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ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (दयानन्दसरस्वतीविरचिता)/१६. नौविमानादिविद्याविषयः

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अथ नौविमानादिविद्या

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-विषयस्संक्षेपतः

तुग्रो ह भुज्युमश्विनोदमेघे

रयिं न कश्चिन्ममृवां अवाहाः।

तमूहथुर्नौभिरात्मन्वतीभिर-

न्तरिक्षप्रुद्भिरपोदकाभिः॥1॥

तिस्रः क्षपस्त्रिरहातिव्रजद्भिर्नासत्या

भुज्युमूहथुः पतङ्गैः।

समुद्रस्य धन्वन्नार्द्रस्य पारे

त्रिभी रथैः शतपद्भिः षडश्वैः॥2॥

-ऋ॰ अ॰ 1। अ॰ 8। व॰ 8। मं॰ 3, 4॥

भाष्यम् - एषामभिप्रायः - तुग्रो हेत्यादिषु मन्त्रेषु शिल्पविद्या विधीयत इति।

(तुग्रो ह) ' तुजि हिंसाबलादान -निकेतनेषु ' अस्माद्धातोरौणादिके ' रक् ' प्रत्यये कृते तुग्र इति पदं जायते। यः कश्चिद् धनाभिलाषी भवेत् (रयिं) स धनं कामयमानो , ( भुज्युं) पालनभोगमयं धनादिपदार्थ -भोगमिच्छत् विजयं च , पदार्थविद्यया स्वाभिलाषं प्राप्नुयात्। स च (अश्विना॰) पृथिवीमयैः काष्ठलोष्ठादिभिः पदार्थैर्नावं रचयित्वाऽग्निजलादि -प्रयोगेण (उदमेघे) समुद्रे गमयेदागमयेच्च , तेन द्रव्यादिसिद्धिं साधयेत्। एवं कुर्वन् (न कश्चिन् ममृवान्) योगक्षेमविरहः सन् न मरणं कदाचित् प्राप्नोति , कुतः ? तस्य कृतपुरुषार्थत्वात्। अतो नावम् (अवाहाः) अर्थात् समुद्रे द्वीपान्तरगमनं प्रति नावो वाहनावहने परमप्रयत्नेन नित्यं कुर्य्यात्। कौ साधयित्वा ? ( अश्विना) द्यौरिति द्योतनात्मकाग्नि -प्रयोगेण पृथिव्या पृथिवीमयेनायस्ताम्र-रजत-धातु-काष्ठादिमयेन चेयं क्रिया साधनीया। अश्विनौ युवां तौ साधितौ द्वौ नावादिकं यानम् (ऊहथुः) देशान्तरगमनं सम्यक्सुखेन प्रापयतः। पुरुषव्यत्ययेनात्र प्रथमपुरुषस्थाने मध्यमपुरुषप्रयोगः। कथम्भूतैर्यानैः -( नौभिः) समुद्रे गमनागमन-हेतुरूपाभिः , ( आत्मन्वतीभिः) स्वयं स्थिताभिः , स्वात्मीय -स्थिताभिर्वा। राजपुरुषैर्व्यापारिभिश्च मनुष्यैर्व्यवहारार्थं समुद्रमार्गेण तासां गमनागमने नित्यं कार्य्ये इति शेषः। तथा ताभ्यामुक्तप्रयत्नाभ्यां भूयांस्यन्यान्यपि विमानादीनि साधनीयानि। एवमेव (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) अन्तरिक्षं प्रति गन्तृभिर्विमानाख्ययानैः साधितैः सर्वैर्मनुष्यैः परमैश्वर्य्यं सम्यक् प्रापणीयम्। पुनः कथम्भूताभिर्नौभिः -( अपोदकाभिः) अपगतं दूरीकृतं जललेपो यासां ता अपोदका नावः , अर्थात् सच्चिक्कनास्ताभिः , उदरे जलागमन -रहिताभिश्च समुद्रे गमनं कुर्य्यात्। तथैव भूयानैर्भूमौ , जलयानैर्जले , अन्तरिक्षयानैश्चान्तरिक्षे चेति अर्थात् त्रिविधं यानं रचयित्वा जलभूम्याकाश - गमनं यथावत् कुर्य्यादिति। अत्र प्रमाणम् -

अथातो द्युस्थाना देवतास्तासामश्विनौ प्रथमागामिनौ भवतोऽश्विनौ यद् व्यश्नुवाते सर्वं रसेनान्यो ज्योतिषाऽन्योऽश्वैरश्विनावित्यौर्णवाभः। तत्कावश्विनौ द्यावापृथिव्यावित्येकेऽहोरात्रावित्येके सूर्य्याचन्द्रमसावित्येके॥

-निरु॰ अ॰ 12। खण्ड 1॥

तथाश्विनौ चापि भर्त्तारौ जर्भरी

भर्त्तारावित्यर्थस्तुर्फरी तु हन्तारौ॥

उदन्यजेवेत्युदकजे इव रत्ने सामुद्रे॥

-निरु॰ अ॰ 3। खण्ड 5॥

एतैः प्रमाणैरेतत्सिध्यति वायु -जलाग्नि-पृथिवी-विकार-कला-कौशल-साधनेन त्रिविधं यानं रचनीयमिति॥1॥

