महाभारतम्-04-विराटपर्व-063
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महाभारतस्य पर्वाणि |
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अर्जुनेन भीष्मपराजयः ।। 1 ।।
वैशंपायन उवाच। | 4-63-1x |
ततो भीष्मः शरानष्टौ ध्वजे पार्थस्य वीर्यवान्। | 4-63-1a 4-63-1b |
ते ध्वजं पाण्डुपुत्रस्य समासाद्य पतत्रिणः। | 4-63-2a 4-63-2b |
सारथिं च हयांश्चास्य विव्याध दशभिः शरैः । | 4-63-3a 4-63-3b |
ततोऽर्जुनः शरैस्तीक्ष्णैर्विद्ध्वा कुरुपितामहम्। | 4-63-4a 4-63-4b |
तद्युद्धमभवद्धोरं रोमहर्षणमद्भुतम्। | 4-63-5a 4-63-5b |
सन्ततं शरजालाभिराकाशं समपद्यत। | 4-63-6a 4-63-6b |
भल्लैर्भल्लाः समाहत्य कुरुपाण्डवयो रणे। | 4-63-7a 4-63-7b |
अग्निवक्रोपमं घोरं मण्डलीकृतमाहवे । | 4-63-8a 4-63-8b |
पर्वतं वारिधाराभिश्छादयन्निव तोयदः । | 4-63-9a 4-63-9b |
तां समुद्रमिवोद्धूतां शरवृष्टिं समुद्यताम् । | 4-63-10a 4-63-10b |
ततस्तानि विसृष्टानि शरजालानि सङ्घशः। | 4-63-11a 4-63-11b |
ततः कनकपुङ्खाग्रैः शितैः संनतपर्वभिः । | 4-63-12a 4-63-12b |
ततः प्रासृजदुग्राणि शरजालानि पाण्डवः। | 4-63-13a 4-63-13b |
साश्वं ससूतं सरथं स पार्थं समाचिनोद्भारतो वत्सदन्तैः । | 4-63-14a 4-63-14b |
ततो देवर्षिगन्धर्वाः साधुसाध्वित्यपूजयन्। | 4-63-15a 4-63-15b |
बलवानर्जुनो दक्षः क्षिप्रकारी च पाण्डवः। | 4-63-16a 4-63-16b |
ऋते शान्तनवाद्भीष्मात्कृष्णाद्वा देवकीसुतात् । | 4-63-17a 4-63-17b |
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य क्रीडतः पुरुषोत्तमौ । | 4-63-18a 4-63-18b |
प्राजापत्यं तथैवैन्द्रमाग्नेयं च सुदारुणम् । | 4-63-19a 4-63-19b 4-63-19c |
विस्मितान्यथ भूतानि तौ दृष्ट्वा संयुगे तदा। | 4-63-20a 4-63-20b |
नैतदन्यो मनुष्येषु प्रदर्शयितुमाहवे। | 4-63-21a 4-63-21b |
एवं सर्वास्त्रविदुषोरस्त्रयुद्धमवर्तत ।। | 4-63-22a |
अथ जिष्णुरुदावृत्य शितधारेण कार्मुकम् । | 4-63-23a 4-63-23b |
निमेषान्तरमात्रेण भीष्मोऽन्यत्कार्मुकं रणे। | 4-63-24a 4-63-24b |
शरांश्च सुबहुन्क्रुद्धो मुमोचाशु धनंजये । | 4-63-25a 4-63-25b 4-63-25c |
तयोर्दिव्यास्त्रविदुषोरस्यतोरनिशं शरान् । | 4-63-26a 4-63-26b |
अथावृणोद्दश दिशः शरैरतिरथस्तदा । | 4-63-27a 4-63-27b |
अतीव पाण्डवो भीष्मं भीष्मश्चातीव पाण्डवम् । | 4-63-28a 4-63-28b |
पाण्डवेन हताः शूरा भीष्मस्य रथरक्षिणः। | 4-63-29a 4-63-29b |
ततो गाण्डीवनिर्मुक्ता निरमित्रं चिकीर्षवः। | 4-63-30a 4-63-30b |
निष्पतन्तो रथात्तस्य धौता हैरण्यवाससः। | 4-63-31a 4-63-31b |
तस्य तद्दिव्यमस्त्रं हि प्रगाढं चित्रमस्यतः । | 4-63-32a 4-63-32b |
तं दृष्ट्वा परमप्रीतो गन्धर्वश्चित्रमद्भुतम् । | 4-63-33a 4-63-33b |
पश्येमानरिनिर्दारान्संसक्तानिव गच्छतः । | 4-63-34a 4-63-34b |
नेदं मनुष्याः श्रद्दध्युर्न हीदं तेषु विद्यते। | 4-63-35a 4-63-35b |
मध्यन्दिनगतं सूर्यं प्रतपन्तमिवाम्बरे । | 4-63-36a 4-63-36b |
उभौ विश्रुतकर्माणावुभौ शूरौ महीक्षिताम् । | 4-63-37a 4-63-37b |
इत्युक्तो देवराजस्तु पार्थभीष्मसमागमम्। | 4-63-38a 4-63-38b |
[अश्वत्थामा ततोऽभ्येत्य द्रुतं कर्णमभाषत । | 4-63-39a 4-63-39b |
इति कर्म समक्षं मे सभामध्ये त्वयोदितम् । | 4-63-40a 4-63-40b |
वैचित्रवीर्यजाः सर्वे त्वामाश्रित्य पृथासुतान् । | 4-63-41a 4-63-41b |
अश्वत्थामोदितं वाक्यं श्रुत्वा दुर्योधनस्तदा । | 4-63-42a 4-63-42b |
मा मानभङ्गं विप्रेन्द्र कुरु विश्रुतकर्मणः । | 4-63-43a 4-63-43b |
शूरा वदन्ति संग्रामे वाचा कर्माणि कुर्वते। | 4-63-44a 4-63-44b |
तस्मात्तं नार्हति भवान्गर्हितुं शूरसंमतम् । | 4-63-45a 4-63-45b |
ततो भीष्मः शान्तनवो बाणान्पार्श्वे समार्पयत्। | 4-63-46a 4-63-46b |
ततः प्रसह्य बीभत्सुः पृथुधारेण कार्मुकम्। | 4-63-47a 4-63-47b |
अथैनं दशभिः पश्चात्प्रत्यविध्यत्स्तनान्तरे। | 4-63-48a 4-63-48b |
स पीडितो महाबाहुर्गृहीत्वा रथकूबरम् । | 4-63-49a 4-63-49b |
तं विसंज्ञमपोवाह संयन्ता रथवाजिनाम् । | 4-63-50a 4-63-50b |
पराक्रमे च शौर्ये च वीर्ये सत्त्वे बले रणे। | 4-63-51a 4-63-51b |
यस्य नास्ति समो लोके पितृदत्तवरश्च यः। | 4-63-52a 4-63-52b 4-63-52c |
दुर्योधनहितार्थाय युद्ध्वा पार्थेन संगरे। | 4-63-53a 4-63-53b |
।। इति श्रीमन्महाभारते विराटपर्वणि |
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