन्तान उत्पन्न करता है, कि जिन से सब जगत् का पालन होता है॥1॥
(शासद्वह्नि॰) सब का वहन अर्थात् प्राप्ति करानेवाले परमेश्वर ने मनुष्यों की ज्ञानवृद्धि के लिये रूपकालङ्कार कथाओं का उपदेश किया है। तथा वही (ऋतस्य॰) जल के धारण करनेवाला, (नप्त्यग॰) जगत् में पुत्रपौत्रादि का पालन और उपदेश करता है। (पिता यत्र दुहितुः॰) जिस सुखरूप व्यवहार में स्थित होके पिता दुहिता में वीर्य स्थापन करता है, जैसा कि पूर्व लिख आये हैं, इसी प्रकार यहां भी जान लेना। जिस ने इस प्रकार के पदार्थ और उनके सम्बन्ध रचे हैं, उसको हम नमस्कार करते हैं॥2॥
जो यह रूपकालङ्कार की कथा अच्छी प्रकार वेद ब्राह्मण और निरुक्तादि सत्यग्रन्थों में प्रसिद्ध है। इस को ब्रह्मवैवर्त्त श्रीमद्भागवतादि मिथ्या ग्रन्थों में भ्रान्ति से बिगाड़ के लिख दिया है। तथा ऐसी ऐसी अन्य कथा भी लिखी हैं। उन सब को विद्वान् लोग मन से त्याग के सत्य कथाओं को कभी न भूलें।
तथा च -' कश्चिद्देहधारीन्द्रो देवराज आसीत्। स गोतमस्त्रियां जारकर्म कृतवान्। तस्मै गोतमेन शापो दत्तस्त्वं सहस्रभगो भवेति। तस्यै अहल्यायै शापो दत्तस्त्वं पाषाणशिला भवेति। तस्या रामपादरजःस्पर्शेन शापस्य मोक्षणं जातमिति। '
तत्रेदृश्यो मिथ्यैव कथाः सन्ति। कुतः ? आसामप्यलङ्कारार्थत्वात्। तद्यथा -
इन्द्रागच्छेति।......गौरावस्कन्दिन्नहल्यायै जारेति। तद्यान्येवास्य चरणानि तैरेवैनमेतत्प्रमोदयिषति॥
- शत॰ कां॰ 3। अ॰ 3। ब्रा॰ 1। कं॰ 18॥
रेतः सोमः॥
- श॰ कां॰ 3। अ॰ 3। ब्रा॰ 5। कं॰ 1॥
रात्रिरादित्यस्यादित्योदयेऽन्तर्धीयते॥
- निरु॰ अ॰ 12। खं॰ 11॥
सूर्य्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्व॥ इत्यपि निगमो भवति। सोऽपि गौरुच्यते॥
- निरु॰ अ॰ 2। खं॰ 16॥
जार आ भगः जार इव भगम्॥ आदित्योऽत्र जार उच्यते , रात्रेर्जरयिता॥
- निरु॰ अ॰ 3 खं॰ 16॥
एष एवेन्द्रो य एष तपति॥
- श॰ कां॰ 1। अ॰ 6। ब्रा॰ 3। कं॰ 18॥
भाष्यम् - इन्द्रः सूर्यो , य एष तपति , भूमिस्थान् पदार्थांश्च प्रकाशयति। अस्येन्द्रेति नाम परमैश्वर्यप्राप्तेर्हेतुत्वात्। स अहल्याया जारोऽस्ति। सा सोमस्य स्त्री। तस्य गोतम इति नाम। गच्छतीति गौरतिशयेन गौरिति गोतमश्चन्द्रः। तयोः स्त्रीपुरुषवत् सम्बन्धोऽस्ति। रात्रिरहल्या। कस्मादहर्दिनं लीयतेऽस्यां तस्माद्रात्रिरहल्योच्यते। स चन्द्रमाः सर्वाणि भूतानि प्रमोदयति , स्वस्त्रियाऽहल्यया सुखयति।
अत्र स सूर्य इन्द्रो , रात्रेरहल्याया , गोतमस्य चन्द्रस्य स्त्रिया जार उच्यते। कुतः ? अयं रात्रेर्जरयिता। ' जॄष् वयोहाना ' विति धात्वर्थोऽभिप्रेतोऽस्ति। रात्रेरायुषो विनाशक इन्द्रः सूर्य एवेति मन्तव्यम्॥
एवं सद्विद्योपदेशार्थालङ्कारायां भूषणरूपायां सच्छास्त्रेषु प्रणीतायां कथायां सत्यां या नवीनग्रन्थेषु पूर्वोक्ता मिथ्या कथा लिखितास्ति , सा केनचित्कदापि नैव मन्तव्या , ह्येतादृश्योऽन्याश्चापि।
भाषार्थ - अब जो दूसरी कथा इन्द्र और अहल्या की है, कि जिस को मूढ़ लोगों ने अनेक प्रकार बिगाड़ के लिखा है। सो उस को ऐसा मान रक्खा है कि-
'देवों का राजा इन्द्र देवलोक में देहधारी देव था। वह गोतम ऋषि की स्त्री अहल्या के साथ जारकर्म किया करता था। एक दिन जब उन दोनों को गोतम ने देख लिया, तब इस प्रकार शाप दिया कि-हे इन्द्र! तू हजार भगवाला हो जा। तथा अहल्या को शाप दिया कि तू पाषाणरूप हो जा। परन्तु जब उन्होंने गोतम की प्रार्थना की कि हमारे शाप का मोक्षण कैसे वा कब होगा, तब इन्द्र से तो कहा कि तुम्हारे हजार भग के स्थान में हजार नेत्र हो जायें, और अहल्या को वचन दिया कि जिस समय रामचन्द्र अवतार लेकर तेरे पर अपना चरण लगावेंगे, उस समय तू फिर अपने स्वरूप में आ जावेगी।'
इस प्रकार पुराणों में यह कथा बिगाड़ कर लिखी है। सत्य ग्रन्थों में ऐसे नहीं है। तद्यथा-
(इन्द्रागच्छेति॰) अर्थात् उन में इस रीति से है कि-सूर्य का नाम इन्द्र, रात्रि का अहल्या तथा चन्द्रमा का गोतम है। यहां रात्रि और चन्द्रमा का स्त्री-पुरुष के समान रूपकालङ्कार है। चन्द्रमा अपनी स्त्री रात्रि से सब प्राणियों को आनन्द कराता है और उस रात्रि का जार आदित्य है। अर्थात् जिस के उदय होने से रात्रि अन्तर्धान हो जाती है। और जार अर्थात् यह सूर्य ही रात्रि के वर्तमान रूप शृङ्गार को बिगाड़नेवाला है। इसलिये यह स्त्रीपुरुष का रूपकालङ्कार बांधा है, कि जैसे स्त्री पुरुष मिल कर रहते हैं, वैसे ही चन्द्रमा और रात्रि भी साथ साथ रहते हैं। चन्द्रमा का नाम 'गोतम' इसलिये है कि वह अत्यन्त वेग से चलता है। और रात्रि को 'अहल्या' इसलिये कहते हैं कि उस में दिन लय हो जाता है। तथा सूर्य रात्रि को निवृत्त कर देता है इसलिये वह उस का 'जार' कहाता है।
इस उत्तम रूपकालङ्कार विद्या को अल्पबुद्धि पुरुषों ने बिगाड़ के सब मनुष्यों में हानिकारक फल धर दिया है। इसलिये सब सज्जन लोग पुराणोक्त मिथ्या कथाओं का मन से ही त्याग कर दें।
' एवमेवेन्द्रः कश्चिद्देहधारी देवराज आसीत्तस्य त्वष्टुरपत्येन वृत्रासुरेण सह युद्धमभूत्। वृत्रासुरेणेन्द्रो निगलितोऽतो देवानां महद्भयमभूत्। ते विष्णुशरणं गताः। विष्णुरुपायं वर्णितवान् - मया प्रविष्टेन समुद्रफेनेनायं हतो भविष्यतीति।
ईदृश्यः प्रमत्तगीतवत् प्रलपिताः कथाः पुराणाभासादिषु नवीनेषु ग्रन्थेषु मिथ्यैव सन्तीति भद्रैर्विद्वद्भिर्मन्तव्यम्। कुतः ? एतासामप्यलङ्कारवत्त्वात्। तद्यथा -
इन्द्रस्य नु वीर्य्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री।
अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम्॥1॥
अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणां त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्य्यं ततक्ष।
वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अञ्जः समुद्रमव जग्मुरापः॥2॥
- ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 32। मं॰ 1।2॥
भाष्यम् - ( इन्द्रस्य॰) सूर्य्यस्य परमेश्वरस्य वा तानि वीर्याणि पराक्रमानहं प्रवोचं कथयामि , यानि प्रथमानि पूर्वं , नु इति वितर्के , वज्री चकार।
वज्री वज्रः प्रकाशः प्राणो वास्यास्तीति। वीर्यं वै वज्रः॥
श॰ कां॰ 7। अ॰ 3॥
स अहिं मेघमहन् हतवान् , तं हत्वा पृथिव्यामनु पश्चादपस्ततर्द विस्तारितवान्। ताभिरद्भिः प्रवक्षणा नदीस्ततर्द जलप्रवाहेण हिंसितवान् , तटादीनां च भेदं कारितवानस्ति। कीदृश्यस्ता नद्यः ? पर्वतानां मेघानां सकाशादुत्पद्यमानाः , यज्जलमन्तरिक्षाद्धिंसित्वा निपात्यते तद् वृत्रस्य शरीरमेव विज्ञेयम्॥1॥
अग्रे मन्त्राणां संक्षेपतोऽर्थो वर्ण्यते -( त्वष्टा) सूर्य्यः (अन्नहिं) तं मेघमहन् हतवान्। कथं हतवानित्यत्राह -( अस्मै) अहये वृत्रासुराय मेघाय (पर्वते शिश्रियाणम्) मेघे श्रितम् (स्वर्य्यम्) प्रकाशमयम् (वज्रम्) स्वकिरणजन्यं विद्युत् प्रक्षिपति। येन वृत्रासुरं मेघं (ततक्ष) कणीकृत्य भूमौ पातयति। पुनर्भूमिगतमपि जलं कणीकृत्याकाशं गमयति। ता आपः समुद्रम् (अवजग्मुः) गच्छन्ति। कथम्भूता आपः ? ( अञ्जः) व्यक्ताः (स्यन्दमानाः) चलन्त्यः। का इव ? वाश्रा वत्समिच्छवो गाव इव। आप एव वृत्रासुरस्य शरीरम्। यदिदं वृत्रशरीराख्यजलस्य भूमौ निपातनं , तदिदं सूर्यस्य स्तोतुमर्हं कर्मास्ति॥2॥
भाषार्थ - तीसरी इन्द्र और वृत्रासुर की कथा है। इस को भी पुराणवालों ने ऐसा धर के लौटा है कि वह प्रमाण और युक्ति इन दोनों से विरुद्ध जा पड़ी है। देखो कि-
'त्वष्टा के पुत्र वृत्रासुर ने देवों के राजा इन्द्र को निगल लिया। तब सब देवता लोग बड़े भययुक्त होकर विष्णु के समीप गये, और विष्णु ने उस के मारने का उपाय बतलाया कि-मैं समुद्र के फेन में प्रविष्ट होऊंगा। तुम लोग, उस फेन को उठा के वृत्रासुर को मारना, वह मर जायेगा।'
यह पागलों की सी बनाई हुई पुराणग्रन्थों की कथा सब मिथ्या है। श्रेष्ठ लोगों को उचित है कि इन को कभी न मानें। देखो-सत्यग्रन्थों में यह कथा इस प्रकार से लिखी है कि-
(इन्द्रस्य नु॰) यहां सूर्य का इन्द्र नाम है। उस के किये हुए पराक्रमों को हम लोग कहते हैं, जो कि परमैश्वर्य होने का हेतु अर्थात् बड़ा तेजधारी है। वह अपनी किरणों से 'वृत्र' अर्थात् मेघ को मारता है। जब वह मरके पृथिवी में गिर पड़ता है, तब अपने जलरूप शरीर को सब पृथिवी में फैला देता है। फिर उस से अनेक बड़ी बड़ी नदी पूरिपूर्ण होके समुद्र में जा मिलती हैं। कैसी वे नदी हैं कि पर्वत अर्थात् मेघों से उत्पन्न होके जल ही बहने के लिये होती हैं। जिस समय इन्द्र मेघरूप वृत्रासुर को मार के आकाश से पृथिवी में गिरा देता है, तब वह पृथिवी में सो जाता है॥1॥
फिर वही मेघ आकाश में से नीचे गिरके पर्वत अर्थात् मेघमण्डल का पुनः आश्रय लेता है। जिस को सूर्य अपनी किरणों से फिर हनन करता है। जैसे कोई लकड़ी को छील के सूक्ष्म कर देता है, वैसे ही वह मेघ को भी विन्दु विन्दु करके पृथिवी में गिरा देता है और उस के शरीररूप जल सिमट सिमट कर नदियों के द्वारा समुद्र को ऐसे प्राप्त होते हैं, कि जैसे अपने बछड़ों को गाय दौड़ के मिलती हैं॥2॥
अहन् वृत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन।
स्कन्धांसीव कुलिशेना वि वृक्णाहिः शयत उपपृक्पृथिव्याः॥3॥
अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य
वज्रमधि सानौ जघान।
वृष्णो वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन्
पुरुत्रा वृत्रो अशयद्व्यस्तः॥4॥
- ऋ॰ मण्ड॰ 1। सू॰ 32। मं॰ 5।7॥
भाष्यम् - अहिरिति मेघनामसु पठितम्॥
