नहीं हो पाता, मनुष्य की एकत्र की हुई वह लक्ष्मी धीरे-धीरे अलक्ष्मी हो
जाती है। .
ऐसा कह कर राजा ने उसके पद से उस मंत्री को दूर करके उसके स्थान पर दूसरे को नियुक्त कर दिया और उस (नये ) से कहा-.
'महाकवि को लाख दो, विद्वान् को उसका आधा; काव्यार्थ के ज्ञाता को एक गाँव देना और उसके सामान्यार्थ ज्ञाता को आधा गाँव.।
“और मेरे मंत्रियों में जो दान का निषेध करने का इच्छुक है, वह वध योग्य है । कहा है-
जिसका दान होता है और जिसका भोग होता है, धनियों का धन वही है । मरजाने वाले के अवशिष्ट स्त्रीसमूह और धन से दूसरे खेलते हैं । । प्रजाजन का प्रिय दाता ही होता है, धनी नहीं । संसारी जनों द्वारा वारि दाता बादल की ही आकांक्षा की जाती है, 'वारि के कोश समुद्र की नहीं।
संग्रह में ही लगा रहने वाला समुद्र प्रायः धरती पर ही रहता है और जल का दाता बादल-देखो, भुवन मंडल के ऊपर ही गरजता रहता है।
एवं वितरणशालिनं भोजराजं श्रुत्वा कश्चित्कलिङ्गदेशात्कविरुपेत्य मासमात्रं तस्थौ । न च क्षोणीन्द्रदर्शनं भवति । आहारार्थ [१] पाथेय- मपि नास्ति । ततः कदाचिद्राजा मृगयाभिलाषी बहिर्निर्गतः । स कविर्दृष्ट्वा राजनमाह-~-
'दृष्टे श्रीभोजराजेन्द्रे गलन्ति त्रीणि तत्क्षणात् । |
राजा लक्षं ददौ।
इस प्रकार दानशील भोजराज का श्रवण कर कलिंग देश से एक कवि
आकर एक मास तक प्रतीक्षा करता रहा,। राजा का दर्शन न हो पाया। भोजन के लिए संवल भी न रहा । तव कभी राजा आखेट की इच्छा से बाहर निकला । देख कर वह कवि राजा से वोला- : :
'श्री भोजराजेंद्र का दर्शन होते ही तीन वस्तुएँ उसी क्षण गल जाती हैं-
(१०) पथि साधु पाथेयम्, “पथ्यतिथिवसति०” इत्यनेनःढन् ।
- ↑ (१)