(तिस्रः क्षपस्त्रिरहा॰) कथंभूतैर्नावादिभिः - तिसृभी रात्रिभिस्त्रिभिर्दिनैः , ( आर्द्रस्य) जलेन पूर्णस्य समुद्रस्य तथा (धन्वनः) स्थलस्यान्तरिक्षस्य पारे (अतिव्रजद्भिः) अत्यन्तवेगवद्भिः पुनः कथम्भूतैः (पतङ्गैः) प्रतिपातं वेगेन गन्तृभिः , तथा (त्रिभी रथैः) त्रिभी रमणीयसाधनैः , ( शतपद्भिः) शतेनासंख्यातेन वेगेन पद्भ्यां यथा गच्छेत्तादृशैरत्यन्तवेगवद्भिः (षडश्वैः) षडश्वा आशुगमन - हेतवो यन्त्राण्यग्नि - स्थानानि वा येषु तानि षडश्वानि तैः षडश्वैर्यानैस्त्रिषु मार्गेषु सुखेन गन्तव्यमिति तेषां यानानां सिद्धिः केन द्रव्येण भवतीत्यत्राह -( नासत्या) पूर्वोक्ताभ्यामश्विभ्याम्। अत एवोक्तं ' नासत्यौ द्यावापृथिव्यौ ' तानि यानानि (ऊहथुः) इत्यत्र पुरुषव्यत्ययेन प्रथमस्य स्थाने मध्यमः , प्रत्यक्षविषयवाचकत्वात्। अत्र प्रमाणम् -

व्यत्ययो बहुलम्॥

-अष्टाध्याय्याम् अ॰ 3। पा॰ 1।

अत्राह - महाभाष्यकारः -

सुप्तिङुपग्रहलिङ्गनराणां कालहलच्स्वरकर्तृयङां च। व्यत्ययमिच्छति शास्त्रकृदेषां सोऽपि च सिध्यति बाहुलकेन॥

इति महाभाष्यप्रामाण्यात्। तावेव नासत्यावश्विनौ सम्यग् यानानि वहतः , इत्यत्र सामान्यकाले लिङ् विधानात् , ऊहथुरित्युक्तम्। तावेव तेषां यानानां मुख्ये साधने स्तः। एवं कुर्वन्तो भुज्युमुत्तमुखभोगं प्राप्नुयुर्नान्यथेति॥2॥

भाषार्थ - अब मुक्ति के आगे समुद्र, भूमि और अन्तरिक्ष में शीघ्र चलने के लिये यानविद्या लिखते हैं। जैसी कि वेदों में लिखी है-

(तुग्रो ह॰) 'तुजि' धातु से 'रक्' प्रत्यय करने से तुग्र शब्द सिद्ध होता है। उसका अर्थ हिंसक बलवान्, ग्रहण करनेवाला और स्थानवाला है। क्योंकि वैदिक शब्द सामान्य अर्थ में वर्त्तमान हैं। जो शत्रु को हनन करके अपने विजय बल और धनादि पदार्थ और जिस जिस स्थान में सवारियों से अत्यन्त सुख का ग्रहण किया चाहे, उन सबों का नाम 'तुग्र' है। (रयिं) जो मनुष्य उत्तम विद्या, सुवर्ण आदि पदार्थों की कामनावाला है, उस का जिन से पालन और भोग होता है, उन धनादि पदार्थों की प्राप्ति भोग और विजय की इच्छा को आगे लिखे हुए प्रकारों से पूर्ण करे। (अश्विना) जो कोई सोना, चांदी, तांबा, पीतल, लोहा और लकड़ी आदि पदार्थों से अनेक प्रकार की कलायुक्त नौकाओं को रच के, उनमें अग्नि, वायु और जल आदि का यथावत् प्रयोग कर और पदार्थों को भर के, व्यापार के लिये (उदमेघे) समुद्र और नदी आदि में (अवाहाः) आवे जावे तो उस के द्रव्यादि पदार्थों की उन्नति होती है। जो कोई इस प्रकार से पुरुषार्थ करता है, वह (न कश्चिन्ममृवान्) पदार्थों की प्राप्ति और उन की रक्षासहित होकर दुःख से मरण को प्राप्त कभी नहीं होता, क्योंकि वह पुरुषार्थी होके आलसी नहीं रहता। वे नौका आदि किन को सिद्ध करने से होते हैं-अर्थात् जो अग्नि, वायु और पृथिव्यादि पदार्थों में शीघ्रगमनादि गुण और अश्वि नाम से सिद्ध हैं, वे ही यानों को धारण और प्रेरणा आदि अपने गुणों से वेगवान् कर देते हैं। वेदोक्त युक्ति से सिद्ध किये हुए नाव, विमान और रथ अर्थात् भूमि में चलने वाली सवारियों का (ऊहथुः) जाना आना जिन पदार्थों से देश देशान्तर में सुख से होता है। यहां पुरुषव्यत्यय से 'ऊहतुः' इस के स्थान में 'ऊहथुः' ऐसा प्रयोग किया गया है। उन से किस किस प्रकार की सवारी सिद्ध होती हैं, सो लिखते हैं-(नौभिः) अर्थात् समुद्र में सुख से जाने आने के लिये अत्यन्त उत्तम नौका होती हैं, (आत्मन्वतीभिः) जिन से उन के मालिक अथवा नौकर चला के जाते आते रहें। व्यवहारी और राजपुरुष लोग इन सवारियों से समुद्र में जावें आवें। तथा (अन्तरिक्षप्रुद्भिः) अर्थात् जिन से आकाश में जाने आने की क्रिया सिद्ध होती है, जिन का नाम विमान शब्द करके प्रसिद्ध है तथा (अपोदकाभिः) वे सवारी ऐसी शुद्ध और चिक्कन होनी चाहिए, जो जल से न गलें और न जल्दी टूटें फूटें। इन तीन प्रकार की सवारियों की जो रीति पहले कह आये और जो आगे कहेंगे, उसी के अनुसार बराबर उन को सिद्ध करें। इस अर्थ में निरुक्त का प्रमाण संस्कृत में लिखा है, सो देख लेना। उसका अर्थ यह है-