- निघं॰ अ॰ 1 खं॰ 10॥
इन्द्रशत्रुरिन्द्रोऽस्य शमयिता वा शातयिता वा तस्मादिन्द्रशत्रुः। तत्को वृत्रो मेघ इति नैरुक्तास्त्वाष्ट्रोऽसुर इत्यैतिहासिकाः। वृत्रं जघ्निवानपववार। तद्वृत्रो वृणोतेर्वा , वर्त्ततेर्वा , वर्धतेर्वा। यदवृणोत्तद् वृत्रस्य वृत्रत्वमिति विज्ञायते। यदवर्त्तत तद्वृत्रस्य वृत्रत्वमिति विज्ञायते। यदवर्धत तद्वृत्रस्य वृत्रत्वमिति विज्ञायते॥
- निरु॰ अ॰ 2। खं॰ 17॥
(इन्द्रः) सूर्यः (वज्रेण) विद्युत्किरणाख्येन (महता व॰) तीक्ष्णतरेण (वृत्रं) मेघम् (वृत्रतरम्) अत्यन्तबलवन्तं (व्यंसं) छिन्नस्कन्धं छेदितघनजालं यथा स्यात् तथा (अहन्) हतवान्॥3॥
स (अहिः) मेघः (कुलिशेन) (विवृक्णा) विविधछेदनसाधनेन वज्रेण (पृथिव्या उपपृक्) यथा कस्यचिन्मनुष्यादेरसिना छिन्नं सदङ्गं पृथिव्यां पतति , तथैव स मेघोऽपि (अशयत) , ' छन्दसि लुङ् लङ् लिट ' इति सामान्यकाले लङ्। पृथिव्यां शयान इवेन्द्रेण सूर्य्येणापादहस्तो व्यस्तो भिन्नाङ्गकृतो वृत्रो मेघो भूमावशयत् शयनं करोतीति॥4॥
निघण्टौ अ॰ 1। खं॰ 10 -वृत्र इति मेघस्य नाम।
इन्द्रः शत्रुर्यस्य स इन्द्रशत्रुरिन्द्रोऽस्य निवारकः। त्वष्टा सूर्य्यस्तस्यापत्यमसुरो मेघः। कुतः ? सूर्य्यकिरणद्वारैव रसजलसमुदायभेदेन यत्कणीभूतं जलमुपरि गच्छति , तत्पुनर्मिलित्वा मेघरूपं भवति। तस्यैवासुर इति संज्ञात्वात्। पुनश्च तं सूर्य्यो हत्वा भूमौ निपातयति। स च भूमिं प्रविशति , नदीर्गच्छति , तद्द्वारा समुद्रमयनं कृत्वा तिष्ठति , पुनश्चोपरि गच्छति। तं वृत्रमिन्द्रः सूर्य्यो जघ्निवानपववार निवारितवान्। वृत्रार्थो वृणोतेः स्वीकरणीयः। मेघस्य यद्वृत्रत्वमावरकत्वं तद्वर्तमानत्वाद्वर्धमानत्वाच्च सिद्धमिति विज्ञेयम्॥
भाषार्थ - जब सूर्य उस अत्यन्त गर्जित मेघ को छिन्न-भिन्न करके पृथिवी में ऐसे गिरा देता है कि जैसे कोई किसी मनुष्य आदि के शरीर को काट काट कर गिराता है, तब वह वृत्रासुर भी पृथिवी पर गिरा हुआ मृतक के समान शयन करनेवाला हो जाता है॥3॥
'निघण्टु' में मेघ का नाम वृत्र है (इन्द्रशत्रु॰)-वृत्र का शत्रु अर्थात् निवारक सूर्य्य है, सूर्य्य का नाम त्वष्टा है, उस का सन्तान मेघ है, क्योंकि सूर्य्य की किरणों के द्वारा जल कण कण होकर ऊपर को जाकर वहां मिल के मेघरूप हो जाता है। तथा मेघ का वृत्र नाम इसलिये है कि वृत्रो वृणोतेः॰-वह स्वीकार करने योग्य और प्रकाश का आवरण करने वाला है।
अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां
काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्।
वृत्रस्य निण्यं विचरन्त्यापो
दीर्घं तम आशयदिन्द्र शत्रुः॥5॥
नास्मै विद्युन्न तन्यतुः सिषेध
न यां मिहमविरद्ध्रादुनिं च।
इन्द्रश्च यद्युयुधाते अहिश्चोत्तापरीभ्यो
मघवा वि जिग्ये॥6॥
- ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 32। मं॰ 10। 13॥
इत्यादय एतद्विषया वेदेषु बहवो मन्त्राः सन्ति।
भाष्यम् - वृत्रो ह वाऽइदं सर्वं वृत्वा शिश्ये। यदिदमन्तरेण द्यावापृथिवी स यदिदं सर्वं वृत्वा शिश्ये तस्माद् वृत्रो नाम॥4॥
तमिन्द्रो जघान। स हतः पूतिः सर्वत एवाऽपोभिसुस्राव। सर्वत इव ह्ययं समुद्रस्तस्मादु हैका आपो बीभत्सां चक्रिरे। ता उपर्य्युपर्य्यतिपुप्रुविरे त इमे दर्भास्ता हैता अनापूयिता आपोऽस्ति वाऽइतरासु संसृष्टमिव , यदेना वृत्रः पूतिरभिप्रास्रवत्तदेवा- सामेताभ्यामपहन्त्यथ मेध्याभिरेवाद्भिः प्रोक्षति , तस्माद्वा एताभ्यामुत्पुनाति॥
- श॰ कां॰ 1। अ॰ 1। ब्रा॰ 3। कण्डि॰ 4। 5॥
तिस्र एव देवता इति नैरुक्ताः। अग्निः पृथिवीस्थानो , वायुर्वेन्द्रो वान्तरिक्षस्थानः , सूर्य्यो द्युस्थान इति॥
- निरु॰ अ॰ 7। खं॰ 5॥
(अतिष्ठन्तीनाम्॰) वृत्रस्य शरीरमापो दीर्घं तमश्चरन्ति। अतएवेन्द्रशत्रुर्वृत्रो मेघो भूमावशयत् , आ समन्ताच्छेते॥5॥
(नास्मै विद्युत्॰) वृत्रेण मायारूपप्रयुक्ता विद्युत्तन्यतुश्चास्मै सूर्य्यायेन्द्राय न सिषेध निषेद्धुं न शक्नोति। अहिर्मेघः , इन्द्रः सूर्य्यश्च द्वौ परस्परं युयुधाते। यदा वृत्रो वर्धते तदा सूर्य्यप्रकाशं निवारयति। यदा सूर्य्यस्य तापरूपसेना वर्धते तदा वृत्रं मेघं निवारयति। परन्तु मघवा इन्द्रः सूर्य्यस्तं वृत्रं मेघं विजिग्ये जितवान् भवति। अन्ततोऽस्यैव विजयो भवति न मेघस्येति॥6॥
(वृत्रो ह वा इति॰) - स वृत्र इदं सर्वं विश्वं वृत्वाऽऽवृत्य शिश्ये शयनं करोति , तस्माद् वृत्रो नाम। तं वृत्रं मेघमिन्द्रः सूर्य्यो जघान हतवान्। स हतः सन् पृथिवीं प्राप्य सर्वतः काष्ठतृणादिभिः संयुक्तः पूतिर्दुर्गन्धो भवति। स पुराकाशस्थो भूत्वा सर्वतोऽपोऽभिसुस्राव , तासां वर्षणं करोति। अयं हतो वृत्रः समुद्रं प्राप्य तत्रापि भयङ्करो भवति। अत एव तत्रस्था आपो भयप्रदा भवन्ति। इत्थं पुनः पुनस्तास्ता नदीसमुद्रपृथिवीगता आपः सूर्य्यद्वारेणोपर्य्युपर्य्यन्तरिक्षं पुप्रुविरे गच्छन्ति , ततोऽभिवर्षन्ति च। ताभ्य एवेमे दर्भाद्यौषधिसमूहा जायन्ते। यौ वाय्विन्द्रौ सूर्य्यपवनावन्तरिक्षस्थानौ सूर्य्यश्च द्युस्थाने अर्थात् प्रकाशस्थः॥
एवं सत्यशास्त्रेषु परमोत्तमायामलङ्कारयुक्तायां कथायां सत्यां ब्रह्मवैवर्त्तादिनवीनग्रन्थेषु पुराणाभासेष्वेता अन्यथा कथा उक्तास्ताः शिष्टैः कदाचिन्नैवाङ्गीकर्त्तव्या इति।
भाषार्थ - (अतिष्ठन्तीनाम्॰) वृत्र के इस जलरूप शरीर से बड़ी बड़ी नदियां उत्पन्न हो के अगाध समुद्र में जाकर मिलती हैं, और जितना जल तलाब वा कूप आदि में रह जाता है वह मानो पृथिवी में शयन कर रहा है॥5॥
(नास्मै॰) अर्थात् वह वृत्र अपने बिजली और गर्जनरूप भय से भी इन्द्र को कभी नहीं जीत सकता। इस प्रकार अलङ्काररूप वर्णन से इन्द्र और वृत्र ये दोनों परस्पर युद्ध के समान करते हैं, अर्थात् जब मेघ बढ़ता है, तब तो वह सूर्य के प्रकाश को हटाता है, और जब सूर्य का ताप अर्थात् तेज बढ़ता है तब वह वृत्र नाम मेघ को हटा देता है। परन्तु इस युद्ध के अन्त में इन्द्र नाम सूर्य ही का विजय होता है।
(वृत्रो ह वा॰)-जब मेघ वृद्धि को प्राप्त होकर पृथिवी और आकाश में विस्तृत होके फैलता है, तब तब उस को सूर्य हनन करके पृथिवी में गिरा दिया करता है। पश्चात् वह अशुद्ध भूमि, सड़े हुए वनस्पति, काष्ठ, तृण तथा मलमूत्रादि युक्त होने से कहीं कहीं दुर्गन्धरूप भी हो जाता है। फिर उसी मेघ का जल समुद्र में जाता है। तब समुद्र का जल देखने में भयंकर मालूम पड़ने लगता है। इसी प्रकार वारंवार मेघ वर्षता रहता है।
(उपर्य्युपर्य्यन्त॰)-अर्थात् सब स्थानों से जल उड़ उड़ कर आकाश में बढ़ता है। वहां इकट्ठा होकर फिर फिर वर्षा किया करता है। उसी जल और पृथिवी के संयोग से ओषध्यादि अनेक पदार्थ उत्पन्न होते हैं। उसी मेघ को 'वृत्रासुर' के नाम से बोलते हैं। वायु और सूर्य का नाम 'इन्द्र' है। वायु अन्तरिक्ष में और सूर्य प्रकाशस्थान में स्थित हैं। इन्हीं वृत्रासुर और इन्द्र का आकाश में युद्ध हुआ करता है कि जिसके अन्त में मेघ का पराजय और सूर्य का विजय निःसन्देह होता है।
इस सत्य ग्रन्थों की अलङ्काररूप कथा को छोड़ के छोकरों के समान अल्पबुद्धि वाले लोगों ने ब्रह्मवैवर्त्त और श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थों में मिथ्या कथा लिख रक्खी हैं। उन को श्रेष्ठ पुरुष कभी न मानें।
एवमेव नवीनेषु ग्रन्थेषूक्ता अनेकविधा देवासुरसंग्रामकथा अन्यथैव सन्ति॥ ता अपि बुद्धिमद्भिर्मनुष्यैरितरैश्च नैव मन्तव्याः। कुतः ? तासामप्यलङ्कारयोगात्। तद्यथा -
देवासुराः संयत्ता आसन्॥1॥
- श॰ कां॰ 13। अ॰ 3। ब्रा॰ 9। कं॰ 1॥
असुरानभिभवेम देवाः असुरा असुरता स्थानेष्वस्ताः स्थानेभ्य इति वापि वासुरिति प्राणनामास्तः शरीरे भवति , तेन तद्वन्तः। सोर्देवानसृजत तत्सुराणां सुरत्वमसोरसुरानसृजत तदसुराणामसुरत्वं विज्ञायते॥
- निरु॰ अ॰ 3। खं॰ 8॥
देवानामसुरत्वमेकत्वं प्रज्ञावत्त्वं वा नवत्वं वापि वासुरिति प्रज्ञानामास्यत्यनर्थानस्ताश्चास्यामर्था असुरत्वमादिलुप्तम्॥
- निरु॰ अ॰ 10। खं॰ 34॥
सोऽर्चञ्छ्राम्यंश्चचार प्रजाकामः। स आत्मन्येव प्रजापतिमधत्त। स आस्येनैव देवानसृजत। ते देवा दिवमभिपद्यासृज्यन्त , तद्देवानां देवत्वं यद्दिवमभिपद्यासृज्यन्त। तस्मै ससृजानाय दिवेवास , तदेव देवानां देवत्वं यदस्मै ससृजानाय दिवेवास॥ अथ योऽयमवाङ् प्राणः तेनासुरानसृजत। त इमामेव पृथिवीमभिसम्पद्यासृज्यन्त। तस्मै ससृजानाय तम इवास॥ सोऽवेत् पाप्मानं वा असृक्षि , यस्मै मे ससृजानाय तम इवाभूदिति। तांस्तत एव पाप्मना विध्यत्ते , तत एव पराभवंस्तस्मादाहुर्नैतदस्ति यद्देवासुरम्। यदिदमन्वाख्याने त्वदुद्यत इतिहासे त्वत् , ततो ह्येव तान् प्रजापतिः पाप्मना विध्यत्ते , तत एव पराभवन्निति॥ तस्मादेतदृषिणाभ्यनूक्तम्। न त्वं युयुत्से कतमच्च नाहर्न तेऽमित्रो मघवन् कश्चनास्ति। मायेत्सा ते यानि युद्धान्याहुर्नाद्य शत्रुं न नु पुरा युयुत्स इति॥ स यदस्मै देवान्त्ससृजानाय , दिवेवास तदहरकुरुताथ यदस्मा असुरान्त्ससृजानाय तम इवास तांरात्रिमकुरुत ते अहोरात्रे॥ स ऐक्षत प्रजापतिः॥
- श॰ कां॰ 11। अ॰ 1। ब्रा॰ 6। कं॰ 7-12॥
देवाश्च वा असुराश्च। उभये प्राजापत्याः प्रजापतेः पितुर्दायमुपेयुः॥
- श॰ कां॰ 1। अ॰ 7। ब्रा॰ 2। कं॰ 22॥
द्वया ह प्राजापत्याः , देवाश्चासुराश्च। ततः कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुरा। यदेवेदमप्रतिरूपं जिघ्रति स एव स पाप्मा॥
- श॰ कां॰ 14। अ॰ 3। ब्रा॰ 4। कं॰ 1, 3, 4॥
ऊर्गिति देवा मायेत्यसुराः॥
- श॰ कां॰ 10। अ॰ 5। ब्रा॰ 6। कं॰ 20॥
प्राणा देवाः॥
