भोजप्रबन्धः १३३ 'अभूत्याची पिङ्गा रसपतिरिवापश्य कनकं गतच्छायञ्चन्द्रो बुधजन इच ग्राम्य सदसि । क्षणात्क्षीणास्तारा नृपतय इवानुद्यमपरा नदीपा राजन्ते द्रविणरहितानामिव गुणाः' ।। २६३ ।। राजा तस्मै प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ । कालिदास-जैसे सोने के योग से रसराज पारद पीला हो जाता है, वैसे ही पूर्व दिशा पीली पड़ गयी; जैसे गंवारों की सभा में विद्वान श्रीहीन हो जाता है, वैसे ही चंद्रमा शोमाहीन हो गया; जैसे अनुद्योगी राजा क्षीण हो जाते है, वैसे ही इस क्षण तारे क्षीण हो गये; और जैसे धनहीन व्यक्तियों के गुण प्रतिष्ठित नहीं हो पाते, वैसे ही दीपक अब शोभित नहीं हैं। राजा ने कालिदास को प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएं दीं। अन्यदा द्वारपाल आगत्य प्राह--'देव, कापि मालाकारपत्नी द्वारि तिष्ठति' इति । राजाह-प्रवेशय' इति । ततः प्रवेशिता सा च नमस्कृत्य पठति-- 'समुन्नतघनस्तनस्तबकचुम्बितुम्बीफल- क्वणन्मधुरवीणया विबुधलोकलोलभ्रुवा। त्वदीयमुपगीयते हरकिरीटकोटिस्फुर- त्तुषारकरकन्दलीकिरणपूरगौरं यशः' ।। २६४ । राजा 'अहो महती पदपद्धतिः' इति तस्याः प्रत्यक्षरं लक्षं ददौ । अन्य वार द्वारपाल आकर बोला---'महाराज, कोई मालिन द्वार पर उपस्थित है।' राजा ने कहा--'प्रविष्ट कराओ।' तो प्रविष्ट हो उसने नमस्कार कर पढ़ा--- देवलोक की चंचल भ्रूकुटि वाली सुंदरियाँ अत्युन्नत और सघन स्तन- गुच्छों का चुंबन करते तूंवों से युक्त मधुर स्वर देने वाली वीणाओं पर शिव के मुकुटाग्र भाग पर चमकते हिमकर चंद्रमा की किरणों के प्रवाह के समान गीर आपके यश का गान किया करती हैं। राजाने विचारा 'अहा, इसकी पद योजना शैली श्रेष्ठ हैं'----और उसे प्रत्येक अक्षर पर लाख मुद्राएँ दीं।
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