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भोजप्रवन्धः


  बनाया और जंघा में छुरी से काट कर रक्त निकाला और, उस दोनों में रखा और तिनके से दूसरे पत्ते पर रक्त से एक श्लोक लिख कर वत्स से कहा- 'महाभाग, इस पत्र को राजा को दे देना । और राजाज्ञा का पालन करो।

 ततो वत्सराजस्यानुजो भ्राता भोजस्य प्राणपरित्यागसमये दोप्य- मानमुखश्रियसबलोक्य प्राह-

"एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः .
शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यत्तु गच्छति ॥ ३२॥
न ततो हि संहायार्थे माता भार्या च तिष्ठति।
न पुत्रभित्रौ न ज्ञातिधर्मस्तिष्ठति केवलः ।। ३३ ॥
बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः ।
श्रुतवानपि मूर्खश्च यो धर्मविमुखो जनः ॥ ३४ ॥
इहैव न कत्र्याधेचिकित्सा न करोति यः ।।
गत्वा निरौषधस्थानं स रोगी किं करिष्यति ।। ३५ ।।
जरां मृत्यु भयं व्याधि यो जानाति स पण्डितः ।
स्वस्थस्तिष्ठन्निषीदेद्वा स्वपेद्वा केनचिद्धसेत् ।। ३६ ॥
तुल्यजातिवयोरूपान् हृतान् पश्यति मृत्युना ।
नहि तत्रास्ति ते त्रासो बज्रवद्धृदयं तव' । ३७ ।। इति ।

 इसके बाद प्राणत्यागने का समय उपस्थित होने पर भोज के देदीप्यमान मुख की शोभा को देखकर वत्सराज का छोटा भाई वोला-

 धर्म ही एक मित्र है, जो मरजाने पर भी अनुगमन करता है; और सब तो शरीर के विनाश के साथ ही नाश को प्राप्त हो जाता है।

 उस समय सहायता के निमित्त न माता ठहरती है, न पत्नी, न पुत्र, न मित्र; न कोई नातेदार; केवल धर्म ही ठहरता है।

 जो मनुष्य वर्म से विमुख है, वह बलवान् होने पर भी शक्तिहीन है; धनी होने पर भी निर्धन है और शास्त्रज्ञ होने पर भी मूर्ख है।

 जो इस लोक में ही नरक के रोग (पाप) की चिकित्सा नहीं करता, औपवहीन स्थान (परलोक ) में पहुँच कर वह रोगी-क्या करेगा? जो बुढ़ापा, मृत्यु, भय और रोग को . जानता है, वह पंडित है। वह