- श॰ कां॰ 6। अ॰ 3। ब्रा॰ 3। कं॰ 15॥
प्राणो वा असुस्तस्यैषा माया॥
- श॰ कां॰ 6। अ॰ 6। ब्रा॰ 4। कं॰ 6॥
(देवासुराः॰) देवा असुराश्च संयत्ता सज्जा युद्धं कर्त्तुं तत्परा आसन् भवन्तीति शेषः। के ते देवासुरा इत्यत्रोच्यते -
विद्वांसो हि देवाः॥
- श॰ कां॰ 3। अ॰ 7। ब्रा॰ 6। कं॰ 10॥
हीति निश्चयेन विद्वांसो देवास्तद्विपरीता अविद्वांसोऽसुराः। ये देवास्ते विद्यावत्त्वात्प्रकाशवन्तो भवन्ति। ये ह्यविद्वांसस्ते खल्वविद्यावत्त्वाज् ज्ञानरहितान्धकारिणो भवन्ति। एषामुभयेषां परस्परं युद्धमिव वर्त्ततेऽयमेव देवासुरसंग्रामः।
द्वयं वा इदं , न तृतीयमस्ति। सत्यं चैवानृतं च। सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः। इदमहमनृतात्सत्यमुपैमीति तन्मनुष्येभ्यो देवानुपैति। स वै सत्यमेव वदेत्। एतद्ध वै देवा व्रतं चरन्ति यत्सत्यम्। तस्मात्ते यशो , यशो ह भवति य एवं विद्वान्त्सत्यं वदति॥ मनो ह वै देवा मनुष्यस्य॥
श॰ कां॰ 1। अ॰ 1। ब्रा॰ 1। कं॰ 4, 5, 7॥
ये सत्यवादिनः सत्यमानिनः सत्यकारिणश्च ते देवाः। ये चानृतवादिनोऽनृतकारिणोऽनृतमानिनश्च ते मनुष्या असुरा एव। तयोरपि परस्परं विरोधो युद्धमिव भवत्येव। मनुष्यस्य यन्मनस्तद्देवाः , प्राणा असुरा , एतयोरपि विरोधो भवति। मनसा विज्ञानबलेन प्राणानां निग्रहो भवति , प्राणबलेन मनसश्चेति युद्धमिव प्रवर्त्तते।
प्रकाशाख्यात्सोर्देवान्मनः षष्ठानीन्द्रियाणीश्वरोऽसृजत। अतस्ते प्रकाशकारकाः। असोरन्धकाराख्यात् पृथिव्यादेरसुरान्पञ्चकर्मेन्द्रियाणि प्राणांश्चासृजत। एतयोरपि प्रकाशाप्रकाश-साधकतमत्वानुरोधेन संग्रामवदनयोर्वर्त्तमानमस्तीति विज्ञेयम्।
(सोऽर्चञ्छ्राम्यंश्चचार॰) प्रजाकामः परमेश्वर आस्येनाग्निपरमाणुमयात्कारणात् , सूर्यादीन्प्रकाशवतो लोकान् मुख्यगुणकर्मभ्यो यानसृजत , ते देवा द्योतमाना दिवं प्रकाशं परमेश्वर- प्रेरितमभिपद्य , प्रकाशादिव्यवहारानसृज्यन्त। तदेव देवानां देवत्वं यतस्ते दिवि प्रकाशे रमन्ते। अथेत्यनन्तरमर्वाचीनो योऽयं प्राणो वायुः पृथिव्यादिलोकश्चेश्वरेण सृष्टस्तेनैवासुरान् प्रकाश- रहितानसृजत सृष्टवानस्ति। ते पृथिवीमभिपद्यौषध्यादीन् पदार्थानसृज्यन्त। ते सर्वे सकार्य्याः प्रकाशरहितास्तयोस्तमः प्रकाशवतोरन्योऽन्यं विरोधो युद्धमिव प्रवर्त्तते। तस्मादिदमपि देवासुरं युद्धमिति विज्ञेयम्। तथैव पुण्यात्मा मनुष्यो देवोऽस्ति , पापात्मा ह्यसुरश्च। एतयोरपि परस्परं विरुद्धस्वभावाद्युद्धमिव प्रतिदिनं भवति , तस्मादेतदपि ' देवासुरसंग्रामो ' ऽस्तीति विज्ञेयम्। एवमेव दिनं देवो , रात्रिरसुरः। एतयोरपि परस्परं युद्धमिव प्रवर्त्तते।
त इमे उभये पूर्वोक्ताः प्रजापतेः परमेश्वरस्य पुत्रा इव वर्त्तन्ते। अत एव ते परमेश्वरस्य पदार्थानुपेताः सन्ति। तेषां मध्येऽसुराः प्राणादयो ज्येष्ठाः सन्ति। वायोः पूर्वोत्पन्नत्वात् प्राणानां तन्मयत्वाच्च। तथैव जन्मतो मनुष्याः सर्वेऽविद्वांसो भवन्ति , पुनर्विद्वांसश्च। तथैव वायोः सकाशादग्नेरुत्पत्तिः प्रकृतेरिन्द्रियाणां च , तस्मादसुरा ज्येष्ठा देवाश्च कनिष्ठाः। एकत्र देवाः सूर्य्यादयो ज्येष्ठाः पृथिव्यादयोऽसुराः कनिष्ठाश्च। ते सर्वे प्रजापतेः सकाशादुत्पन्नत्वात्तस्यापत्यानीव सन्तीति विज्ञेयम्। एषामपि परस्परं युद्धमिव प्रवर्त्तत इति ज्ञातव्यम्॥
ये प्राणपोषकाः स्वार्थसाधनतत्परा मायाविनः कपटिनो मनुष्यास्ते ह्यसुराः। ये च परोपकारकाः परदुःखभञ्जना निष्कपटिनो धार्मिका मनुष्यास्ते देवाश्च विज्ञेयाः। एतयोरपि परस्परं विरोधात्संग्राम इव भवति। इत्यादिप्रकारकं दैवासुरं युद्धमिति बोध्यम्॥
एवं परमोत्तमायां विद्याविज्ञापनार्थायां रूपकालङ्कारेणान्वितायां सत्यशास्त्रेषूक्तायां कथायां सत्यां , व्यर्थपुराणसंज्ञकेषु नवीनेषु तन्त्रादिषु ग्रन्थेषु च या मिथ्यैव कथा वर्णिताः सन्ति , विद्वद्भिर्नैवैताः कथाः कदाचिदपि सत्या मन्तव्या इति।
भाषार्थ - जो चौथी देवासुर संग्राम की कथा रूपकालङ्कार की है, इस को भी विना जाने प्रमादी लोगों ने बिगाड़ दिया है। जैसे-
एक दैत्यों की सेना थी कि जिनका शुक्राचार्य पुरोहित था, और वे दक्षिण देश में रहे थे। तथा दूसरी देवों की सेना थी कि जिन का राजा इन्द्र, सेनापति अग्नि, और पुरोहित बृहस्पति था। उन देवों के विजय कराने के लिए आर्यावर्त्त के राजा भी जाया करते थे। असुर लोग तप करके ब्रह्मा, विष्णु और महादेवादि से वर मांग लेते थे। और उन के मारने के लिए विष्णु अवतार धारण करके पृथिवी का भार उतारा करते थे।
यह सब पुराणों की गप्पें व्यर्थ जानकर छोड़ देना। और सत्य ग्रन्थों की कथा जो नीचे लिखते हैं, उनका ग्रहण करना सब को उचित है। तद्यथा-
(देवासुराः सं॰) देव और असुर अपने अपने बाने में सज कर सब दिन युद्ध किया करते हैं तथा इन्द्र और वृत्रासुर की जो कथा ऊपर लिख आये, सो भी देवासुरसंग्राम रूप जानो। क्योंकि सूर्य की किरण 'देव' संज्ञक और मेघ के अवयव अर्थात् बादल 'असुर' संज्ञक हैं। उनका परस्पर युद्धवर्णन पूर्व कर दिया है।
निघण्टु आदि सत्य शास्त्रों में सूर्य देव और मेघ असुर करके प्रसिद्ध है। इन सब वचनों का अभिप्राय यह है कि मनुष्य लोग देवासुर संग्राम का स्वरूप यथावत् जान लेवें। जैसे-जो लोग विद्वान्, सत्यवादी, सत्यमानी और सत्यकर्म करनेवाले हैं, वे तो 'देव' और जो अविद्वान्, झूंठ बोलने, झूंठ मानने और मिथ्याचार करने वाले हैं, वे 'असुर' कहाते हैं। उन का परस्पर नित्य विरोध होना, यही उन के युद्ध के समान है। इसी प्रकार मनुष्य का मन और ज्ञान इन्द्रिय भी देव कहाते हैं, उन में राजा मन और सेना इन्द्रिय हैं तथा सब प्राणों का नाम असुर है, उन में राजा प्राण और अपानादि सेना है। इन का भी परस्पर विरोधरूप युद्ध हुआ करता है। मन के विज्ञान बढ़ने से प्राणों का जय और प्राणों के बढ़ने से मन का विजय हो जाता है॥
(सोर्दे॰) सु अर्थात् प्रकाश के परमाणुओं से मन और पांच ज्ञानेन्द्रिय, उनके परस्पर संयोग तथा सूर्य आदि को ईश्वर रचता है और (असो॰) अन्धकाररूप परमाणुओं से पांच कर्मेन्द्रिय, दश प्राण और पृथिवी आदि को रचता है, जो कि प्रकाशरहित होने से असुर कहाते हैं। प्रकाश और अप्रकाश के विरुद्ध गुण होने से इनकी भी संग्राम संज्ञा मानी है॥
तथा पुण्यात्मा मनुष्य 'देव' और पापात्मा दुष्ट लोग 'असुर' कहाते हैं। उन का भी परस्पर विरोधरूप युद्ध नित्य होता रहता है तथा दिन का नाम 'देव' और रात्रि का नाम 'असुर' है। इन का भी परस्पर विरोधरूप युद्ध हो रहा है।
तथा शुक्लपक्ष का नाम 'देव' और कृष्णपक्ष का नाम 'असुर' है तथा उत्तरायण की 'देव' संज्ञा और दक्षिणायन की 'असुर' संज्ञा है। इन सभों का भी परस्पर विरोधरूप युद्ध हो रहा है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जहां जहां ऐसे लक्षण घट सकें, वहां वहां देवासुर संग्राम का रूपकालङ्कार जान लेना॥
ये सब देव और असुर प्राजापत्य अर्थात् ईश्वर के पुत्र के समान कहे जाते हैं, और संसार के सब पदार्थ इन्हीं के अधिकार में रहते हैं। इन में से जो जो असुर अर्थात् प्राण आदि हैं, वे ज्येष्ठ कहाते हैं। क्योंकि वे प्रथम उत्पन्न हुए हैं तथा बाल्यावस्था में सब मनुष्य भी अविद्वान् होते हैं। तथा सूर्य ज्ञानेन्द्रिय और विद्वान् आदि पश्चात् प्रकाश होने से कनिष्ठ बोले जाते हैं॥
उन मे से जो जो मनुष्य स्वार्थी और अपने प्राण को पुष्ट करनेवाले तथा कपट छल आदि दोषों से युक्त हैं, वे 'असुर' और जो लोग परोपकारी परदुःखभञ्जन तथा धर्मात्मा हैं, वे 'देव' कहाते हैं॥
इस सत्य विद्या के प्रकाश करनेवाली कथा को प्रीतिपूर्वक ग्रहण करके सर्वत्र प्रचार करना और मिथ्या कथाओं का मन कर्म और वचन से त्याग कर देना सब को उचित है।
एवमेव कश्यपगयादितीर्थकथा अपि ब्रह्मवैवर्त्तादिषु ग्रन्थेषु वेदादिसत्यशास्त्रेभ्यो विरुद्धा उक्ताः सन्ति। तद्यथा -
' मरीचिपुत्रः कश्यप ऋषिरासीत्तस्मै त्रयोदशकन्या दक्षप्रजापतिना विवाहविधानेन दत्ताः। तत्सङ्गमे दितेर्दैत्या , अदितेरादित्याः , दनोर्दानवाः , एवमेव कद्द्रवाः सर्पाः विनतायाः पक्षिणः , तथाऽन्यासां सकाशाद्वानरर्च्छवृक्षघासादय उत्पन्नाः। ' इत्याद्या अन्धकारमय्यः प्रमाणयुक्तिविद्याविरुद्धा असम्भवग्रस्ताः कथा उक्तास्ता अपि मिथ्या एव सन्तीति विज्ञेयम्। तद्यथा -
स यत्कूर्मो नाम। प्रजापतिः प्रजा असृजत , यदसृजताकरोत्तद्यदकरोत्तस्मात्कूर्म्मः , कश्यपो वै कूर्म्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्य इति॥
- श॰ कां॰ 7। अ॰ 5। ब्रा॰ 1। कं॰ 5॥
भाष्यम् - ( स यत्कूर्म्मः) परमेश्वरेणेदं सकलं जगत् क्रियते , तस्मात्तस्य ' कूर्म्म ' इति संज्ञा। ' कश्यपो वै कूर्म्म ' इत्यनेन परमेश्वरस्यैव ' कश्यप ' इति नामास्ति। तेनैवेमाः सर्वाः प्रजा उत्पादितास्तस्मात्सर्वा इमाः प्रजाः काश्यप्य इत्युच्यन्ते। कश्यपः कस्मात्पश्यको भवतीति निरुक्त्या पश्यतीति पश्यः , सर्वज्ञतया सकलं जगद्विजानाति स पश्यः , पश्य एव निर्भ्रमतयाऽतिसूक्ष्ममपि वस्तु यथार्थं जानात्येवातः पश्यक इति। आद्यन्ताक्षरविपर्य्ययाद्धिंसेः सिंहः , कृतेस्तर्कुरित्यादिवत्कश्यप इति ' हयवरट् ' इत्येतस्योपरि महाभाष्यप्रमाणेन पदं सिध्यति। अतः सुष्ठु विज्ञायते काश्यप्यः प्रजा इति।
भाषार्थ - जो पांचवीं कश्यप और गया पुष्करतीर्थादि कथा लोगों ने बिगाड़ के प्रसिद्ध की हैं। जैसे देखो कि-
