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पृष्ठम्:भोजप्रबन्धः (विद्योतिनीव्याख्योपेतः).djvu/१२३

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भोजप्रवन्धः

 आठ स्वर्ण कोटियां, तिरानवे तौल मोती, मधु की गंध से मतवाले भ्रमरों के ( ऊपर घिर कर भनभनाते ) कारण क्रोध से उद्धत पचास हाथी, दस सहसेर घोड़ों, छल-प्रपंच करने में चतुर सो वारांगनाएँ और पांड्यदेश राजा ने जो यौतुक दिया है, वह सबइस मागध वैतालिक को दे दो।

 तो मोज ने पहिले से ही आश्चर्यमय विक्रमादित्य के चरित्र को देख कर अपना अभिमान छोड़ दिया।


(१८) विपुलदानस्य कतिपयकथा:

 ततः कदाचिद्धारानगरे रात्रौ विचरन्राजा कंचन देवालये शीतालु ब्राह्मणमित्थं पठन्तमवलोक्य स्थितः-

'शीतेनाध्युषितस्य माघजलवच्चिन्तार्णवे मज्जतः
शान्ताग्नेः स्फुटिताधरस्य धमतः सुरक्षामकुक्षेर्मम। .
निद्रा क्वाप्यवमानितेवं दयिता सन्त्यज्य दूरं गता
सत्पात्रप्रतिपादितेव कमला नो हीयते शर्वरी ॥ २३२ ॥

 इति श्रुत्वा राजा प्रातस्तमाहूय पप्रच्छ-'विप्र, पूर्वेद्यू, रात्रौ त्वय दारुणः शीतभारः कथं सोढः।'

 एक बार धारानगर में रात्रि में विचरण करता राजा किसी देवमंदिर में शीत से व्याकुल ब्राह्मण को इस प्रकार पढ़ते देख रुक गया-

 शीत से आक्रान्त माघमास के जल के समान चिंता के समुद्र में डूवते बुझ चली आग को शीत से फटे ओठों से फूँकते, भूख से सूखे पेटवाले मुझे अपमानित प्रिया की भांति छोड़ कर नींद चली गयी है; और जैसे सुयोग्य व्यक्ति की संचित लक्ष्मी का क्षय नहीं होता, वैसे ही रात का क्षय नहीं हो रहा है।

 यह सुनकर सवेरे राजा ने उसे बुलाकर पूछा-'ब्राह्मण, गत रात्रि में तुमने कठोर शीत के भार को कैसे सहा?' . . . विप्र आह.-

'रात्रौ जानुर्दिवा भानुः कृशानुः सन्ध्ययोर्द्वयोः। . .
एवं शीतं मया नीतं जानुभानुकृशानुभिः' ॥ २३३ ।।