(अथातो द्युस्थाना दे॰) वायु और अग्नि आदि का नाम अश्वि है, क्योंकि सब पदार्थों में धनञ्जयरूप करके वायु और विद्युत् रूप से अग्नि ये दोनों व्याप्त हो रहे हैं। तथा जल और अग्नि का नाम भी अश्वि है, क्योंकि अग्नि ज्योति से युक्त और जल रस से युक्त होके व्याप्त हो रहा

है। 'अश्वैः' अर्थात् वे वेगादि गुणों से भी युक्त हैं। जिन पुरुषों को विमान आदि सवारियों की सिद्धि की इच्छा हो, वे वायु अग्नि और जल से उन को सिद्ध करें, यह और्णवाभ आचार्य का मत है। तथा कई एक ऋषियों का ऐसा मत है कि अग्नि की ज्वाला और पृथिवी का नाम अश्वि है। पृथिवी के विकार काष्ठ और लोहा आदि के कलायन्त्र चलाने से भी अनेक प्रकार के वेगादि गुण सवारियों वा अन्य कारीगरियों में किये जाते हैं। तथा कई एक विद्वानों का ऐसा मत है कि 'अहोरात्रौ' अर्थात् दिन रात्रि का नाम अश्वि है, क्योंकि इन से भी सब पदार्थों के संयोग और वियोग होने के कारण से वेग उत्पन्न होते हैं, अर्थात् जैसे शरीर और ओषधि आदि में वृद्धि और क्षय होते हैं, इसी प्रकार कई एक शिल्प विद्या जाननेवाले विद्वानों का ऐसा भी मत है कि 'सूर्य्याचन्द्रमसौ' सूर्य और चन्द्रमा को अश्वि कहते हैं क्योंकि सूर्य और चन्द्रमा के आकर्षणादि गुणों से जगत् के पृथिवी आदि पदार्थों में संयोग वियोग, वृद्धि क्षय आदि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं। तथा 'जर्भरी' और 'तुर्फरीतू' ये दोनों पूर्वोक्त अश्वि के नाम हैं। जर्भरी अर्थात् विमान आदि सवारियों के धारण करनेवाले और तुर्फरीतू अर्थात् कलायन्त्रों के हनन से वायु, अग्नि, जल और पृथिवी के युक्तिपर्वूक प्रयोग से विमान आदि सवारियों का धारण पोषण और वेग होते हैं। जैसे घोड़े और बैल चाबुक मारने से शीघ्र चलते हैं, वैसे ही कलाकौशल से धारण और वायु आदि को कलाओं करके प्रेरने से सब प्रकार की शिल्पविद्या सिद्ध होती है। 'उदन्यजे' अर्थात् वायु, अग्नि और जल के प्रयोग से समुद्र में सुख करके गमन हो सकता है॥1॥

(तिस्रः क्षपस्त्रि॰)। (नासत्या॰) जो पूर्वोक्त अश्वि कह आये हैं, वे (भुज्युमूहथुः) अनेक प्रकार के भोगों को प्राप्त करते हैं। क्योंकि जिन के वेग से तीन दिन रात में (समुद्र॰) सागर (धन्वन्॰) आकाश और भूमि के पार नौका विमान और रथ करके (व्रजखिः॰) सुखपूर्वक पार जाने में समर्थ होते हैं (त्रिभी रथैः) अर्थात् पूर्वोक्त तीन प्रकार के वाहनों से गमनागमन करना चाहिए। तथा (षडश्वैः) छः अश्व अर्थात् उन में अग्नि और जल के छः घर बनाने चाहिए। जैसे उन यानों से अनेक प्रकार के गमनागमन हो सकें तथा (पतङ्गैः) जिन से तीन प्रकार के मार्गों में यथावत् गमन हो सकता है॥2॥