'मरीचि के पुत्र एक कश्यप ऋषि हुए थे। उन को दक्षप्रजापति ने विवाह विधान से तेरह कन्या दीं, कि जिन से सब संसार की उत्पत्ति हुई। अर्थात् दिति से दैत्य, अदिति से आदित्य, दनु से दानव, कद्द्रू से सर्प और विनता से पक्षी तथा औरों से वानर, ऋच्छ, घास आदि पदार्थ भी उत्पन्न हुए। इसी प्रकार चन्द्रमा को सत्ताईस कन्या दीं।' इत्यादि प्रमाण और युक्ति से विरुद्ध अनेक असम्भव कथा लिख रक्खी हैं। उन को मानना किसी मनुष्य को उचित नहीं। देखिये, ये ही कथा सत्य शास्त्रों में किस प्रकार की उत्तम लिखी हैं।
(स यत्कूर्मो॰) प्रजा को उत्पन्न करने से 'कूर्म्म' तथा उस को अपने ज्ञान से देखने के कारण परमेश्वर को 'कश्यप' भी कहते हैं। 'कश्यप' यह शब्द 'पश्यक' इस शब्द के आद्यन्ताक्षरविपर्य्यय से बनता है॥
इस प्रकार की उत्तम कथा को समझ के उन मिथ्या कथाओं को सब लोग छोड़ देवें कि जिस से सब का कल्याण हो। अब देखो गयादि तीर्थों की कथाओं को-
प्राणो वै बलं , तत्प्राणे प्रतिष्ठितं , तस्मादाहुर्बलं सत्यादोजीय। इत्येवं वेषा गायत्र्यध्यात्मं प्रतिष्ठिता॥ सा हैषा गयांस्तत्रे। प्राणा वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रे , तद्यद्गयांस्तत्रे तस्माद् गायत्रीनाम॥
- श॰ कां॰ 14। अ॰ 8। ब्रा॰ 1। कं॰ 6, 7॥
तीर्थमेव प्रायणीयोऽतिरात्रस्तीर्थेन हि प्रस्नान्ति। तीर्थमेवोदयनीयोऽतिरात्रस्तीर्थेन ह्युत्स्नान्ति॥
- श॰ कां॰ 12। अ॰ 2। ब्रा॰ 5। कं॰ 1, 5॥
गय इत्यपत्यनामसु पठितम्॥
- निघं॰ अ॰ 3। खं॰ 4॥
अहिंसन् सर्वभूतान्यन्यत्र तीर्थेभ्यः॥
- इति छान्दोग्योपनि॰॥
समानतीर्थे वासी॥
- इत्यष्टाध्याय्याम्, अ॰4। पा॰4। सू॰ 108॥ सतीर्थ्यो ब्रह्मचारीत्युदाहरणम्॥
त्रयः स्नातका भवन्ति। विद्यास्नातको व्रतस्नातको विद्याव्रतस्नातकश्चेति। यो विद्यां समाप्य व्रतमसमाप्य समावर्त्तते स व्रतस्नातक इत्यादि।
- पारस्करगृह्यसूत्रे॥
नमस्तीथ्यार्य च॥ ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ताः निषङ्गिणः॥
- इति शुक्लयजुर्वेदसंहितायाम् अ॰ 16॥
एवमेव गयायां श्राद्धं कर्त्तव्यमित्यत्रोच्यते। तद्यथा - प्राण एव बलमिति विज्ञायते , बलमोजीयः तत्रैव सत्यं प्राणेऽध्यात्मं प्रतिष्ठितम्। तत्र च परमेश्वरः प्रतिष्ठितस्तद्वाचकत्वात्। गायत्र्यपि ब्रह्मविद्यायामध्यात्मं प्रतिष्ठिता , तां गायत्रीं गयामाह। प्राणानां गयेति संज्ञा , प्राणा वै गया इत्युक्तत्वात्। तत्र गयायां श्राद्धं कर्त्तव्यम् , अर्थात् गयाख्येषु प्राणेषु श्रद्धया समाधिविधानेन परमेश्वरप्राप्तावत्यन्तश्रद्धधाना जीवा अनुतिष्ठेयुरित्येकं गयाश्राद्धविधानम्। गयान् प्राणान् त्रायते सा गायत्री इत्यभिधीयते।
एवमेव गृहस्यापत्यस्य प्रजायाश्च गयेति नामास्ति। अत्रापि सर्वैर्मनुष्यैः श्रद्धातव्यम्। गृहकृत्येषु श्रद्धावश्यं विधेया। मातुः पितुराचार्य्यस्यातिथेश्चान्येषां मान्यानां च श्रद्धया सेवाकरणं गयाश्राद्धमित्युच्यते। तथैव स्वस्यापत्येषु प्रजायां चोत्तमशिक्षाकरणे ह्युपकारे च श्रद्धावश्यं सर्वैः कार्य्येति। अत्र श्रद्धाकरणेन विद्याप्राप्त्या मोक्षाख्यं विष्णुपदं लभ्यत इति निश्चीयते।
अत्रैव भ्रान्त्या विष्णुगयेति च पदद्वयोरर्थविज्ञानाभावान्मगध-देशैकदेशे पाषाणस्योपरि शिल्पिद्वारा मनुष्यपादचिह्नं कारयित्वा तस्यैव कैश्चित्स्वार्थसाधन-तत्परैरुदरम्भरैर्विष्णुपदमिति नाम रक्षितम्। तस्य स्थलस्य गयेति च। तद् व्यर्थमेव। कुतः ? विष्णुपदं मोक्षस्य नामास्ति प्राणगृहप्रजानां च। अतोऽत्रेयं तेषां भ्रान्तिर्जातेति बोध्यम्। अत्र प्रमाणम् -
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूढमस्य पांसुरे स्वाहा॥
- यजु॰ अ॰ 5। मं॰ 15॥
यदिदं किञ्च तद्विक्रमते विष्णुस्त्रिधा निधत्ते पदम्। त्रेधा भावाय पृथिव्यामन्तरिक्षे दिवीति शाकपूणिः। समारोहणे विष्णुपदे गयशिरसीत्यौर्णवाभः समूढमस्य पांसुरेप्यायनेऽन्तरिक्षे पदं न दृश्यतेऽपि वोपमार्थे स्यात् समूढमस्य पांसुल इव पदं न दृश्यत इति। पांसवः पादैः सूयन्त इति वा , पन्नाः शेरत इति वा , पंसनीया भवन्तीति वा॥
- निरु॰ अ॰ 12। खं॰ 18॥
अस्यार्थं यथावदविदित्वा भ्रमेणेयं कथा प्रचारिता। तद्यथा - विष्णुर्व्यापकः परमेश्वरः सर्वजगत्कर्त्ता तस्य पूषेति नाम। अत्राह निरुक्तकारः - पूषेत्यथ यद्विषितो भवति तद्विष्णुर्भवति।
विष्णुर्विशतेर्वा व्यश्नोतेर्वा तस्यैषा भवति - इदं विष्णुरित्यृक्॥
- निरु॰ अ॰ 12। खं॰ 17।
भाष्यम् - वेवेष्टि विशितः प्रविष्टोऽस्ति , चराचरं जगत् व्यश्नुते व्याप्नोति वा स विष्णुर्निराकारत्वात्सर्वगत ईश्वरोऽस्ति। एतदर्थवाचिकेयमृक् -
इदं सकलं जगत्त्रेधा त्रिप्रकारकं विचक्रमे विक्रान्तवान्। ' क्रमु पादविक्षेपे ' पादैः प्रकृतिपरमाण्वादिभिः स्वसामर्थ्यांशैर्जगदिदं पदं प्राप्तव्यं सर्वं वस्तुजातं त्रिषु स्थानेषु (निधत्ते) निदधे स्थापितवान्। अर्थात् यावद् गुरुत्वादियुक्तं प्रकाशरहितं तत्सर्वं जगत् पृथिव्याम्। यल्लघुत्वादियुक्तं वायुपरमाण्वादिकं तत्सर्वमन्तरिक्षे। यच्च प्रकाशमयं सूर्य्यज्ञानेन्द्रियजीवादिकं च तत्सर्वं दिवि द्योतनात्मके प्रकाशमयेऽग्नौ वेति विज्ञेयम्। एवं त्रिविधं जगदीश्वरेण रचितमेषां मध्ये यत्समूढं मोहेन सह वर्त्तमानं ज्ञानवर्जितं जडं तत्पांसुरेऽन्तरिक्षे परमाणुमयं रचितवान्। सर्वे लोका अन्तरिक्षस्थाः सन्तीति बोध्यम् तदिदमस्य परमेश्वरस्य धन्यवादार्हं स्तोतव्यं कर्मास्तीति बोध्यम्।
अयमेवार्थः (यदिदं किञ्च॰) - इत्यनेन यास्काचार्य्येण वर्णितः। यदिदं किञ्चिज्जगद्वर्त्तते तत्सर्वं विष्णुर्व्यापक ईश्वरो विक्रमते रचितवान्। (त्रिधा निधत्ते पदं) त्रेधा भावाय , त्रिप्रकारकस्य जगतो भवनाय , तदुक्तं पूर्वमेव। तस्मिन् विष्णुपदे मोक्षाख्ये समारोहणे समारोढुमर्हे गयशिरसीति प्राणानां प्रजानां च यदुत्तमाङ्गं प्रकृत्यात्मकं शिरो यथा भवति , तथैवेश्वरस्यापि सामर्थ्यं गयशिरः प्रजाप्राणयोरुपरिभागे वर्त्तते। यदीश्वरस्यानन्तं सामर्थ्यं वर्त्तते , तस्मिन् गयशिरसि विष्णुपदे हीश्वरसामर्थ्येऽस्तीति। कुतः ? व्याप्यस्य सर्वस्य जगतो व्यापके परमेश्वरे वर्त्तमानत्वात्। पांसुरेप्यायनेऽन्तरिक्षे पदं पदनीयं परमाण्वाख्यं यज्जगत्तच्चक्षुषा न दृश्यते। ये च पांसवः परमाणु- सङ्घाताः पादैस्तद्द्रव्यांशैः सूयन्त उत्पद्यन्ते। अत एवमुत्पन्नाः सर्वे पदार्था दृश्या भूत्वेश्वरे शेरत इति विज्ञायते। इममर्थमविज्ञाय मिथ्याकथाव्यवहारः पण्डिताभासैः प्रचारित इति बोद्धव्यम्॥
तथैव वेदाद्युक्तरीत्याऽऽर्यैश्चानुष्ठितानि तीर्थान्यन्यान्येव सन्ति। यानि सर्वदुःखेभ्यः पृथक्कृत्वा जीवेभ्यः सर्वसुखानि प्रापयन्ति तानि ' तीर्थानि ' मतानि। यानि च भ्रान्तै रचितपुस्तकेषु जलस्थलमयानि तीर्थसंज्ञान्युक्तानि , तानि वेदार्थाभिप्रेतानि नैव सन्तीति मन्तव्यम्। तद्यथा -
(तीर्थमेव प्राय॰) यत्प्रायणीय-यज्ञस्याङ्गमतिरात्राख्यं व्रतं समाप्य स्नानं क्रियते , तदेव तीर्थमिति वेद्यम्। येन तीर्थेन मनुष्याः प्रस्नाय शुद्धा भवन्ति। तथैव यदुदयनीयाख्यं यज्ञसम्बन्धि-सर्वोपकारकं कर्म समाप्य स्नान्ति , तदेव दुःखसमुद्रात्तारकत्वात्तीर्थमिति मन्तव्यम्॥
एवमेव (अहिंसन्॰) मनुष्यः सर्वाणि भूतान्यहिंसन् , सर्वैर्भूतैर्वैरमकुर्वाणः सन् वर्त्तेत। परन्तु तीर्थेभ्यो वेदादिसत्यशास्त्रविहितेभ्योऽन्यत्राहिंसा धर्मो मन्तव्यः। तद्यथा - यत्र यत्रापराधिनामुपरि हिंसनं विहितं तत्तु कर्तव्यमेव। ये पाखण्डिनो वेदसत्यधर्मानुष्ठानशत्रवश्चोरादयश्च ते तु यथापराधं हिंसनीया एव। अत्र वेदादिसत्यशास्त्राणां तीर्थसंज्ञास्ति। तेषामध्ययनाध्यापनेन तदुक्तधर्म्मकर्म्मविज्ञानानुष्ठानेन च दुःखसमुद्रात्तरन्त्येव। तेषु सम्यक् स्नात्वा मनुष्याः शुद्धा भवन्त्यतः॥
तथैव (समानतीर्थे वासी) इत्यनेन समानो द्वयोर्विद्यार्थिनोरेक आचार्य्यः , समानमेकशास्त्राध्ययनं चात्राचार्य्यशास्त्रयोस्तीर्थसंज्ञास्ति। मातापित्रतिथीनां सम्यक् सेवनेन सुशिक्षया विद्याप्राप्त्या दुःखसमुद्रान्मनुष्यास्तरन्त्येवातस्तानि तीर्थानि , दुःखात्तारकत्वादेव मन्तव्यानि। एतेष्वपि स्नात्वा मनुष्यैः शुद्धिः सम्पादनीयेति॥
(त्रयः स्ना॰) त्रय एव तीर्थेषु कृतस्नाना , शुद्धा भवन्ति। तद्यथा - यः सुनियमेन पूर्णां विद्यां पठति , स ब्रह्मचर्य्याश्रममसमाप्यापि विद्यातीर्थे स्नाति , स शुद्धो भवति। यस्तु खलु द्वितीयः यत्पूर्वोक्तं ब्रह्मचर्यं सुनियमाचरणेन समाप्य , विद्यामसमाप्य समावर्तते स व्रतस्नातको भवति। यश्च सुनियमेन ब्रह्मचर्य्याश्रमं समाप्य वेदशास्त्रादिविद्यां च समावर्त्तते , सोऽप्यस्मिन्नुत्तमतीर्थे सम्यक् स्नात्वा यथावच्छुद्धात्मा , शुद्धान्तःकरणः , सत्यधर्माचारी , परमविद्वान् , सर्वोपकारको भवतीति विज्ञातव्यम्॥
(नमस्तीर्थ्याय च) तेषु प्राणवेदविज्ञानतीर्थेषु पूर्वोक्तेषु भवः सः तीर्थ्यस्तस्मै तीर्थ्याय परमेश्वराय नमोऽस्तु। ये विद्वांसस्तीर्थानि वेदाध्ययन-सत्यभाषणादीनि पूर्वोक्तानि प्रचरन्ति , व्यवहरन्ति ये च पूर्वोक्तब्रह्मचर्य्यसेविनो रुद्रा महाबलाः , ( सृकाहस्ताः) विद्याविज्ञाने हस्तौ येषां ते , ( निषङ्गिणः) निषङ्गः संशयच्छेदक उपदेशाख्यः खड्गो येषां ते , सत्योपदेष्टारः। ' तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामीति ' ब्राह्मणवाक्यात् , उपनिषत्सु भवं प्रतिपाद्यं विज्ञापनीयं परमेश्वरमाहुः।
अत एवोक्तस्तीर्थ्य इति। सर्वेषां तारकाणां तीर्थनामात्मकत्वात् परमतीर्थाख्यो धर्मात्मनां स्वभक्तानां सद्यस्तारकत्वात् , परमेश्वर एवास्ति। एतेनैतानि तीर्थानि व्याख्यातानि॥
प्रश्नः - यैस्तरन्ति नरास्तानि जलस्थलादीनि तीर्थानि कुतो न भवन्ति ?
