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यजुर्वेदभाष्यम् (दयानन्दसरस्वतीविरचितम्)/अध्यायः २/मन्त्रः ६

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अध्यायः २
दयानन्दसरस्वती
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सम्पादकः — डॉ॰ ज्ञानप्रकाश शास्त्री, वैबसंस्करण-सम्पादकः — डॉ॰ नरेश कुमार धीमान्
यजुर्वेदभाष्यम्/अध्यायः २


घृताच्यसीत्यस्य ऋषिः स एव। विष्णुर्देवता सर्वस्य। षट्षष्टितमाक्षरपर्य्यतं ब्राह्मी त्रिष्टुप् छन्दः। अग्रे निचृत् त्रिष्टुप् छन्दः। सर्वस्य धैवतः स्वरः॥

स किं किं प्रियं सुखं साधयतीत्युपदिश्यते॥

फिर उक्त यज्ञ से क्या-क्या प्रिय सुख सिद्ध होता है, सो अगले मन्त्र में प्रकाशित किया है॥

 

घृ॒ताच्य॑सि जु॒हूर्नाम्ना॒ सेदं प्रि॒येण॒ धाम्ना॑ प्रि॒यꣳ सद॒ऽआसी॑द घृ॒ताच्य॑स्युप॒भृन्नाम्ना॒ सेदं प्रि॒येण॒ धाम्ना॑ प्रि॒यꣳ सद॒ऽआसी॑द घृ॒ताच्य॑सि ध्रु॒वा नाम्ना॒ सेदं प्रि॒येण॒ धाम्ना॑ प्रि॒यꣳ सद॒ऽआसी॑द प्रि॒येण॒ धाम्ना॑ प्रि॒यꣳ सदऽआसी॑द। ध्रु॒वाऽअ॑सदन्नृ॒तस्य॒ योनौ॒ ता वि॑ष्णो पाहि पा॒हि य॒ज्ञं पा॒हि य॒ज्ञप॑तिं पा॒हि मां य॑ज्ञ॒न्य᳖म्॥६॥

पदपाठः— घृ॒ताची॑। अ॒सि॒। जु॒हूः। नाम्ना॑। सा। इ॒दम्। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। प्रि॒यम्। सदः॑। आ। सी॒द॒। घृ॒ताची॑। अ॒सि॒। उ॒प॒भृदित्यु॑प॒ऽभृत्। नाम्ना॑। सा। इ॒दम्। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। प्रि॒यम्। सदः॑। आ। सी॒द॒। घृ॒ताची॑। अ॒सि॒। ध्रु॒वा। नाम्ना॑। सा। इ॒दम्। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। प्रि॒यम्। सदः॑। आ। सी॒द॒। प्रि॒येण॑। धाम्ना॑। प्रि॒यम्। सदः॑। आ। सी॒द॒। ध्रु॒वा। अ॒स॒द॒न्। ऋ॒तस्य॑। योनौ॑। ता। वि॒ष्णो॒ऽइति॑ विष्णो। पा॒हि। पा॒हि। य॒ज्ञम्। पा॒हि। य॒ज्ञप॑ति॒मिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिम्। पा॒हि। माम्। य॒ज्ञ॒न्य᳖मिति॑ यज्ञ॒ऽन्य᳖म्॥६॥