अनारम्भणे तदवीरयेथा-

मनास्थाने अग्रभणे समुद्रे।

यदश्विना ऊहथुर्भुज्युमस्तं

शतारित्रां नावमातस्थिवांसम्॥3॥

यमश्विना ददथुः श्वेतमश्व-

मघाश्वाय शश्वदित्स्वस्ति।

तद्वां दात्रं महि कीर्त्तेन्यं भूत्

पैद्वो वाजी सदमिद्धव्यो अर्यः॥4॥

-ऋ॰ अष्ट॰ 1। अ॰ 8। व॰ 8, 9। मं॰ 5, (6)1॥

भाष्यम् - हे मनुष्याः! पूर्वोक्ताभ्यां प्रयत्नाभ्यां कृतसिद्धयानैः , ( अनारम्भणे) आलम्बरहिते (अनास्थाने) स्थातुमशक्ये , ( अग्रभणे) हस्तालम्बनाविद्यमाने , ( समुद्रे) समुद्द्रवन्त्यापो यस्मिन् तस्मिन् जलेन , पूर्णे अन्तरिक्षे वा , कार्यसिद्ध्यर्थं युष्माभिर्गन्तव्यमिति। ' अश्विना ऊहथुर्भुज्यु '- मिति पूर्ववद् विज्ञेयम्। तद्यानं सम्यक् प्रयुक्ताभ्यां ताभ्यामश्विभ्यां (अस्तं) क्षिप्तं चालितं सम्यक् कार्य्यं साधयतीति। कथम्भूतां नावं समुद्रे चालयेत् ? ( शतारित्राम्) शतानि अरित्राणि लोहमयानि समुद्रस्थलान्तरिक्षमध्ये स्तम्भनार्थानि गाधग्रहणार्थानि च भवन्ति यस्यां तां शतारित्राम्। एवमेव शतारित्रां भूम्याकाश - विमानं प्रति योजनीयम्। तथा तदेतत् त्रिविधं यानं शतकलं शतबन्धनं शतस्तम्भनसाधनं च रचनीयमिति। तद्यानैः कथम्भूतं (भुज्युं) भोगं प्राप्नुवन्ति ? ( तस्थिवांसं) स्थितमन्तमित्यर्थः॥3॥

यद्यस्मादेवं भोगो जायते , तस्मादेवं सर्वमनुष्यैः प्रयत्नः कर्त्तव्यः (यमश्विना) यं सम्यक् प्रयुक्ताभ्यामग्नि - जलाभ्यामश्विभ्यां शुक्लवर्णं वाष्पाख्यमश्वम् (अघाश्वाय) शीघ्रगमनाय , शिल्पविद्याविदो मनुष्याः प्राप्नुवन्ति , तमेवाश्वं गृहीत्वा पूर्वोक्तानि यानानि साधयन्ति। (शश्वत्॰) तानि शश्वन्निरन्तरमेव (स्वस्ति) सुखकारकाणि भवन्ति। तद्यानसिद्धिं (अश्विना ददथुः) दत्तस्ताभ्यामेवायं गुणो मनुष्यैर्ग्राह्य इति। (वाम्) अत्रापि पुरुषव्यत्ययः। तयोरश्विनोर्मध्ये यत्सामर्थ्यं वर्त्तते , तत् कीदृशं ? ( दात्रं) दानयोग्यं , सुखकारकत्वात् पोषकं च , ( महि) महागुणयुक्तम् , ( कीर्त्तेन्यम्) कीर्त्तनीयमत्यन्त - प्रशंसनीयम्। कृत्यार्थे तवैकेनकेन्यत्वन इति ' केन्य ' प्रत्ययः। अन्येभ्यस्तच्छ्रेष्ठोपकारकं (भूत्) अभूत् भवतीति। अत्र लडर्थे लुङ् विहित इति वेद्यम्। स चाग्न्याख्यो (वाजी) वेगवान् , ( पैद्वः॰) यो यानं मार्गे शीघ्रवेगेन गमयितास्ति। पैद्वपतङ्गावश्वनाम्नी॥ निघं॰ अ॰ 1। खं॰ 14॥ (सदमित्) यः सदं वेगं इत् एति प्राप्नोतीतीदृशोऽश्वोऽग्निरस्माभिः (हव्यः) ग्राह्योऽस्ति। (अर्यः) तमश्वमर्यो वैश्यो वणिग्जनोऽवश्यं गृह्णीयात्। अर्य्यः स्वामिवैश्ययोः। इति पाणिनिसूत्रात् अर्य्यो वैश्यस्वामिवाचीति॥4॥

