यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ५/मन्त्रः २८
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
ध्रुवासीत्यस्यौतथ्यो दीर्घतमा ऋषिः। यज्ञो देवता। आर्षी जगती छन्दः। निषादः स्वरः॥
पुनस्तेन किं भविष्यतीत्युपदिश्यते॥
फिर उस यज्ञ से क्या होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
ध्रु॒वासि॑ ध्रु॒वो᳕ऽयं यज॑मानो॒ऽस्मिन्ना॒यत॑ने प्र॒जया॑ प॒शुभि॑र्भूयात्।
घृ॒तेन॑ द्यावापृथिवी पूर्येथा॒मिन्द्र॑स्य छ॒दिर॑सि विश्वज॒नस्य॑ छा॒या॥२८॥
पदपाठः—ध्रु॒वा। अ॒सि॒। ध्रु॒वः। अ॒यम्। यज॑मानः। अ॒स्मिन्। आ॒यत॑न॒ इत्या॒ऽयत॑ने। प्र॒जयेति॑ प्र॒ऽजया॑। प॒शुभि॒रिति॑ प॒शुऽभिः॑। भू॒या॒त्। घृ॒तेन॑। द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ऽइति॑ द्यावापृथिवी। पू॒र्ये॒था॒म्। इन्द्र॑स्य। छ॒दिः। अ॒सि॒। वि॒श्व॒ज॒नस्येति॑ विश्वऽज॒नस्य॑। छा॒या॥२८॥
पदार्थः—(ध्रुवा) निश्चला (असि) भवसि (ध्रुवः) निश्चलः (अयम्) वक्ष्यमाणः (यजमानः) यज्ञकर्त्ता (अस्मिन्) वर्त्तमाने यज्ञे (आयतने) आयन्ति आगच्छन्ति प्राणिनो यस्मिंस्तज्जगत् तस्मिन् जगति स्थाने यज्ञे वा (प्रजया) राज्येन सन्तानसमूहेन वा (पशुभिः) हस्त्यश्वगवादिभिः (भूयात्) (घृतेन) आज्यादिना (द्यावापृथिवी) आकाशभूमी (पूर्येथाम्) (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यस्य (छदिः) दुःखापवारकत्वेन प्रापकः प्रापिका वा (असि) भवसि (विश्वजनस्य) विश्वस्मिन् जगति सर्वस्य जनसमूहस्य (छाया) दुःखछेदकाश्रयो वा। अयं मन्त्रः (शत॰ ३। ६। १। १९-२२) व्याख्यातः॥२८॥
अन्वयः—हे यज्ञानुष्ठात्रि यजमानपत्नि! यथा त्वमस्मिन्नायतने जगति स्वस्थाने यज्ञे वा प्रजया पशुभिः सह ध्रुवासि ,तथाऽयं यजमानोऽपि ध्रुवोऽस्ति। युवां घृतेन द्यावापृथिवी पूर्येथां पूरणे कुर्यातमिन्द्रस्य छदिरसि विश्वजनस्य छायाऽसि यत्संगेन प्राणिसमूहः सुखीभूयादस्मात् तां तं त्वां वयं प्रशंसामः॥२८॥
भावार्थः—मनुष्यैर्याभ्यां यज्ञानुष्ठातृभ्यां यजमानतत्पत्नीभ्यां येन यज्ञेन च निश्चला विद्या सुखानि च प्राप्य दुःखानि नश्येयुस्तौ सदा सत्कर्तव्यौ यज्ञश्च सदाऽनुष्ठेयः॥२८॥
पदार्थः—हे यज्ञ करने वाले यजमान की स्त्री! जैसे तू (प्रजया) राज्य वा अपने संतानों और (पशुभिः) हाथी, घोड़े, गाय आदि पशुओं के सहित (अस्मिन्) इस (आयतने) जगत् वा अपने स्थान वा सब के सत्कार कराने के योग्य यज्ञ में (ध्रुवा) दृढ़ संकल्प (असि) है, वैसे (अयम्) यह (यजमानः) यज्ञ करने वाला तेरा पति यजमान भी (ध्रुवः) दृढ़ संकल्प है। तुम दोनों (घृतेन) घृत आदि सुगन्धित पदार्थों से (द्यावापृथिवी) आकाश और भूमि को (पूर्येथाम्) परिपूर्ण करो। हे यज्ञ करने वाली स्त्री! तू (इन्द्रस्य) अत्यन्त ऐश्वर्य को भी अपने यज्ञ से (छदिः) प्राप्त करनेवाली (असि) है। अब तू और तेरा पति यह यजमान (विश्वजनस्य) संसार का (छाया) सुख करने वाला (भूयात्) हो॥२८॥
भावार्थः—मनुष्यों को चाहिये कि जिन यज्ञ करने वाले यजमान की पत्नी और यजमान से तथा जिस यज्ञ से दृढ़ विद्या और सुखों को पाकर दुःखों को छोड़ें उनका सत्कार तथा उस यज्ञ का अनुष्ठान सदा ही करते रहें॥२८॥