'जानुदध्न' कहने पर संतुष्ट हुए भोजराज ने लाख; लाख और फिर लाख मुद्राएँ और दस मदमत्त हाथी दिये ।' ततः सिंहासनमलङ्कुर्वाणे श्रीभोजनृपतौ द्वारपाल आगत्य प्राह--
'राजन् कोऽपि शुकदेवनामा कचिर्दारिद्रयविडम्बतो द्वारि वर्तते । राजा बाणं प्राह--'पण्डितवर, सुकवे, तत्त्वं विजानासि ।' बाणः- 'देव, शुकदेवपरिज्ञानासामर्थ्याभिज्ञः कालिदास एव, नान्यः।' राजा-- 'सुकवे, सखे कालिदास, किं विजानासि शुकदेवकविम् ।' इत्याह--
एक बार नरपति श्री भोजराज सिंहासन को सुशोभित कर रहे थे कि द्वारपाल आकर बोला--'महाराज, दरिद्रता की विडंबना में पड़ा कोई शुकदेव नाम का पंडित द्वार पर उपस्थित है।' राजा ने वाण से कहा-- 'पंडितवर, सुकवे, तुम शुकदेव की विद्वत्ता जानते हो ?' बाण ने कहा-- 'देव, शुकदेव को पूर्णतया जानने वाला कालिदास ही है, अन्य नहीं।' राजा ने पूछा--'सुकवि मित्र कालिदास, तुम शुकदेव कवि को जानते हो ?'
कालिदासः--'देव,
सुकविर्द्वितयं जाने निखिलेऽपि महोतले । |
कालिदास ने कहा--'देव, संपूर्ण भूतल पर मैं सुकवियों की जोड़ी (दुगड्डा-जोड़ी ) जानता हूँ-एक भवभूति और यह शुक । इन दोनों का वाल्मीकि के साथ त्रितय (तिकड़ी) बनता है।' ततो विट्टद्वन्दवन्दिता सीता प्राह-
'काकाः किं किं न कुर्वन्ति क्रोङ्कारं यत्र तत्र वा । |
तदनंतर विद्वज्जनों द्वारा पूजित सीता ने कहा- 'जहाँ-तहाँ कौए कितनी काँव-काँव नहीं किया करते ? परन्तु, बोलता राजा के हाथों लाड पाने वाला शुक ही है ।'
ततो मयूरः प्राह-
- ↑ नृपस्य हस्तेनोपलालितः।