पदार्थः— (घृताची) घृतमाज्यमञ्चति प्राप्नोत्यनयाऽऽदानक्रियया सा (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (जुहूः) जुहोति ददाति हविरादत्ते सुखं चानया सा। ‘हु दानादनयोः’ इत्यस्मात् ‘हुवः श्लुवच्च’ (उणा॰२.५९) अनेन क्विप् प्रत्ययो दीर्घादेशश्च (नाम्ना) प्रसिद्धेन (सा) पूर्वोक्ता (इदम्) प्रत्यक्षम् (प्रियेण) सुखैस्तर्पकेण कमनीयेन (धाम्ना) स्थानेन (प्रियम्) प्रीणाति सुखयति यत्तत् (सदः) सीदन्ति प्राप्नुवन्ति सुखानि यस्मिन् तद्गृहम् (आ) समन्तात् (सीद) सादयति। अत्रोभयत्र लडर्थे लोडन्तर्गतो ण्यर्थो व्यत्ययश्च (घृताची) या होमक्रिया घृतमुदकमञ्चति प्रापयति सा। घृतमित्युदकनामसु पठितम् (निघं॰१.१२) (असि) अस्ति (उपभृत्) योपगतं बिभर्त्यनया हस्तक्रियया सा (नाम्ना) प्रख्यातेन (सा) पूर्वोक्ता (इदम्) ओषध्यादिकम् (प्रियेण) प्रीतिहेतुना (धाम्ना) स्थलेन (प्रियम्) प्रीतये सुखयत्यारोग्येन यत्तत् (सदः) सीदन्ति घ्नन्ति दुःखानि येन तदौषधसेवनं पथ्याचरणं च। अत्र सदिर्विशरणार्थः (आ) समन्तात् (सीद) प्रापयति (घृताची) घृतमायुर्निमित्तमञ्चति प्राप्नोत्यनया सुनियमाचरणक्रियया सा (असि) भवति (ध्रुवा) ध्रुवन्ति प्राप्नुवन्ति स्थिराणि सुखान्यनया विद्यया सा। ‘ध्रु गतिस्थैर्य्ययोः’ इत्यस्य कप्रत्ययान्तः प्रयोगः। कृतो बहुलम् [अष्टा॰३.३.११३] इति करणकारके (नाम्ना) प्रसिद्धेन (सा) उक्तार्था (इदम्) जीवनम् (प्रियेण) प्रीतिकरेण (धाम्ना) स्थित्यर्थेन (प्रियम्) आनन्दकरम् (सदः) वस्तु (आ) अभितः (सीद) सीदति गमयति। अत्रोभयत्र लडर्थे लोड् व्यत्ययश्च (प्रियेण) प्रीतिसाधकेन (धाम्ना) हृदयेन (प्रियम्) प्रीतिकरम् (सदः) सीदति जानाति येन तत् ज्ञानम् (आ) सर्वतः (सीद) सीदति प्राप्नोति (ध्रुवा) ध्रुवाणि निश्चलानि वस्तूनि। अत्र शेश्छन्दसि बहुलम् [अष्टा॰६.१.७०] इति लोपः (असदन्) भवेयुः। अत्र लिङर्थे लङ्। ‘वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्ति’ इति सीदादेशो न। (ऋतस्य) शुद्धस्य सत्यस्य (योनौ) यज्ञे। यज्ञो वा ऋतस्य योनिः (शत॰१.३.४.१६) (ता) तानि। अत्रापि शेर्लोपः (विष्णो) व्यापकेश्वर (पाहि) रक्ष (पाहि) पालय (यज्ञम्) पूर्वोक्तं त्रिविधम् (पाहि) पालय (यज्ञपतिम्) यज्ञस्य पालकं यजमानम् (पाहि) रक्ष (माम्) होतारमध्वर्य्युमुद्गातारं ब्राह्मणं वा (यज्ञन्यम्) यज्ञं नयति प्रापयतीति यज्ञनीस्तम्। अत्र ‘अमिपूर्वः’ (अष्टा॰६.१.१०६) इत्यत्र ‘वा छन्दसि’ इत्यनुवर्तनात् पूर्वरूपादेशो न भवति। अयं मन्त्रः (शत॰ (१.३.१.१३-१६) व्याख्यातः॥६॥

अन्वयः— या जुहूर्नाम्ना घृताच्यसि भवति सा यज्ञे प्रयुक्ता सती प्रियेण धाम्ना सह वर्त्तमानमिदं प्रियं सद आसीद आसादयति। योपभृन्नाम्ना घृताच्यस्यस्ति, साऽथ यत्ते प्रयुक्ता सती प्रियेण धाम्नेदं प्रियं सद आसीद समन्तात् प्रापयति। या ध्रुवा नाम्ना घृताच्यसि भवति, सा सम्यक् स्थापिता सती प्रियेण धाम्नेदं प्रियं सद आसीद आगमयति। यथा क्रियया प्रियेण धाम्ना प्रियं सद आसीद समन्तात् प्राप्नोति। सा सर्वैर्नित्यं साध्या। हे विष्णो! यथेमानि ऋतस्य योनौ ध्रुवा ध्रुवाणि वस्तून्यसदन् भवेयुस्तथैवैतानि निरन्तरं पाहि, तथा कृपया यज्ञं पाहि। यज्ञन्यं यज्ञपतिं पाहि यज्ञन्यं मां च पाहि॥६॥