अत्रोच्यते - नैव जलं स्थलं च तारकं कदाचिद्भवितुमर्हति , तत्र सामर्थ्याभावात् , करणकारक-व्युत्पत्यभावाच्च। जलस्थलादीनि नौकादिभिर्यानैः , पद्भ्यां बाहुभ्यां च जनास्तरन्ति। तानि च कर्मकारकान्वितानि भवन्ति , करणकारकान्वितानि तु नौकादीनि। यदि पद्भ्यां गमनं बाहुबलं न कुर्य्यान्न च नौकादिषु तिष्ठेत्तर्ह्यवश्यं तत्र मनुष्यो मज्जेन्महद्दुःखं च प्राप्नुयात्। तस्माद्वेदानुयायि- नामार्य्याणां मते काशी-प्रयाग-पुष्कर-गङ्गा-यमुनादि-नदीनां सागराणां च नैव तीर्थसंज्ञा सिध्यति। किन्तु वेदविज्ञानरहितैरुदरम्भरैः सम्प्रदायस्थैर्जीविकाधीनैर्वेदमार्ग-विरोधिभिरल्पज्ञैर्जीविकार्थं स्वकीय-रचितग्रन्थेषु तीर्थसंज्ञया प्रसिद्धीकृतानि सन्तीति।
ननु - इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वतीति गङ्गादिनदीनां वेदेषु प्रतिपादनं कृतमस्ति , त्वया कथं न मन्यते ?
अत्रोच्यते - मन्यते तु मया तासां नदीसंज्ञेति। ता गङ्गादयो नद्यः सन्ति। ताभ्यो यथायोग्यं जलशुद्ध्यादि-गुणैर्यावानुपकारो भवति , तावत्तासां मान्यं करोमि। न च पापनाशकत्वं दुःखात्तारकत्वं च। कुतः ? जलस्थलादीनां तत्सामर्थ्याभावात्। इदं सामर्थ्यं तु पूर्वोक्तेष्वेव तीर्थेषु गम्यते , नान्यत्रेति।
अन्यच्च , इडापिङ्गलासुषुम्णाकूर्म्मनाड्यादीनां गङ्गादिसंज्ञास्तीति। तासां योगसमाधौ परमेश्वरस्य ग्रहणात्। तस्य ध्यानं दुःखनाशकं मुक्तिप्रदं च भवत्येव। तासामिडादीनां धारणासिध्यर्थं चित्तस्य स्थिरीकरणार्थं स्वीकरणमस्तीति तत्र ग्रहणात्। एतन्मन्त्रप्रकरणे परमेश्वरस्यानुवर्त्तनात्।
एवमेव -( सितासिते यत्र सग्थे तत्राप्लुतासो दिवमुत्पतन्ति॰) एतेन परिशिष्टवचनेन केचिद् गङ्गायमुनयोर्ग्रहणं कुर्वन्ति। ' सग्थे ' इति पदेन गङ्गायमुनयोः संयोगस्य प्रयागतीर्थमिति संज्ञां कुर्वन्ति।
तन्न सङ्गच्छते - कुतः ? नैव तत्राप्लुत्य स्नानं कृत्वा दिवं द्योतनात्मकं परमेश्वरं सूर्य्यलोकं वोत्पतन्ति , गच्छन्ति , किन्तु पुनः स्वकीयं स्वकीयं गृहमागच्छन्त्यतः। अत्रापि ' सित ' शब्देनेडायाः , ' असित '- शब्देन पिङ्गलायाश्च ग्रहणम्। यत्र तु खल्वेतयोर्नाड्योः सुषुम्णायां समागमो मेलनं भवति , तत्र कृतस्नानाः परमयोगिनो दिवं परमेश्वरं प्रकाशमयं मोक्षाख्यं सत्यविज्ञानं चोत्पतन्ति सम्यग्गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति। अतोऽनयोरेवात्र ग्रहणं , न च तयोः। अत्र प्रमाणम् - सितासितमिति वर्णनाम तत्प्रतिषेधोऽसितम्॥
- निरु॰ अ॰ 9। खं॰ 2॥
सितं शुक्लवर्णमसितं तस्य निषेधः। तयोः प्रकाशान्धकारयोः सूर्य्यादिपृथिव्यादिपदार्थयोर्यत्रेश्वरसामर्थ्ये समागमोऽस्ति , तत्र कृतस्नानास्तद्विज्ञानवन्तो दिवं पूर्वोक्तं गच्छन्त्येव।
भाषार्थ - छठी यह कथा है कि जो गया को तीर्थ बना रखा है-'लोगों ने मगध देश में एक स्थान है, वहां फल्गु नदी के तीर पाषाण पर मनुष्य के पग का चिह्न बना के उस का 'विष्णुपद' नाम रख दिया है। और यह बात प्रसिद्ध कर दी है कि यहां श्राद्ध करने से पितरों की मुक्ति हो जाती है।' जो लोग आंख के अन्धे गांठ के पूरे उन के जाल में जा फंसते हैं, उनकी गयावाले उलटे उस्तरे से खूब हजामत बनाते हैं। इत्यादि प्रमाद से उन के धन का नाश कराते हैं। वह परधनहरण पेटपालक ठगलीला केवल झूंठ ही की गठरी है। जैसा कि सत्यशास्त्रों में लिखी हुई आगे की कथा देखने से सब को प्रकट हो जावेगा-
(प्राणो वै बलं) इन वचनों का अभिप्राय यह है कि अत्यन्त श्रद्धा से गया-संज्ञक प्राण आदि में परमेश्वर की उपासना करने से जीव की मुक्ति हो जाती है। प्राण में बल और सत्य प्रतिष्ठित है, क्योंकि परमेश्वर प्राण का भी प्राण है, और उस का प्रतिपादन करनेवाला गायत्री मन्त्र है कि जिस को 'गया' कहते हैं। किसलिये कि उस का अर्थ जान के श्रद्धासहित परमेश्वर की भक्ति करने से जीव सब दुःखों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। तथा प्राण का भी नाम 'गया' है, उस को प्राणायाम की रीति से रोक के परमेश्वर की भक्ति के प्रताप से पितर अर्थात् ज्ञानी लोग सब दुःखों से रहित होकर मुक्त हो जाते हैं क्योंकि परमेश्वर प्राणों की रक्षा करनेवाला है। इसलिये ईश्वर का नाम गायत्री और गायत्री का नाम 'गया' है।
तथा निघण्टु में घर, सन्तान और प्रजा इन तीनों का नाम भी 'गया' है। मनुष्यों को इन में अत्यन्त श्रद्धा करनी चाहिए। इसी प्रकार माता, पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा तथा सब के उपकार और उन्नति के कामों की सिद्धि करने में जो अत्यन्त श्रद्धा करनी है, उस का नाम 'गयाश्राद्ध' है।
तथा अपने सन्तानों को सुशिक्षा से विद्या देना और उन के पालन में अत्यन्त प्रीति करनी, इस का नाम भी 'गयाश्राद्ध' है।
तथा धर्म से प्रजा का पालन, सुख की उन्नति, विद्या का प्रचार, श्रेष्ठों की रक्षा, दुष्टों को दण्ड देना, और सत्य की उन्नति आदि धर्म के काम करना, ये सब मिलकर अथवा पृथक् पृथक् भी 'गयाश्राद्ध' कहाते हैं।
इस अत्यन्त श्रेष्ठ कथा को छोड़ के विद्याहीन पुरुषों ने जो मिथ्या कथा बना रखी है, उस को कभी न मानना। और जो वहां पाषाण के ऊपर मनुष्य के पग का चिह्न बना कर उस का नाम 'विष्णुपद' रक्खा है, सो सब मूल से ही मिथ्या है। क्योंकि व्यापक परमेश्वर, जो सब जगत् का करनेवाला है, उसी का नाम 'विष्णु' है।
देखो यहां निरुक्तकार ने कहा है कि (पूषेत्यथ॰)-'विषॢ' धातु का अर्थ व्यापक होने, अर्थात् सब चराचर जगत् में प्रविष्ट रहना वा जगत् को अपने में स्थापन कर लेने का है। इसलिये निराकार ईश्वर का नाम 'विष्णु' है।
'क्रमु पादविक्षेपे' यह धातु दूसरी वस्तु को पगों से दबाना वा स्थापन करना, इस अर्थ को बतलाता है। इस का अभिप्राय यह है कि भगवान् अपने पाद अर्थात् प्रकृति परमाणु आदि सामर्थ्य के अंशों से सब जगत् को तीन स्थानों में स्थापन करके धारण कर रहा है। अर्थात् भारसहित और प्रकाशरहित जगत् को पृथिवी में, परमाणु आदि सूक्ष्म द्रव्यों को अन्तरिक्ष में तथा प्रकाशमान सूर्य और ज्ञानेन्द्रिय आदि को प्रकाश में। इस रीति से तीन प्रकार के जगत् को ईश्वर ने रचा है। फिर इन्हीं तीन भेदों में एक मूढ़ अर्थात् ज्ञानरहित जो जड़ जगत् है, वह अन्तरिक्ष अर्थात् पोल के बीच में स्थित है। सो यह केवल परमेश्वर ही की महिमा है कि जिस ने ऐसे ऐसे अद्भुत पदार्थ रच के सब को धारण कर रक्खा है।
(यदिदं किञ्च॰)-इस 'विष्णुपद' के विषय में यास्कमुनि ने भी इस प्रकार व्याख्यान किया है कि यह सब जगत् सर्वव्यापक परमेश्वर ने बनाकर (त्रिधा) इस में तीन प्रकार की रचना दिखलाई है, जिस से मोक्षपद को प्राप्त होते हैं। वह 'समारोहण' कहाता है। सो विष्णुपद गयशिर अर्थात् प्राणों के परे है, उस को मनुष्य लोग प्राण में स्थिर होके, प्राण से प्रिय अन्तर्यामी परमेश्वर को प्राप्त होते हैं, अन्य मार्ग से नहीं। क्योंकि प्राण का भी प्राण और जीवात्मा में व्याप्त जो परमेश्वर है, उस से दूर जीव वा जीव से दूर वह कभी नहीं हो सकता। उस में से सूक्ष्म जो जगत् का भाग है, सो आंख से दीखने योग्य नहीं हो सकता। किन्तु जब कोई पदार्थ परमाणुओं के संयोग से स्थूल हो जाता है, तभी वह नेत्रों से देखने में आता है। यह दोनों प्रकार का जगत् जिस के बीच में ठहर रहा है, और जो उस में परिपूर्ण हो रहा है, ऐसे परमात्मा को 'विष्णुपद' कहते हैं।
इस सत्य अर्थ को न जान के अविद्वान् लोगों ने पाषाण पर जो मनुष्य के पग का चिह्न बनाकर उस का नाम विष्णुपद रख छोड़ा है, सो सब मिथ्या बातें हैं॥
तथा तीर्थ शब्द का अर्थ अन्यथा जान के अज्ञानियों ने जगत् के लूटने और अपने प्रयोजन की सिद्धि के लिए मिथ्याचार कर रक्खा है। सो ठीक नहीं, क्योंकि जो जो सत्य तीर्थ हैं, वे सब नीचे लिखे जाते हैं-
देखो 'तीर्थ' नाम उन का है कि जिन से जीव दुःखरूप समुद्र को तरके सुख को प्राप्त हों। अर्थात् जो जो वेदादिशास्त्रप्रतिपादित तीर्थ हैं, तथा जिन का आर्य्यों ने अनुष्ठान किया है, जो कि जीवों को दुःखों से छुड़ा के उन के सुखों के साधन हैं, उन ही को 'तीर्थ' कहते हैं।
वेदोक्त तीर्थ ये हैं-(तीर्थमेव प्राय॰) अग्निहोत्र से लेके अश्वमेधपर्य्यन्त किसी यज्ञ की समाप्ति करके जो स्नान किया जाता है, उस को 'तीर्थ' कहते हैं। क्योंकि उस कर्म से वायु और वृष्टिजल की शुद्धिद्वारा सब मनुष्यों को सुख प्राप्त होता है। इस कारण उन कर्मों के करनेवाले मनुष्यों को भी सुख और शुद्धि प्राप्त होती है।
तथा (अहिंसन्॰) सब मनुष्यों को इस 'तीर्थ' का सेवन करना उचित है कि अपने मन से वैर भाव को छोड़ के सब के सुख करने में प्रवृत्त होना, और किसी संसारी व्यवहार के वर्तावों में दुःख न देना। परन्तु (अन्यत्र तीर्थेभ्यः) जो जो व्यवहार वेदादि शास्त्रों में निषिद्ध माने हैं, उन के करने में दण्ड का होना अवश्य है। अर्थात् जो जो मनुष्य अपराधी, पाखण्डी अर्थात् वेदशास्त्रोक्त धर्मानुष्ठान के शत्रु अपने अपने सुख में प्रवृत्त, और परपीड़ा में प्रवर्त्तमान हैं, वे सदैव दण्ड पाने के योग्य हैं। इस से वेदादि सत्य शास्त्रों का नाम 'तीर्थ' है, कि जिन के पढ़ने पढ़ाने और उन में कहे हुए मार्गों में चलने से मनुष्य लोग दुःखसागर को तर के सुखों को प्राप्त होते हैं।
(समानतीर्थे॰) इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि वेदादिशास्त्रों को पढ़ानेवाला जो आचार्य है उस का, वेदादिशास्त्रों तथा माता पिता और अतिथि का भी नाम 'तीर्थ' है क्योंकि उन की सेवा करने से जीवात्मा शुद्ध होकर दुःखों से पार हो जाता है। इस से इन का भी तीर्थ नाम है।
(त्रयः स्नातका॰) इन तीर्थों में स्नान करने के योग्य तीन पुरुष होते हैं-एक तो वह कि जो उत्तम नियमों से वेद विद्या को पढ़ के, ब्रह्मचर्य को विना समाप्त करे भी विद्या का पढ़ना पूरा करके ज्ञानरूपी 'तीर्थ' में स्नान करके शुद्ध हो जाता है। दूसरा जो कि पच्चीस, तीस, छत्तीस, चवालीस अथवा अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त नियम के साथ पूर्वोक्त ब्रह्मचर्य को समाप्त करके और विद्या को विना समाप्त किये भी विवाह करता है, वह व्रतस्नातक अर्थात् उस ब्रह्मचर्य 'तीर्थ' में स्नान करके शुद्ध हो जाता है। और तीसरा यह है कि नियम से ब्रह्मचर्य्याश्रम तथा वेदादिशास्त्रविद्या को समाप्त करके, समावर्त्तन अर्थात् उसी के फलरूपी उत्तम 'तीर्थ' में भले प्रकार स्नान करके यथायोग्य पवित्रदेह, शुद्ध अन्तःकरण, श्रेष्ठविद्या, बल और परोपकार को प्राप्त होता है।
(नमस्तीर्थ्याय॰) उक्त तीर्थों से प्राप्त होनेवाला परमेश्वर भी 'तीर्थ' ही है, उस तीर्थ को हमारा नमस्कार है। जो विद्वान् लोग वेद का पढ़ना पढ़ाना और सत्यकथनरूप तीर्थों का प्रचार करते हैं तथा जो चवालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्याश्रम सेवन करते हैं, वे बड़े बलवाले होकर 'रुद्र' कहाते हैं।
(सृकाहस्ता॰) जिन के सृका अर्थात् विज्ञानरूप हस्त तथा निषङ्ग = संशय की काटनेवाली उपदेशरूप तलवार है, वे सत्य के उपदेशक भी 'रुद्र' कहाते हैं तथा उपनिषदों से प्रतिपादन किया हुआ, उपदेश करने योग्य जो परमेश्वर है, उस को 'परमतीर्थ' कहते हैं। क्योंकि उसी की कृपा और प्राप्ति से जीव सब दुःखों से तर जाते हैं॥
प्रश्न-जिन से मनुष्य लोग तर जाते हैं, अर्थात् जल और स्थान विशेष, वे क्या तीर्थ नहीं हो सकते?