त्रयः पवयो मधुवाहने रथे

सोमस्य वेनामनु विश्व इद्विदुः।

त्रयः स्कम्भासः स्कभितास आरभे

त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा॥5॥

-ऋ॰ अष्ट॰ 1। अ॰ 3। वर्ग 4। मं॰ 2॥

भाष्यम् - ( मधुवाहने॰) मधुरगतिमतिरथे (त्रयः पवयः) वज्रतुल्याश्चक्रसमूहाः कलायन्त्र-युक्ता दृढाः शीघ्रं गमनार्थं त्रयः कार्य्याः। तथैव शिल्पिभिः (त्रयः स्कम्भासः) स्तम्भनार्थाः स्तम्भास्त्रयः कार्य्याः (स्कभितासः) किमर्थाः , सर्वकलानां स्थापनार्थाः (विश्वे) सर्वे शिल्पिनो विद्वांसः (सोमस्य) सोमगुणविशिष्टस्य सुखस्य (वेनां) कमनीयां कामनासिद्धिं (विदुः) जानन्त्येव) अर्थात् (अश्विना) अश्विभ्यामेवैतद्यानमारब्धुमिच्छेयुः। कुतः ? तावेवाश्विनौ तद्यानसिद्धिं (याथः) प्रापयत इति। तत्कीदृशमित्यत्राह (त्रिर्नक्तं , त्रिर्दिवा) तिसृभी रात्रिभिस्त्रिभिर्दिनैश्चातिदूरमपि मार्गं गमयतीति बोध्यम्॥5॥

भाषार्थ - (अनारम्भणे॰) हे मनुष्य लोगो! तुम पूर्वोक्त प्रकार से अनारम्भण अर्थात् आलम्बरहित समुद्र में अपने कार्यों की सिद्धि करने योग्य यानों को रच लो। (तद्वीरयेथाम्) वे यान पूर्वोक्त अश्विनी से ही जाने आने के लिए सिद्ध होते हैं। (अनास्थाने) अर्थात् जिस आकाश और समुद्र में विना आलम्ब से कोई भी नहीं ठहर सकता, (अग्रभणे) जिस में हाथ से पकड़ने का आलम्ब कोई भी नहीं मिल सकता, (समुद्रे) ऐसा जो पृथिवी पर जल से पूर्ण समुद्र प्रत्यक्ष है तथा अन्तरिक्ष का भी नाम समुद्र है, क्योंकि वह भी वर्षा के जल से पूर्ण रहता है, उन में किसी प्रकार का आलम्बन सिवाय नौका और विमान से नहीं मिल सकता, इस से इन यानों को पुरुषार्थ से रच लेवें। (यदश्विनौ ऊहथुर्भु॰) जो यान वायु आदि अश्वि से रचा जाता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त कर देता है। क्योंकि (अस्तं) जो उन से चलाया जाता है, वह पूर्वोक्त समुद्र, भूमि और अन्तरिक्ष में सब कार्यों को सिद्ध करता है। (शतारित्राम्) उन नौकादि सवारियों में सैकड़ह अरित्र अर्थात् जल की थाह लेने, उन के थांभने और वायु आदि विघ्नों से रक्षा के लिये लोह आदि के लंगर भी रखना चाहिए, जिन से जहां चाहे वहां उन यानों को थांभे। इसी प्रकार उन में सैकड़ह कलबन्धन और थांभने के साधन रखने चाहिये। इस प्रकार के यानों से (तस्थिवांसम्) स्थिर भोग को मनुष्य लोग प्राप्त होते हैं॥3॥

(यमश्विना॰) जो अश्वि अर्थात् अग्नि और जल हैं, उनके संयोग से (श्वेतमश्वं) भाफरूप अश्व अत्यन्त वेग देनेवाला होता है। जिस से कारीगर लोग सवारियों को (अघाश्वाय) शीघ्र गमन के लिए वेगयुक्त कर देते हैं, जिस से वेग की हानि नहीं हो सकती, उसको जितना बढ़ाया चाहे उतना बढ़ सकता है। (शश्वदित्स्वस्ति) जिन यानों में बैठ के समुद्र और अन्तरिक्ष में निरन्तर स्वस्ति अर्थात् नित्य सुख बढ़ता है। (ददथुः) जो कि वायु अग्नि और जल आदि से वेग गुण उत्पन्न होता है, उस को मनुष्य लोग सुविचार से ग्रहण करें। (वाम्) यह सामर्थ्य पूर्वोक्त अश्विसंयुक्त पदार्थों ही में है। (तत्) सो सामर्थ्य कैसा है कि (दात्रम्) जो दान करने के योग्य, (महि) अर्थात् बड़े बड़े शुभ गुणों से युक्त, (कीर्त्तेन्यम्) अत्यन्त प्रशंसा करने के योग्य और सब मनुष्यों का उपकार करनेवाला (भूत्) है। क्योंकि वही (पैद्वः) अश्व मार्ग में शीघ्र चलानेवाला है। (सदमित्) अर्थात् जो अत्यन्त वेग से युक्त है। (हव्यः) वह ग्रहण और दान देने के योग्य है। (अर्य्यः) वैश्य लोग तथा शिल्पविद्या का स्वामी इस को अवश्य ग्रहण करे, क्योंकि इन यानों के विना द्वीपान्तर में जाना आना कठिन है॥4॥