भावार्थः— यो यज्ञः पूर्वोक्ते मन्त्रे वसुरुद्रादित्यैः सिध्यति, स वायुजलशुद्धिद्वारा सर्वाणि स्थानानि सर्वाणि वस्तूनि च प्रियाणि निश्चलसुखसाधकानि ज्ञानवर्धकानि च करोति, तेषां वृद्धये रक्षणाय च सर्वैर्मनुष्यैर्व्यापकेश्वरस्य प्रार्थना सम्यक् पुरुषार्थश्च कर्त्तव्य इति॥६॥

पदार्थः— जो [(नाम्ना)] (जुहूः) हवि अग्नि में डालने के लिये सुख की उत्पन्न करने वाली (घृताची) घृत को प्राप्त कराने वाली आदान क्रिया (असि) है (सा) वह यज्ञ में युक्त की हुई सार ग्रहण की क्रिया है सो (प्रियेण) सुखों से तृप्त करने वाला शोभायमान (धाम्ना) स्थान के साथ वर्त्तमान होके (इदम्) यह (प्रियम्) जिस में तृप्त करने वाले (सदः) उत्तम-उत्तम सुखों को प्राप्त होते हैं, उन को (आसीद) सिद्ध करती है। जो (नाम्ना) प्रसिद्धि से (उपभृत) समीप प्राप्त हुए पदार्थों को धारण करने तथा (घृताची) जल को प्राप्त कराने वाली हस्तक्रिया (असि) है (सा) वह यज्ञ में युक्त की हुई (प्रियेण) प्रीति के हेतु (धाम्ना) स्थल से (इदम्) यह ओषधि आदि पदार्थों का समूह (प्रियम्) जो कि आरोग्यपूर्वक सुखदायक और (सदः) दुःखों का नाश करने वाला है, उस को (आसीद) अच्छी प्रकार प्राप्त कराती है तथा जो [(नाम्ना)] (ध्रुवा) स्थिर सुखों वा (घृताची) आयु के निमित्त की देने वाली विद्या (असि) होती है (सा) वह अच्छी प्रकार उत्तम कार्यों में युक्त की हुई (प्रियेण) प्रीति उत्पन्न करने वाले [धाम्ना] स्थिरता के निमित्त से (इदम्) इस (प्रियम्) आनन्द कराने वाले जीवन वा (सदः) वस्तुओं को (आसीद) प्राप्त करती है। जिस क्रिया करके (प्रियेण) प्रसन्नता के करने हारे (धाम्ना) हृदय से (प्रियम्) प्रसन्नता करने वाला (सदः) ज्ञान (आसीद) अच्छी प्रकार प्राप्त होता है, (सा) वह विज्ञानरीति सब को नित्य सिद्ध करनी चाहिये। हे (विष्णो) व्यापकेश्वर! जैसे जो-जो (ऋतस्य योनौ) शुद्ध यज्ञ में (ध्रुवा) स्थिर वस्तु (असदन्) हो सके, वैसे ही [ता] उनकी निरन्तर (पाहि) रक्षा कीजिये तथा कृपा कर के [(यज्ञम्)] यज्ञ की (पाहि) रक्षा कीजिये (यज्ञन्यम्) यज्ञ प्राप्त करने (यज्ञपतिम्) यज्ञ को पालन करने हारे यजमान की (पाहि) रक्षा करो और यज्ञ को प्रकाशित करने वाले (माम्) मुझे (च) भी (पाहि) पालिये॥६॥

भावार्थः— जो यज्ञ पूर्वोक्त मन्त्र में वसु, रुद्र और आदित्य से सिद्ध होने के लिये कहा है, वह वायु और जल की शुद्धि के द्वारा सब स्थान और सब वस्तुओं को प्रीति कराने हारे उत्तम सुख को बढ़ाने वाले कर देता है, सब मनुष्यों को उनकी वृद्धि वा रक्षा के लिये व्यापक ईश्वर की प्रार्थना और सदा अच्छी प्रकार पुरुषार्थ करना चाहिये॥६॥