उत्तर-नहीं, क्योंकि उन में तारने का सामर्थ्य ही नहीं। और तीर्थ शब्द करणकारकयुक्त लिया जाता है। जो जल वा स्थानविशेष अधिकरण वा कर्मकारक होते हैं, उन में नाव आदि अथवा हाथ और पग से तरते हैं। इस से जल वा स्थल तारनेवाले कभी नहीं हो सकते। किसलिये कि जो जल में हाथ वा पग न चलावें वा नौका आदि पर न बैठें तो कभी नहीं तर सकते। इस युक्ति से भी काशी, प्रयाग, गङ्गा, यमुना, समुद्र आदि तीर्थ सिद्ध नहीं हो सकते। इस कारण से सत्यशास्त्रोक्त जो तीर्थ हैं, उन्हीं को मानना चाहिये, जल और स्थानविशेष को नहीं।
प्रश्न-(इमं मे गङ्गे॰) यह मन्त्र गङ्गा आदि नदियों को तीर्थ विधान करनेवाला है, फिर इन को तीर्थ क्यों नहीं मानते?
उत्तर-हम लोग उन को नदी मानते हैं, और उन के जल में जो जो गुण हैं, उन को भी मानते हैं। परन्तु पाप छुड़ाना और दुःखों से तारना, यह उन का सामर्थ्य नहीं, किन्तु यह सामर्थ्य तो केवल पूर्वोक्त तीर्थों में ही है। तथा इस मन्त्र में 'गङ्गा' आदि नाम इडा, पिङ्गला, सुषुम्णा, कूर्म्म और जाठराग्नि की नाड़ियों के नाम हैं। उन में योगाभ्यास से परमेश्वर की उपासना करने से मनुष्य लोग सब दुःखों से तर जाते हैं। क्योंकि उपासना नाड़ियों ही के द्वारा धारण करनी होती है। इस हेतु से इस मन्त्र में उन की गणना की है। इसलिये उक्त नामों से नाड़ियों का ही ग्रहण करना योग्य है। (सितासिते॰)-सित इडा और असित पिङ्गला, ये दोनों जहां मिली हैं, उस को 'सुषुम्णा' कहते हैं। उस में योगाभ्यास से स्नान करके जीव शुद्ध हो जाते हैं। फिर शुद्धरूप परमेश्वर को प्राप्त होके सदा आनन्द में रहते हैं। इस में निरुक्तकार का भी प्रमाण है कि-'सित और असित शब्द शुक्ल और कृष्ण अर्थ के वाची हैं।' इस अभिप्राय से विरुद्ध मिथ्या अर्थ करके लोगों ने नदी आदियों का तीर्थ नाम से ग्रहण कर लिया है।
तथैव यत्तन्त्रपुराणादिग्रन्थेषु मूर्तिपूजानामस्मरणादिविधानं कृतमस्ति , तदपि मिथ्यैवास्तीति वेद्यम्। कुतः ? वेदादिषु सत्येषु ग्रन्थेषु तस्य विधानाभावात्। तत्र तु प्रत्युत निषेधो वरीवृत्यते। तद्यथा -
न तस्य प्रतिमा अस्ति
यस्य नाम महद्यशः।
हिरण्यगर्भ इत्येष मा मा हिंसी-
दित्येषा यस्मान्न जात इत्येषः॥1॥
-यजुः॰ अ॰ 32। मं॰ 3॥
भाष्यम् - ( यस्य) पूर्णस्य पुरुषस्याजस्य निराकारस्य परमेश्वरस्य महद्यशः यस्याज्ञापालनाख्यं महाकीर्तिकरं धर्म्यं सत्यभाषणादिकर्त्तुमर्हं कर्माचरणं नामस्मरणमस्ति , ( हिरण्यगर्भः) यो हिरण्यानां सूर्य्यादीनां तेजस्विनां गर्भ उत्पत्तिस्थानम् , यस्य सर्वैर्मनुष्यैर्मा मा हिंसीदित्येषा प्रार्थना कार्या , ( यस्मान्न॰) यो यतः कारणान्नैवैषः कस्यचित्सकाशात्कदाचिदुत्पन्नो , नैव कदाचिच्छरीरधारणं करोति , नैव तस्य प्रतिमाऽर्थात् प्रतिनिधिः , प्रतिकृतिः , प्रतिमानं , तोलनसाधनं परिमाणं , मूर्त्यादिकल्पनं किञ्चिदप्यस्ति। परमेश्वरस्यानुपमेयत्वादमूर्त्तत्वादपरिमेयत्वान्निराकारत्वात्सर्वत्राभिव्याप्तत्वाच्च॥
इत्यनेन प्रमाणेन मूर्तिपूजननिषेधः।
स पर्य्यगाच्छुक्रमकायम-
व्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्
व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥2॥
- य॰ अ॰ 40। मं॰ 8॥
भाष्यम् - यः (कविः) सर्वज्ञः , ( मनीषी) सर्वसाक्षी , ( परिभूः) सर्वोपरि विराजमानः , ( स्वयम्भूः) अनादिस्वरूपः परमेश्वरः (शाश्वतीभ्यः) नित्याभ्यः , ( समाभ्यः) प्रजाभ्यो , वेदद्वाराऽन्तर्यामितया च (याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात्) विहितवानस्ति , ( स पर्य्यगात्) सर्वव्यापकोऽस्ति। यत् (शुक्रम्) वीर्य्यवत्तमम् , ( अकायम्) मूर्तिजन्मधारणरहितम् (अव्रणम्) छेदभेदरहितम् , ( अस्नाविरम्) नाडीबन्धनादिविरहम् , ( शुद्धम्) निर्दोषम् , ( अपापविद्धम्) पापात्पृथग्भूतम्। यदीदृशलक्षणं ब्रह्म सर्वैरुपासनीयमिति मन्यध्वम्॥
इत्यनेनापि शरीरजन्ममरणरहित ईश्वरः प्रतिपाद्यते। तस्मादयं नैव केनापि मूर्तिपूजने योजयितुं शक्य इति।
प्रश्नः - वेदेषु प्रतिमाशब्दोऽस्ति न वा ?
उत्तरम् - अस्ति।
प्र॰ - पुनः किमर्थो निषेधः ?
उ॰ - नैव प्रतिमार्थेन मूर्त्तयो गृह्यन्ते। किं तर्हि परिमाणार्था गृह्यन्ते।
अत्र प्रमाणानि -
संवत्सरस्य प्रतिमां यां त्वा रात्र्युपास्महे।
सा न आयुष्मतीं प्रजां रायस्पोषेण संसृज॥3॥
- अथर्व॰ कां॰ 3। व॰ 10। मं॰ 3॥
मुहूर्त्तानां प्रतिमा ता दश च सहस्राण्यष्टौ च शतानि भवन्त्येतावन्तो हि संवत्सरस्य मुहूर्त्ताः॥
- श॰ कां॰ 10। प्र॰ 3। ब्रा॰ 2। कं॰ 20॥
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥
- सामवेदीय तवलकारोपनिषदि, खण्ड 1। मं॰ 4॥
भाष्यम् - इत्यादिमन्त्रपञ्चकं मूर्त्यादिनिषेधकमिति बोध्यम्। विद्वांसः संवत्सरस्य यां प्रतिमां परिमाणमुपासते , वयमपि त्वां तामेवोपास्महे। अर्थाद्याः संवत्सरस्य त्रीणि शतानि षष्टिश्च रात्रयो भवन्ति , यत एताभिरेव संवत्सरः परिमीयते , तस्मादेतासां ' प्रतिमा ' संज्ञेति। यथा सेयं रात्रिर्नोऽस्माकं रायस्पोषेण धनपुष्टिभ्यामायुष्मतीं प्रजां (संसृज) सम्यक् सृजेत् , तथैव सर्वैर्मनुष्यैरनुष्ठेयमिति॥
(मुहूर्त्ता॰) तथा ये संवत्सरस्य दशसहस्राण्यष्टौशतानि घटिकाद्वयात्मका मुहूर्ताः सन्ति , तेऽपि ' प्रतिमा ' शब्दार्था विज्ञेयाः॥
(यद्वाचा॰) यदसंस्कृतवाण्या अविषयं , येन वाणी विदितास्ति , तद् ब्रह्म हे मनुष्य! त्वं विद्धि। यत् इदं प्रत्यक्षं जगदस्ति नैवैतद् ब्रह्मास्ति। किन्तु विद्वांसो यन्निराकारं , सर्वव्यापकमजं , सर्वनियन्तृ , सच्चिदानन्दादिलक्षणं ब्रह्मोपासते , त्वयापि तदेवोपासनीयं नेतरदिति॥
प्र॰ - किञ्च भोः! मनुस्मृतौ -' प्रतिमानां च भेदकः ,' ' दैवतान्यभिगच्छेत्तु ;' ' देवताऽभ्यर्चनं चैव ;' ' देवतानां च कुत्सनम्ः ' ' देवतायतनानि च ;' ' देवतानां छायोल्लङ्घननिषेधः ,' ' प्रदक्षिणानि कुर्वीत देवब्राह्मणसन्निधौ ;' ' देवतागारभेदकान् '- उक्तानामेतेषां वचनानां का गतिरिति ?