यह यान किस प्रकार का बनाना चाहिए कि (त्रयः पवयो मधु॰) जिस में तीन पहिये हों, जिन से वह जल और पृथिवी के ऊपर चलाया जाय, और मधुर वेगवाला हो, उस के सब अङ्ग वज्र के समान दृढ़ हों, जिन में कलायन्त्र भी दृढ़ हों, जिन से शीघ्र गमन होवे। (त्रयः स्कम्भासः) उन में तीन तीन थम्भे ऐसे बनाने चाहिए कि जिन के आधार सब कलायन्त्र लगे रहें। तथा (स्कभितासः) वे थम्भे भी दूसरे काष्ठ वा लोहे के साथ लगे रहें, (आरा) जो कि नाभि के समान मध्यकाष्ठ होता है, उसी में सब कलायन्त्र जुड़े रहते हैं। (विश्वे) सब शिल्पिविद्वान् लोग ऐसे यानों को सिद्ध करना अवश्य जानें। (सोमस्य वेनाम्) जिन से सुन्दर सुख की कामना सिद्ध होती है, (रथे) जिस रथ में सब क्रीड़ासुखों की प्राप्ति होती है, (आरभे) उस के आरम्भ में अश्वि अर्थात् अग्नि और जल ही मुख्य हैं। (त्रिर्नक्तं याथस्त्रिर्वश्विना दिवा) जिन यानों से तीन दिन और तीन रात में द्वीप द्वीपान्तर में जा सकते हैं॥5॥

त्रिर्नो अश्विना यजता दिवेदिवे

परि त्रिधातु पृथिवीमशायतम्।

तिस्रो नासत्या रथ्या परावत

आत्मेव वातः स्वसराणि गच्छतम्॥6॥

-ऋ॰ अष्ट॰ 1। अ॰ 3। व॰ 5। मं॰ 7॥

अरित्रं वां दिवस्पृथु तीर्थे सिन्धूनां रथः।

धिया युयुज्र इन्दवः॥7॥

-ऋ॰ अष्ट॰ 1। अ॰ 3। व॰ 34। मं॰ 8॥

वि ये भ्राजन्ते सुमखास ऋष्टिभिः

प्रच्यावयन्तो अच्युता चिदोजसा।

मनोजुवो यन्मरुतो रथेष्वा

वृषव्रातासः पृषतीरयुग्ध्वम्॥8॥

-ऋ॰ अ॰ 1। अ॰ 6। व॰ 9। मं॰ 4॥

भाष्यम् - यत्पूर्वोक्तं भूमिसमुद्रान्तरिक्षेषु गमनार्थं यानमुक्तं , तत् पुनः कीदृशं कर्त्तव्यमित्यत्राह - (परि त्रिधातु) अयस्ताम्र - रजतादि - धातुत्रयेण रचनीयम्। इदं कीदृग्वेगं भवतीत्यत्राह -( आत्मेव वातः॰) आगमनागमने यथात्मा मनश्च शीघ्रं गच्छत्यागच्छति , तथैव कलाप्रेरितौ वाय्वग्नी अश्विनौ तद्यानं त्वरितं गमयत आगमयतश्चेति विज्ञेयमिति संक्षेपतः॥6॥

तच्च कीदृशं यानमित्यत्राह -( अरित्रं) स्तम्भनार्थं साधनयुक्तं , ( पृथु) अतिविस्तीर्णम्। ईदृशः स रथः अग्न्यश्वयुक्तः (सिन्धूनाम्) महासमुद्राणां (तीर्थे) तरणे कर्त्तव्येऽलं वेगवान् भवतीति बोध्यम्। (धिया यु॰) तत्र त्रिविधे रथे (इन्दवः) जलानि वाष्पवेगार्थं (युयुज्रे) यथावद्युक्तानि कार्य्याणि , येनातीव शीघ्रगामी स रथः स्यादिति। इन्दवः इति जलनामसु॥ निघण्टौ खण्डे 12 पठितम्॥ उन्देरिच्चादेः॥ उणादौ प्रथमे पादे सूत्रम्॥7॥

हे मनुष्याः! (मनोजुवः) मनोवद्गतयो वायवो यन्त्रकला - चालनैस्तेषु रथेषु पूर्वोक्तेषु त्रिविधयानेषु यूयम् (अयुग्ध्वम्) तान् यथावद्योजयत। कथम्भूता अग्निवाय्वादयः ? ( आ वृषव्रातासः) जलसेचनयुक्ताः। येषां संयोगे वाष्पजन्य - वेगोत्पत्त्या वेगवन्ति तानि यानानि सिद्ध्यन्तीत्युपदिश्यते॥8॥

भाषार्थ - फिर वह सवारी कैसी बनानी चाहिए कि (त्रिर्नो अश्विना य॰) (पृथिवीमशायतम्) जिन सवारियों से हमारा भूमि, जल और आकाश में प्रतिदिन आनन्द से जाना आना बनता है, (परि त्रिधातु त्रि॰) वे लोहा, तांबा, चांदी आदि तीन धातुओं से बनती हैं। और जैसे (रथ्या परावतः) नगर वा ग्राम की गलियों में झटपट जाना आना बनता है, वैसे दूर देश में भी उन सवारियों से शीघ्र शीघ्र जाना आना होता है। (नासत्या॰) इसी प्रकार विद्या के निमित्त पूर्वोक्त जो अश्वि हैं, उन से बड़े बड़े कठिन मार्ग में भी सहज से जाना आना करें। जैसे (आत्मेव वातः स्व॰) मन के वेग के समान शीघ्र गमन के लिए सवारियों से प्रतिदिन सुख से सब भूगोल के बीच जावें आवें॥6॥

