सामग्री पर जाएँ

पृष्ठम्:AshtavakraGitaWithHindiTranslation1911KhemrajPublishers.djvu/२७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् परिष्कृतम् अस्ति

भाषाटीकासहिता। १५

गति होती है यह बात श्रुति, स्मृति, पुराण और ज्ञानी पुरुष प्रमाण मानते हैं कि, "मरणे या मतिः सा गतिः" सोई गीतामेंभी कहा है कि, “ यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यंते कलेवरम् । तं तमेवैति कौंतेय सदा तद्भाव- भावितः ॥” इसका अभिप्राय यह है कि, श्रीकृष्णजी उपदेश करते हैं कि, हे अर्जुन ! अन्तसमयमें जिस २ भावको स्मरण करता हुआ पुरुष शरीरको त्यागता है तस २ भावनासे तिस २ गतिकोही प्राप्त होता है। श्रुति- मेंभी कहा है कि " तं विद्याकर्मणी समारभेते पूर्वप्रज्ञा च” इसकाभी यही अभिप्राय है और बंध तथा मोक्ष अभिमानसे होते हैं वास्तवमें नहीं. यह वार्ता पहले कह आये हैं तोभी दूसरी बार शिष्यको बोध होनेके अर्थ कहा है इस कारण कोई दोष नहीं है क्योंकि आत्मज्ञान अत्यंत कठिन है ॥११॥

आत्मा साक्षी विभुःपूर्णएको मुक्तश्चिदक्रियः

असंगोनिःस्पृहः शान्तोभ्रमात्संसारवानिव।

अन्वयः-साक्षी विभुः पूर्णः एकः मुक्तः चित् अक्रियः असङ्गः निःस्पृहः शान्तः आत्मा भ्रमात् संसारवान इव (भाति )॥१२॥

जीवात्माके बंध और मोक्ष पारमार्थिक हैं इस तार्कि- ककी शंकाको दूर करनेके निमित्त कहते हैं कि, अज्ञा- नसे देहको आत्मा माना है तिस कारण वह संसारी