उ॰ - अत्र ' प्रतिमा ' शब्देन रक्तिकामाषसेटकादीनि तोलनसाधनानि गृह्यन्ते। तद्यथा - तुलामानं प्रतीमानं सर्वं च स्यात्सुलक्षितम्॥
- मनु॰ अ॰ 8। श्लोकः 403॥
इत्यनया मनूक्तरीत्यैव प्रतिमाप्रतीमानशब्दयोरेकार्थत्वात् तोलनसाधनानि गृह्यन्त इति बोध्यम्। अत एव प्रतिमानामधिकन्यूनकारिणे दण्डो देय इत्युक्तः। विद्वांसो देवास्ते यत्राधीयतेऽध्यापयन्ति निवसन्ति च तानि स्थानानि ' दैवतानि ' इत्युच्यन्ते। देवा एव देवतास्तेषामिमानि स्थानानि ' दैवतानि देवतायतनानि च सन्तीति बोध्यम्। विदुषामेवाभ्यर्चनं सत्करणं कर्तव्यमिति। नैवैतेषां केनचिदपि निन्दा छायोल्लङ्घनं स्थानविनाशश्च कर्त्तव्यः। किन्तु सर्वैरेतेषां सामीप्यगमनं , न्यायप्रापणं , दक्षिणपार्श्वे स्थापनं , स्वेषां वामपार्श्वे स्थितिश्च कार्य्येति।
एवमेव यत्र यत्रान्यत्रापि प्रतिमादेवदेवतायतनादिशब्दाः सन्ति , तत्र तत्रैवमर्था विज्ञेयाः। ग्रन्थभूयस्त्वभिया नात्र ते लेखितुं शक्या इति। एतावतैव मूर्त्ति-पूजन-कण्ठी-तिलक-धारणादि- निषेधा बोध्याः।
भाषार्थ - अब इस के आगे जो नवीन कल्पित तन्त्र और पुराण ग्रन्थ हैं, उन में पत्थर आदि की मूर्तिपूजन तथा नाना प्रकार के नामस्मरण, अर्थात् राम राम, कृष्ण कृष्ण, काष्ठादि माला, तिलक इत्यादि का विधान करके, उन को अत्यन्त प्रीति के साथ जो मुक्ति पाने के साधन मान रक्खे हैं, ये सब बातें भी मिथ्या ही जाननी चाहिये। क्योंकि, वेदादि सत्य ग्रन्थों में इन बातों का कहीं चिह्न भी नहीं पाया जाता है, किन्तु उन का निषेध ही किया है। जैसे-
(न तस्य॰) पूर्ण-जो किसी प्रकार से कम नहीं, (अज) जो जन्म नहीं लेता, और निराकार-जिस की किसी प्रकार की मूर्ति नहीं, इत्यादि लक्षणयुक्त जो परमेश्वर है, जिसकी आज्ञा का ठीक ठीक पालन और उत्तम कीर्त्तियों के हेतु जो सत्यभाषणादि कर्म हैं, उन का करना ही जिस का 'नामस्मरण' कहाता है। (हिरण्यगर्भ॰) जो परमेश्वर तेजवाले सूर्य्यादि लोकों की उत्पत्ति का कारण है। जिस की प्रार्थना इस प्रकार करनी होती है कि-(मा मा हिंसी॰) हे परमात्मन्! हम लोगों की सब प्रकार से रक्षा कीजिये। कोई कहे कि इस निराकार, सर्वव्यापक परमेश्वर की उपासना क्यों करनी चाहिए तो उत्तर यह है कि (यस्मान्न॰) अर्थात् जो परमेश्वर किसी माता पिता के संयोग से कभी न उत्पन्न हुआ, न होता और न होगा, और न वह कभी शरीर धारण करके बालक, जवान और वृद्ध होता है, (न तस्य॰) उस परमेश्वर की 'प्रतिमा' अर्थात् नाप का साधन तथा प्रतिबिम्ब वा सदृश, अर्थात् जिस को तसवीर कहते हैं, सो किसी प्रकार नहीं है। क्योंकि वह मूर्त्तिरहित, अनन्त, सीमारहित और सब में व्यापक है। इससे निराकार ही की उपासना सब मनुष्यों को करनी चाहिए।
कदाचित् कोई शङ्का करे कि-शरीरधारी की उपासना करने में क्या दोष है? तो यह बात समझनी चाहिए कि-जो प्रथम जन्म लेके शरीर धारण करेगा, और फिर वह वृद्ध होकर मर जायेगा, तब किस की पूजा करोगे। इस प्रकार मूर्त्तिपूजन का निषेध वेद से सिद्ध हो गया।
तथा-(स पर्य्यगाच्छु॰) जो परमेश्वर (कविः) सब का जाननेवाला, (मनीषी) सब के मन का साक्षी, (परिभूः) सब के ऊपर विराजमान, और (स्वयम्भूः) अनादिस्वरूप है, जो अपनी अनादिस्वरूप प्रजा को अन्तर्यामिरूप से और वेद के द्वारा सब व्यवहारों का उपदेश किया करता है, (स पर्य्यगात्) सो सब में व्यापक, (शुक्रम्) अत्यन्त पराक्रमवाला, (अकायं) सब प्रकार के शरीर से रहित, (अव्रणं) कटना और सब रोगों से रहित, (अस्नाविरं) नाड़ी आदि के बन्धन से पृथक्, (शुद्धं) सब दोषों से अलग और (अपापविद्धं) सब पापों से न्यारा, इत्यादि लक्षणयुक्त परमात्मा है, वही सब को उपासना के योग्य है, ऐसा ही सब को मानना चाहिए।
क्योंकि इस मन्त्र से भी शरीर धारण करके जन्म मरण होना इत्यादि बातों का निषेध परमेश्वर विषय में पाया ही गया, इस से इस की पत्थर आदि की मूर्ति बना के पूजना किसी प्रमाण वा युक्ति से सिद्ध नहीं हो सकता। (संवत्सरस्य) विद्वान् लोग संवत्सर की, जिस (प्रतिमां॰) क्षण आदि काल के विभाग करनेवाली रात्री की उपासना करते हैं, हम लोग भी उसी का सेवन करें। जो एक वर्ष की 360 तीन सौ साठ रात्रि होती हैं, इतनी रात्रियों से संवत्सर का परिमाण किया है। इसलिये इन रात्रियों की भी 'प्रतिमा' संज्ञा है। (सा न आयु॰) इन रात्रियों में परमात्मा की कृपा से हम लोग सत्कर्मों के अनुष्ठानपूर्वक सम्पूर्ण आयुयुक्त सन्तानों को उत्पन्न करें॥
इसी मन्त्र का भावार्थ कुछ शतपथ ब्राह्मण में भी है कि-(मुहूर्त्ता॰) एक संवत्सर के 10800 मुहूर्त्त होते हैं, ये भी 'प्रतिमा' शब्द के अर्थ में समझने चाहिए। क्योंकि इन से भी वर्ष का परिमाण होता है।
(यद्वाचा॰) जो कि अविद्यायुक्त वाणी से प्रसिद्ध नहीं हो सकता, जो सब की वाणियों को जानता है। हे मनुष्यो! तुम लोग उसी को परमेश्वर जानो, और न कि मूर्तिमान् जगत् के पदार्थों को, जो कि उस के रचे हुए हैं। अर्थात् निराकार, व्यापक, सब पदार्थों का नियम करनेवाला और सच्चिदानन्दादि लक्षणयुक्त ब्रह्म है, उसी की उपासना तुम लोग करो। यह उपनिषत्कार ऋषियों का मत है।
प्र॰- क्यों जी! मनुस्मृति में जो 'प्रतिमानां॰' इत्यादि वचन हैं, उनसे तो यह बात मालूम होती है कि जो कोई प्रतिमा को तोड़े उस को राजा दण्ड देवे। तथा देवताओं के पास जाना, उन की पूजा करना, उन की छाया का उल्लङ्घन नहीं करना, और उन की परिक्रमा करना, इत्यादि प्रमाणों से तो मूर्त्तिपूजा बराबर सिद्ध होती है, फिर आप कैसे नहीं मानते हैं?
उ॰- क्यों भ्रम में पड़े हुए हो, होश में आओ, और आंख खोल कर देखो कि 'प्रतिमा' शब्द से जो तुम लोग पत्थर की मूर्त्ति लेते हो, सो यह केवल तुम्हारी अज्ञानता अर्थात् कम समझ है।
क्योंकि मनुस्मृति में तो प्रतिमा शब्द करके (तुलामानं॰) रत्ति, छटांक, पाउ, सेर और पसेरी आदि तोल के साधनों को ग्रहण किया है। क्योंकि-'तुलामान अर्थात् तराजू और प्रतिमानं वा प्रतिमा अर्थात् बाट इन की परीक्षा राजा लोग छठे छठे मास अर्थात् छः छः महीने में एक बार किया करें, कि जिस से उन में कोई व्यवहारी किसी प्रकार की छल से घट बढ़ न कर सकें। और कदाचित् कोई करे तो उस को दण्ड देवें।
फिर (देवताभ्यर्चनं॰) इत्यादि वचनों से यह बात समझ लेनी चाहिए कि शतपथ ब्राह्मण में विद्वान् मनुष्यों का नाम 'देव' कहा है। अर्थात् जिन स्थानों में विद्वान् लोग पढ़ते पढ़ाते और निवास करते हैं, उन स्थानों को 'दैवत कहते हैं। वहां जाना, बैठना और उन लोगों का सत्कार करना इत्यादि काम सब को अवश्य करने चाहिए। (देवतानां च कुत्सनं) उन विद्वानों की निन्दा, उन का अपमान और उनके स्थानों में किसी प्रकार का बिगाड़ व उपद्रव आदि दोष की बातें कभी न करनी चाहिए।
किन्तु (दैवतान्यभि॰) सब मनुष्यों को उचित है कि उन के समीप जाकर अच्छी अच्छी बातों को सीखा करें। (प्रदक्षिणा॰) उन को मान्य के लिए दाहिनी दिशा में बैठाना। क्योंकि यह नियम उन की प्रतिष्ठा के लिए बांधा गया है।
ऐसे ही अन्यत्र भी जहां कहीं प्रतिमा और देवता अथवा उन के स्थानों का वर्णन हो, इसी प्रकार निर्भ्रमता से वहां समझ लेना चाहिए। यहां सब का संग्रह इसलिए नहीं किया कि ग्रन्थ बहुत बढ़ जाता।
ऐसा ही सत्यशास्त्रों से विरुद्ध कण्ठी और तिलकधारणादि मिथ्या कल्पित विषयों को भी समझकर मन, कर्म और वचन से त्याग कर देना अवश्य उचित है।
एवमेव सूर्य्यादिग्रहपीडाशान्तये बालबुद्धिभिराकृष्णेन रजसेत्यादिमन्त्रा गृह्यन्ते। अयमेषां भ्रम एवास्तीति। कुतस्तत्र तेषामर्थानामग्रहणात्। (तद्यथा) तत्राकृष्णेन रजसेतिमन्त्रस्यार्थ आकर्षणानुकर्षणप्रकरण उक्तः। इमं देवा असपत्नमित्यस्य राजधर्मविषये चेति।
अग्निर्मूर्द्धा दिवः ककुत्पतिः पृथिव्या अयम्।
अपां रेतांसि जिन्वति॥1॥
- य॰ अ॰ 3। मं॰ 12॥
उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि
त्वमिष्टापूर्त्ते संसृजेथामयं च।
अस्मिन्त्सधस्थे अध्युत्तरस्मिन्
विश्वे देवा यजमानश्च सीदत॥2॥
- य॰ अ॰ 15। मं॰ 54॥
भाष्यम् - ( अयमग्निः) परमेश्वरो भौतिको वा (दिवः) प्रकाशवल्लोकस्य पृथिव्याः) प्रकाशरहितस्य च (पतिः) पालयिताऽस्ति (मूर्द्धा) सर्वोपरि विराजमानः (ककुत्) तथा ककुभां दिशां च मध्ये व्यापकतया सर्वपदार्थानां पालयिताऽस्ति। व्यत्ययो बहुलमिति सूत्रेण भकारस्थाने तकारः। (अपां रेतांसि) अयमेव जगदीश्वरो भौतिकश्चापां प्राणानां जलानां च रेतांसि वीर्य्याणि (जिन्वति) पुष्णाति। एवं चाग्निर्विद्युद्रूपेण सूर्य्यरूपेण च पूर्वोक्तस्य रक्षकः पुष्टिकर्त्ता चास्ति॥3॥ (उद्बुध्यस्वाङ्गने) हे अग्ने परमेश्वरास्माकं हृदये त्वमुद्बुध्यस्व प्रकाशितो भव (प्रतिजागृहि) अविद्यान्धकारनिद्रातस्सर्वान् जीवान् पृथक्कृत्य विद्यार्कप्रकाशे जागृतान् कुरु। (त्वममिष्टापूर्त्ते॰) हे भगवन् अयं जीवो मनुष्यदेहधारी धर्मार्थकाममोक्षसामग्र्याः पूर्तिं सृजेत् समुत्पादयेत्। त्वमस्येष्टं सुखं सृजेः। एवं परस्परं द्वयोः सहायपुरुषार्थाभ्यामिष्टापूर्त्ते संसृष्टे भवेताम्। (अस्मिन्त्सधस्थे) अस्मिन् लोके शरीरे च (अध्युत्तरस्मिन्) परलोके द्वितीये जन्मनि च (विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत) सर्वे विद्वांसो यजमानो विद्वत्सेवाकर्त्ता च कृपया सदा सीदन्तु वर्त्तन्ताम्। यतोऽस्माकं मध्ये सदैव सर्वा विद्याः प्रकाशिता भवेयुरिति। व्यत्ययो बहुलमित्यनेन सूत्रेण पुरुषव्यत्ययः।
भाषार्थ - इसी प्रकार से अल्पबुद्धि मनुष्यों ने आकृष्णेन रजसा॰ इत्यादि मन्त्रों का सूर्यादि-ग्रहपीड़ा की शान्ति के लिए ग्रहण किया है। सो उन को केवल भ्रममात्र हुआ है मूल अर्थ से कुछ सम्बन्ध नहीं क्योंकि उन मन्त्रों में ग्रहपीड़ा निवारण करना यह अर्थ ही नहीं है। (आकृष्णेन॰) इस मन्त्र का अर्थ आकर्षणानुकर्षण प्रकरण में तथा (इमं देवा॰) इस का अर्थ राजधर्म विषय में लिख दिया है॥1।2॥ (अग्निः) यह जो अग्निसंज्ञक परमेश्वर वा भौतिक है वह (दिवः) प्रकाश वाले और (पृथिव्याः) प्रकाशरहित लोकों का पालन करने वाला तथा (मूर्द्धा) सब पर विराजमान और (ककुत्पतिः) दिशाओं के मध्य में अपनी व्यापकता से सब पदार्थों का राजा है (व्यत्ययो बहुलम्) इस सूत्र से (ककुभ्) शब्द के दकार को भकारादेश हो गया है (अपांरेतांसि जिन्वति) वही जगदीश्वर प्राण और जलों के वीर्य्यों को पुष्ट करता है। इस प्रकार भूताग्नि भी विद्युत् और सूर्य रूप से पूर्वोक्त पदार्थों का पालन और पुष्टि करने वाला है॥3॥ (उद्बुध्यस्वाग्ने) हे परमेश्वर हमारे हृदय में प्रकाशित हूजिए (प्रति जागृहि) अविद्या की अन्धकार रूप निद्रा से हम सब जीवों को अलग करके विद्यारूप सूर्य के प्रकाश से प्रकाशमान कीजिए कि जिस से (त्वमिष्टापूर्त्ते) हे भगवन्! मनुष्यदेह धारण करनेवाला जो जीव है, जैसे वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सामग्री की पूर्ति कर सके, वैसे आप इष्ट सिद्ध कीजिये। (अस्मिन् सधस्थे) इस लोक और इस शरीर तथा (अध्युत्तरस्मिन्) परलोक और दूसरे जन्म में (विश्वेदेवा यजमानश्च सीदत) आप की कृपा से सब विद्वान् और यजमान, अर्थात् विद्या के उपदेश का ग्रहण और सेवा करनेवाले मनुष्य लोग सुख से वर्त्तमान सदा बने रहें, कि जिस से हम लोग विद्यायुक्त होते रहें। 'व्यत्ययो बहुलम्' इस सूत्र से 'संसृजेथाम्' 'सीदत' इन प्रयोगों में पुरुषव्यत्यय अर्थात् प्रथमपुरुष की जगह मध्यमपुरुष हुआ है॥2॥