(अरित्रं वाम्) जो पूर्वोक्त अरित्रयुक्त यान बनते हैं, वे (तीर्थे सिन्धूनां रथः) जो रथ बड़े बड़े समुद्रों के मध्य से भी पार पहुँचाने में श्रेष्ठ होते हैं, (दिवस्पृथु) जो विस्तृत और आकाश तथा समुद्र में जाने आने के लिए अत्यन्त उत्तम होते हैं, जो मनुष्य उन रथों में यन्त्रसिद्ध करते हैं, वे सुखों को प्राप्त होते हैं। (धिया युयुज्र) उन तीन प्रकार के यानों में (इन्दवः) वाष्पवेग के लिए एक जलाशय बना के उस में जलसेचन करना चाहिए, जिस से वह अत्यन्त वेग से चलनेवाला यान सिद्ध हो॥7॥

(वि ये भ्राजन्ते॰) हे मनुष्य लोगो! (मनोजुवः) अर्थात् जैसा मन का वेग है, वैसे वेगवाले यान सिद्ध करो। (यन्मरुतो रथेषु) उन रथों में (मरुत्) अर्थात् वायु और अग्नि को मनोवेग के समान चलाओ और (आ वृषव्रातासः) उनके योग में जलों का भी स्थापन करो। (पृषतीरयुग्ध्वम्) जैसे जल के वाष्प घूमने की कलाओं को वेगवाली कर देते हैं, वैसे ही तुम भी उन को सब प्रकार से युक्त करो। जो इस प्रकार से प्रयत्न करके सवारी सिद्ध करते हैं, वे (विभ्राजन्ते) अर्थात् विविध प्रकार के भोगों से प्रकाशमान होते हैं और (सुमखास ऋष्टिभिः) जो इस प्रकार से इन शिल्पविद्यारूप श्रेष्ठ यज्ञ करनेवाले सब भोगों से युक्त होते हैं, (अच्युता चिदोजसा॰) वे कभी दुःखी होके नष्ट नहीं होते और सदा पराक्रम से बढ़ते जाते हैं। क्योंकि कलाकौशलता से युक्त वायु और अग्नि आदि पदार्थों की (ऋष्टिभिः) अर्थात् कलाओं से (प्रच्या॰) पूर्व स्थान को छोड़ के मनोवेग यानों से जाते आते हैं, उन ही से मनुष्यों को सुख भी बढ़ता है। इसलिये इन उत्तम यानों को अवश्य सिद्ध करें॥8॥

आ नो नावा मतीनां यातं पाराय गन्तवे।

युञ्जाथामश्विना रथम्॥9॥

-ऋ॰ अष्ट॰ 1। अ॰ 3। व॰ 34। मं॰ 7॥

कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा

अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति।

त आ ववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्

घृतेन पृथिवी व्युद्यते॥10॥

द्वादश प्रधयश्चक्रमेवं त्रीणि

नभ्यानि क उ तच्चिकेत।

तस्मिन्त्साकं त्रिशता न शङ्कवोऽर्पिताः

षष्टिर्न चलाचलासः॥11॥

-ऋ॰ अष्ट॰ 2। अ॰ 3। व॰ 23। मं॰ 47। 48॥

भाष्यम् - समुद्रे भूमौ अन्तरिक्षे गमनयोग्य - मार्गस्य (पाराय) (गन्तवे) गन्तुं यानानि रचनीयानि। (नावा मतीनाम्) यथा समुद्रगमन - वृत्तीनां मेधाविनां नावा नौकया पारं गच्छन्ति , तथैव (नः) अस्माकमपि नौरुत्तमा भवेत्। (आयुञ्जाथाम॰) यथा मेधाविभिरग्निजले आसमन्ताद्यानेषु युज्येते , तथास्माभिरपि योजनीये भवतः। एवं सर्वैर्मनुष्यैः समुद्रादीनां पारावार - गमनाय पूर्वोक्तयानरचने प्रयत्नः कर्त्तव्य इत्यर्थः। मेधाविनामसु , निघण्टौ 15 खण्डे मतय इति पठितम्॥9॥

हे मनुष्याः! (सुपर्णाः) शोभनपतनशीलाः (हरयः) अग्न्यादयोऽश्वाः (अपो वसानाः) जलपात्राच्छादिता अधस्ताज्ज्वालारूपाः काष्ठेन्धनैः प्रज्वालिताः कला - कौशल - भ्रमणयुक्ताः कृताश्चेत्तदा (कृष्णं) पृथिवी - विकारमयं (नियानं) निश्चितं यानं (दिवमुत्प॰) द्योतनात्मकमाकाशमुत्पतन्ति , ऊर्ध्वं गमयन्तीत्यर्थः॥10॥

