यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः ५/मन्त्रः १२
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, जालस्थलीय-संस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान् |
सिᳬह्यसीत्यस्य गोतम ऋषिः। वाग्देवता। भुरिग्ब्राह्यी पङ्क्तिश्छन्दः। पञ्चमः स्वरः॥
पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥
फिर वह कैसी है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
सि॒ꣳह्य᳖सि॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य॒स्यादित्य॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖सि ब्रह्म॒वनिः॑ क्षत्र॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖सि सुप्रजा॒वनी॑ रायस्पोष॒वनिः॒ स्वाहा॑ सि॒ꣳह्य᳖स्याव॑ह देवान् यज॑मानाय॒ स्वाहा॑ भू॒तेभ्य॑स्त्वा॥१२॥
पदपाठः—सि॒ꣳही। अ॒सि॒। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ॒दित्य॒वनि॒रित्या॑दित्य॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। ब्र॒ह्म॒वनि॒रिति॑ ब्रह्म॒ऽवनिः॑। क्ष॒त्र॒वनि॒रिति॑ क्षत्र॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। सु॒प्र॒जा॒वनि॒रिति॑ सुप्रजा॒ऽवनिः॑। रा॒य॒स्पो॒ष॒वनि॒रिति॑ रायस्पोष॒ऽवनिः॑। स्वाहा॑। सि॒ꣳही। अ॒सि॒। आ। वह॒। दे॒वान्। यज॑मानाय। स्वाहा॑। भू॒तेभ्यः॑ त्वा॒॥१२॥
पदार्थः—(सिंही) अविद्याहन्त्री (असि) अस्ति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (स्वाहा) वाक् (सिंही) क्रूरत्वादिदोषनाशिका (असि) अस्ति (आदित्यवनिः) या आदित्यान् मासान् वनति संभजति सा (स्वाहा) ज्योतिःशास्त्रसंस्कारयुक्ता वाणी (सिंही) बलेन जाड्यत्वविनाशिनी (असि) अस्ति (ब्रह्मवनिः) यया ब्रहाविदो मनुष्या ब्रह्म परमात्मानं वेदं वा वनन्ति संभजन्ति सा (क्षत्रवनिः) यया क्षत्रं राज्यं धनुर्विद्या शूरवीरान् पुरुषान् वा वनन्ति संभजन्ति सा (स्वाहा) अध्ययनाध्यापनराजव्यवहारकुशला वाक् (सिंही) चोरदस्य्वन्यायप्रलयकारिणी (असि) अस्ति (सुप्रजावनिः) यया शोभनाः प्रजा वनति संभजति सा (रायस्पोषवनिः) यया रायो विद्याधनसमूहस्य पोषं पुष्टि वनति संभजति सा (स्वाहा) व्यवहारेण धनप्रापिका (सिंही) सर्वदुःखप्रणाशिका (असि) अस्ति (आ) समन्तात् (वह) वहति प्रापयति (देवान्) विदुषो दिव्यगुणानृतून् भोगान् वा (यजमानाय) यजति विदुषः पूजयति सद्गुणान् संगच्छते ददाति वा तस्मै (स्वाहा) दिव्यविद्यासम्पन्ना (भूतेभ्यः) मनुष्यादिप्राणिभ्यः। अयं मन्त्रः (शत॰ ३। ५। २। ११-१३) व्याख्यातः॥१२॥
अन्वयः—अहं याऽऽदित्यवनिः सिंही स्वाहा(स्य)स्ति, या ब्रह्मवनिः सिंही स्वाहाऽ(स्य)स्ति, या क्षत्रवनिः सिंही स्वाहा(स्य)स्ति, या रायस्पोषवनिः सिंही स्वाहा(स्य)स्ति, या सुप्रजावनिः सिंही स्वाहा, या यजमानाय देवानां वह प्रापयति, तां भूतेभ्यो यज्ञान्निःसृजामि॥१२॥
भावार्थः—अत्र पूर्वस्मान्मन्त्रात् (यज्ञात्) (निः) (सृजामि) इति पदत्रयमनुवर्त्तते। मनुष्यैरध्ययनादिनेदृग्-लक्षणां वेदादिवाणीं प्राप्यैतां सर्वेभ्यो मनुष्येभ्योऽध्याप्यानन्दयितव्याः॥१२॥
पदार्थः—मैं जो (आदित्यवनिः) मासों का सेवन और (सिंही) क्रूरत्व आदि दोषों को नाश करने वाली (स्वाहा) ज्योतिःशास्त्र से संस्कारयुक्त वाणी (असि) है, जो (ब्रह्मवनिः) परमात्मा, वेद और वेद के जानने वाले मनुष्यों के सेवन और (सिंही) बल के जाड्यपन को दूर करने वाली (स्वाहा) पढ़ने-पढ़ाने व्यवहारयुक्त वाणी (असि) है, जो (क्षत्रवनिः) राज्य, धनुर्विद्या और शूरवीरों का सेवन और (सिंही) चोर, डाकू अन्याय को नाश करने वाली (स्वाहा) राज्य-व्यवहार में कुशल वाणी (असि) है, जो (रायस्पोषवनिः) विद्या धन की पुष्टि का सेवन और (सिंही) अविद्या को दूर करने वाली (स्वाहा) वाणी (असि) है, जो (सुप्रजावनिः) उत्तम प्रजा का सेवन और (सिंही) सब दुःखों का नाश और (स्वाहा) व्यवहार से धन को प्राप्त कराने वाली वाणी (असि) है और जो (यजमानाय) विद्वानों के पूजन करने वाले यजमान के लिये (स्वाहा) दिव्य विद्या सम्पन्न वाणी (देवान्) विद्वान् दिव्यगुण वा भोगों को (आवह) प्राप्त करती है (त्वा) उसको (भूतेभ्यः) सब प्राणियों के लिये (यज्ञात्) यज्ञ से (निःसृजामि) सम्पादन करता हूं॥१२॥
भावार्थः—इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (यज्ञात्) (निः) (सृजामि) इन तीनों पदों की अनुवृत्ति है। मनुष्यों को उचित है कि पढ़ना-पढ़ाना आदि से इस प्रकार लक्षणयुक्त वाणी प्राप्त कर, इसे सब मनुष्यों को पढ़ा कर सदा आनन्द में रहें॥१२॥