बृहस्पते अति यदर्य्यो अर्हाद्
द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु।
यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजात
तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम्॥5॥
- य॰अ॰26। मं॰3॥
अन्नात् परिस्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत् क्षत्रम्पयः सोमं प्रजापतिः।
ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धस
इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु॥6॥
- यजु॰ अ॰ 19। मं॰ 75॥
भाष्यम् - ( बृहस्पते) हे बृहतां वेदानां पते पालक! (ऋतप्रजात) वेदविद्याप्रतिपादित जगदीश्वर! त्वं (जनेषु) यज्ञकारकेषु विद्वत्सु लोकलोकान्तरेषु वा , ( क्रतुमत्) भूयांसः क्रतवो भवन्ति यस्मिंस्तत् , ( द्युमत्) सत्यव्यवहारप्रकाशो विद्यते यस्मिंस्तत् , ( दीदयच्छवसः) दानयोग्यं , शवसो बलस्य प्रापकं , ( यदर्यो अर्हात्) येन विद्यादिधनेन युक्तः सन् , अर्य्यः स्वामी राजा , वणिग्जनो वा धार्मिकेषु जनेषु (विभाति) प्रकाशते , ( चित्रं) यद्धनमद्भुतम् (तदस्मासु द्रविणं धेहि) तदस्मदधीनं द्रविणं धनं कृपया धेहीत्यनेन मन्त्रेणेश्वरः प्रार्थ्यते॥3॥
(क्षत्रं) यत्र यद्राजकर्म क्षत्रियो वा , ( ब्रह्मणा) वेदविद्भिश्च सह , ( पयः) अमृतात्मकं , ( सोमं) सोमाद्योषधिसम्पादितं , ( रसं) बुद्ध्यानन्दशौर्य्यधैर्य्य-बलपराक्रमादि-सद्गुणप्रदं , ( व्यपिबत्) पानं करोति , तत्र स सभाध्यक्षो राजन्यः (ऋतेन) यथार्थवेदविज्ञानेन , ( सत्यं) धर्मं राजव्यवहारं च , ( इन्द्रियं) शुद्धविद्यायुक्तं शान्तं मनः , ( विपानं) विविधराजधर्मरक्षणं , ( शुक्रं) आशुसुखकरं , ( अन्धसः) शुद्धान्नस्येच्छाहेतुं , ( पयः) सर्वपदार्थसारविज्ञानयुक्तं , ( अमृतं) मोक्षसाधकं , (मधु) मधुरं सत्यशीलस्वभावयुक्तं , ( इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्तस्य सर्वव्यापकान्तर्यामिन ईश्वरस्य कृपया , ( इन्द्रियं) विज्ञानयुक्तं , मनः प्राप्य (इदं) सर्वं व्यवहारिक-पारमार्थिकं सुखं प्राप्नोति। (प्रजापतिः) परमेश्वर एवमाज्ञापयति - यः क्षत्रियः प्रजापालनाधिकृतो भवेत् , स एवं प्रजापालनं कुर्यात्। (अन्नात्परिस्रुतः) स चामृतात्मको रसोऽन्नाद्भोज्यात् पदार्थात्परितः सर्वतः स्रुतश्च्युतो युक्तो वा कार्य्यः। यथा प्रजायामत्यन्तं सुखं सिध्येत्तथैव क्षत्रियेण कर्त्तव्यम्॥4॥
भाषार्थ - (बृहस्पते) हे वेदविद्यारक्षक! (ऋतप्रजात) वेदविद्या से प्रसिद्ध जगदीश्वर! आप, (तदस्मासु द्रविणं धेहि) जो सत्यविद्यारूप अनेक प्रकार का (चित्रं) अद्भुत धन है सो हमारे बीच में कृपा करके स्थापन कीजिये। कैसा वह धन है कि (जनेषु) विद्वानों और लोकलोकान्तरों में (क्रतुमत्) जिस से बहुत से यज्ञ किये जायें, (द्युमत्) जिस से सत्य व्यवहार के प्रकाश का विधान हो, (शवसः) बल की रक्षा करनेवाला, और (दीदयत्) धर्म और सब के सुख का प्रकाश करनेवाला, तथा (यदर्य्यो॰) जिस को धर्मयुक्त योग्य व्यवहार के द्वारा राजा और वैश्य प्राप्त होकर (विभाति) धर्मव्यवहार अथवा धार्मिक श्रेष्ठ पुरुषों में प्रकाशमान होता है, उस सम्पूर्णविद्यायुक्त धन को हमारे बीच में निरन्तर धारण कीजिये। ऐसे इस मन्त्र से परमेश्वर की प्रार्थना की जाती है॥3॥
(क्षत्रं) जो राजकर्म अथवा क्षत्रिय है, वह सदा न्याय से (ब्रह्मणा) वेदवित् पुरुषों के साथ मिल कर ही राज्यपालन करे। इसी प्रकार (पयः) जो अमृतरूप, (सोमं) सोमलता आदि ओषधियों का सार, तथा (रसं) जो बुद्धि, आनन्द, शूरता, धीरज, बल और पराक्रम आदि उत्तम गुणों का बढ़ानेवाला है, उन को (व्यपिबत्) जो राजपुरुष अथवा प्रजास्थ लोग वैद्यक शास्त्र की रीति से पीते हैं, वे सभासद् और प्रजास्थ मनुष्य लोग (ऋतेन) वेदविद्या को यथावत् जान के (सत्यं) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, (इन्द्रियं) शुद्धविद्यायुक्त शान्तस्वरूप मन, (विपानं) यथावत् प्रजा का रक्षण, (शुक्रम्) शीघ्र सुख करनेहारा, (अन्धसः) शुद्ध अन्न की इच्छायुक्त, (पयः) सब पदार्थों का सार, विज्ञानसहित (अमृतं) मोक्ष के ज्ञानादि साधन, (मधु) मधुरवाणी और शीलता आदि जो श्रेष्ठ गुण हैं, (इदं) उन सब से परिपूर्ण होकर (इन्द्रस्य) परमैश्वर्य्ययुक्त व्यापक ईश्वर की कृपा से, (इन्द्रियं) विज्ञान को प्राप्त होते हैं। (प्रजापतिः) इसलिये परमेश्वर सब मनुष्यों और राजपुरुषों को आज्ञा देता है कि तुम लोग पूर्वोक्त व्यवहार और विज्ञानविद्या को प्राप्त होके, धर्म से प्रजा का पालन किया करो। (अन्नात्परिस्रुतः) उक्त अमृतस्वरूप रस को उत्तम भोजन के पदार्थों के साथ मिलाकर सेवन किया करो, कि जिस से प्रजा में पूर्ण सुख की सिद्धि हो॥4॥
शन्नो देवीरभीष्टय आपो भवन्तु पीतये ।
शंयोरभि स्रवन्तु नः॥7॥
- य॰ अ॰ 36। मं॰ 12॥
कया नश्चित्र आ भुवदूती सदावृधः सखा।
कया शचिष्ठया वृता॥8॥
- य॰ अ॰ 27। मं॰ 39॥
केतुं कृण्वन्नकेतवे पेशो मर्य्या अपेशसे।
समुषद्भिरजायथाः॥9॥
- य॰ अ॰ 29। मं॰ 37॥
भाष्यम् - ' आपॢ व्याप्तौ ' अस्माद्धातोरप्छब्दः सिध्यति , स नियतस्त्रीलिङ्गे बहुवचनान्तश्च। ' दिवु ' क्रीडाद्यर्थः। (देवीः) देव्यः आपः , सर्वप्रकाशकः , सर्वानन्दप्रदः , सर्वव्यापक ईश्वरः (अभीष्टये) इष्टानन्दप्राप्तये , ( पीतये) पूर्णानन्दभोगेन तृप्तये , ( नः) अस्मभ्यं (शं) कल्याणकारिका भवन्तु , स ईश्वरो नः कल्याणं भावयतु प्रयच्छतु। ता आपो देव्यः स एवेश्वरो , नोऽस्माकमुपरि (शंयोः) सर्वतः सुखस्य वृष्टिं करोतु। प्रमाणम् -
यत्र लोकांश्च कोशांश्चापो ब्रह्म जना विदुः।
असच्च यत्र सच्चान्तः स्कम्भं
तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः॥
- अथर्व॰ कां॰ 10। अ॰ 4। व॰ 22। मं॰ 10॥
अनेन वेदमन्त्रप्रमाणेनाप्छब्देन परमात्मनो ग्रहणं क्रियते। तद्यथा -
(आपो ब्रह्म जना विदुः) विद्वांस आपो ब्रह्मणो नामास्तीति जानन्ति। (यत्र लोकांश्च कोशांश्च) यस्मिन् परमेश्वरे सर्वान् भूगोलान्निधींश्च , ( असच्च यत्र सच्च) यस्मिंश्चानित्यं कार्यं जगदेतस्य कारणं च स्थितं जानन्ति। (स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः) स जगद्धाता सर्वेषां पदार्थानां मध्ये कतमोऽस्ति , विद्वंस्त्वं ब्रूहीति पृच्छ्यते। (अन्तः) स जगदीश्वरः सर्वेषां जीवादि-पदार्थानामाभ्यन्तरे-ऽन्तर्य्यामिरूपेणावस्थितोऽस्तीति भवन्तो जानन्तु॥7॥
(कया) उपासनारीत्या (शचिष्ठया) अतिशयेन सत्कर्मानुष्ठानप्रकारया , ( वृता) शुभगुणेषु वर्त्तमानया , ( कया) सर्वोत्तमगुणालङ्कृतया सभया प्रकाशितः , ( चित्रः) अद्भुतानन्तशक्तिमान् , (सदावृधः) सदानन्देन वर्धमान इन्द्रः परमेश्वरः , ( नः) अस्माकं , ( सखा) मित्रः , ( आ भुवत्) यथाभिमुखो भूत्वा (ऊती) स जगदीश्वरः कृपया सर्वदा सहायकरणेनास्माकं रक्षको भवेत् , तथैवास्माभिः स सत्यप्रेमभक्त्या सेवनीय इति॥8॥
हे (मर्य्या) मनुष्याः! (उषद्भिः) परमेश्वरं कामयमानैस्तदाज्ञायां वर्त्तमानैर्विद्वद्भिर्युष्माभिः सह समागमे कृते सत्येव , ( अकेतवे) अज्ञानविनाशाय , ( केतुं) प्रज्ञानम् , ( अपेशसे) दारिद्र्य-विनाशाय , ( पेशः) चक्रवर्तिराज्यादि-सुखसम्पादकं धनं च (कृण्वन्) कुर्वन् सन् जगदीश्वरः (अजायथाः) प्रसिद्धो भवतीति वेदितव्यम्॥9॥
भाषार्थ - (शन्नो देवी॰) 'आपॢ व्याप्तौ' इस धातु से 'अप्' शब्द सिद्ध होता है। सो वह सदा स्त्रीलिंग और बहुवचनान्त है। तथा जिस 'दिवु' धातु से क्रीड़ा आदि अर्थ हैं, उस से 'देवी' शब्द सिद्ध होता है। (देवीः) अर्थात् जो ईश्वर सब का प्रकाशक और सब को आनन्द देनेवाला, (आपः) सर्वव्यापक है, (अभीष्टये) वह इष्ट आनन्द और (पीतये) पूर्णानन्द की प्राप्ति के लिये, (नः) हम को सुखी होने के लिए, (शं) कल्याणकारी (भवन्तु) हो। वही परमेश्वर (नः) हम पर (शंयोः) सुख की (अभिस्रवन्तु) वृष्टि करे।
इस मन्त्र में 'आप' शब्द से परमात्मा के ग्रहण होने में प्रमाण यह है कि-
(आपो ब्रह्म जना विदुः) अर्थात् विद्वान् लोग ऐसा जानते हैं कि 'आप' परमात्मा का नाम है।
प्रश्न - (यत्र लोकांश्च कोशांश्च) सुनो जी! जिस में पृथिव्यादि सब लोक, सब पदार्थ स्थित, (असच्च यत्र सच्च) तथा जिस में अनित्य कार्य जगत् और सब वस्तुओं के कारण, ये सब स्थित हो रहे हैं, (स्कम्भं तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः) वह सब लोकों को धारण करनेवाला कौन पदार्थ है?
उत्तर -(अन्तः) जो सब पृथिवी आदि लोक और जीवों के बीच में अन्तर्यामीरूप से परिपूर्ण भर रहा है। ऐसा जान कर आप लोग इस परमेश्वर को अपने ही अन्तःकरण में खोजो॥7॥
(कया) जो किस उपासनारीति (शचिष्ठया) और सत्यधर्म के आचरण से सभासद सहित, (वृता) सत्यविद्यादि गुणों में प्रवर्तमान, (कया) सुखरूप वृत्तिसहित सभा से प्रकाशित, (चित्रः) अद्भुतस्वरूप, (सदावृधः) आनन्दस्वरूप और आनन्द बढ़ानेवाला परमेश्वर है, वह (नः) हमारे आत्माओं में (आभुवत्) प्रकाशित हो। (ऊती) तथा किस प्रकार वह जगदीश्वर हमारा सदा सहायक होकर कृपा से नित्य रक्षा करें कि (उषद्भिः समजायथाः) हे अग्ने जगदीश्वर! आप की आज्ञा में जो रमण करनेवाले हैं, उन्हीं पुरुषों से आप जाने जाते हैं। और जिन धार्मिक पुरुषों के अन्तःकरण में आप अच्छे प्रकार प्रकाशित होते रहो॥6॥
हे विज्ञानस्वरूप! अज्ञान को दूर करनेहारे! ब्रह्मन्! आप (केतुं कृण्वन्) हम सब मनुष्यों के आत्माओं में ज्ञान का प्रकाश करते रहिये। तथा (अकेतवे) अज्ञान और (अपेशसे) दरिद्रता के दूर करने के अर्थ विज्ञान धन और चक्रवर्ति राज्य धर्मात्माओं को देते रहिये, कि जिस से (मर्या) जो आपके उपासक लोग हैं, वे कभी दुःख को न प्राप्त हों॥7॥
॥इति ग्रन्थप्रामाण्याप्रामाण्यविषयः॥24॥