(द्वादशप्रधयः) तेषु यानेषु प्रधयः सर्वकलायुक्तानामराणां धारणार्था द्वादश कर्त्तव्याः। (चक्रमेकम्) तन्मध्ये सर्वकला - भ्रामणार्थमेकं चक्रं रचनीयम्। (त्रीणि नभ्यानि) मध्यस्थानि मध्यावयव - धारणार्थानि त्रीणि यन्त्राणि रचनीयानि। तैः (साकं त्रिशता) त्रीणि शतानि (शङ्कवोऽर्पिताः) यन्त्रकला रचयित्वा स्थापनीयाः। (चलाचलासः) ताः कलाः चलाः चालनार्हा अचलाः स्थित्यर्हाः , ( षष्टिः) षष्टिसंख्याकानि कलायन्त्राणि स्थापनीयानि। तस्मिन्याने एतदादिविधानं सर्वं कर्त्तव्यम्। (क उ तच्चिकेत) इत्येतत्कृत्यं को विजानाति ? ( न) न हि सर्वे॥11॥

इत्यादय एतद्विषया वेदेषु बहवो मन्त्रास्सन्त्यप्रसङ्गादत्र सर्वे नोल्लिख्यन्ते।

भाषार्थ - हे मनुष्यो! (आ नो नावा मतीनाम्) जैसे बुद्धिमान् मनुष्यों के बनाये नावादि यानों से (पाराय॰) समुद्र के पारावार जाने के लिए सुगमता होती है, वैसे ही (आ, युञ्जाथाम्) पूर्वोक्त वायु आदि अश्वि का योग यथावत् करो। (रथम्) जिस प्रकार उन यानों से समुद्र के पार और वार में जा सको (नः) हे मनुष्यो आओ आपस में मिल के इस प्रकार के यानों को रचें, जिन से सब देश देशान्तर में हमारा जाना आना बने॥9॥

(कृष्णं नि॰) अग्निजलयुक्त कृष्ण अर्थात् खैंचनेवाला जो (नियानं) निश्चित यान है, उस के (हरयः) वेगादि गुणरूप, (सुपर्णाः) अच्छी प्रकार गमन करानेवाले, जो पूर्वोक्त अग्न्यादि अश्व हैं, वे (अपो वसानाः) जलसेचनयुक्त वाष्प को प्राप्त होके (दिवमुत्पतन्ति) उस काष्ठ लौहा आदि से बने हुए विमान को आकाश में उड़ा चलते हैं। (त आववृ॰) वे जब चारों ओर से सदन अर्थात् जल से वेगयुक्त होते हैं, तब (ऋतस्य) अर्थात् यथार्थ सुख के देनेवाले होते हैं। (पृथिवी॰ धृ॰) जब जलकलाओं के द्वारा पृथिवी जल से युक्त की जाती है, तब उस से उत्तम उत्तम भोग प्राप्त होते हैं॥10॥

(द्वादश प्रधयः) इन यानों के बाहर भी थम्भे रचने चाहिये, जिन में सब कलायन्त्र लगाये जायें। (चक्रमेकम्) उन में एक चक्र बनाना चाहिए, जिस के घुमाने से सब कला घूमें। (त्रीणि नभ्यानि) फिर उस के मध्य में तीन चक्र रचने चाहिए, कि एक के चलाने से सब रुक जायें, दूसरे के चलाने से आगे चलें, और तीसरे के चलाने से पीछे चलें। (तस्मिन् साकं त्रिशता॰) उस में तीन तीन सौ (शङ्कवः॰) बड़ी बड़ी कीलें अर्थात् पेंच लगाने चाहिए कि जिन से उन के सब अङ्ग जुड़ जायें, और उन के निकालने से सब अलग अलग हो जायें। (षष्टिर्न चलाचलासः) उनमें 60 साठ कलायन्त्र रचने चाहिए, कई एक चलते रहें और कुछ बन्द रहें। अर्थात् जब विमान को ऊपर चढ़ाना हो, तब भाफघर के ऊपर के मुख बन्द रखने चाहिए, और जब ऊपर से नीचे उतारना हो तब ऊपर के मुख अनुमान से खोल देना चाहिए। ऐसे ही जब पूर्व को चलाना हो, तो पूर्व के बन्द करके पश्चिम के खोलने चाहिए, और जो पश्चिम को चलाना हो तो पश्चिम के बन्द करके पूर्व के खोल देने चाहिए। इसी प्रकार उत्तर दक्षिण में भी जान लेना। (न) उन में किसी प्रकार की भूल न रहनी चाहिए। (क उ तच्चिकेत) इस महागम्भीर शिल्पविद्या को सब साधारण लोग नहीं जान सकते, किन्तु जो महाविद्वान् हस्तक्रिया में चतुर और पुरुषार्थी लोग हैं, वे ही सिद्ध कर सकते हैं॥11॥

इस विषय के वेदों में बहुत मन्त्र हैं, परन्तु यहां थोड़ा ही लिखने में बुद्धिमान् लोग बहुत समझ लेंगे।

॥इति नौविमानादिविद्याविषयः संक्षेपतः॥16॥