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पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/३१

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( बाइस ) सभी एक मत हैं कि संग्राम जिस स्त्री के लिये हो वह दिव्य ही होनी चाहिये। पात्रों के उद्धत स्वभाव के विषय में भी मतभेद नहीं है। इसमें स्त्रियों का परिदेवन और क्रोध भी कुछ आचार्यों ने स्वीकार किया है। इसकी दूसरी विशेषताएँ हैं- इसकी सुसंबद्धता अर्थात् प्रत्येक अंक की कथा परस्पर संबद्ध एवं सुगठित होनी चाहिये। इसमें अविश्वास ही विरोध का मूल कारण होता है। युद्ध और संग्राम का मूल कारण वास्तविकता को न समझना भी हो सकता है। इसमें विशेष रूप में संक्षोभ, विद्रव, रोषभाषण, भेद, अपहरण, अवमर्दन इत्यादि का अभिनय किया जाता है। कुछ लोग इसमें १० पात्र स्वीकार करते हैं; कुछ १२ और कुछ ६ पात्रों में ही इसे सीमित रखना चाहते हैं। कुछ लोगों की सम्मत्ति में भेद, दण्ड, वध इत्यादि का हेतु सी के अतिरिक्त अन्य भी हो सकता है। इसमें शृङ्गार तथा ङ्गाराभास दोनों दिखलाये जा सकते हैं। भरत का कहना है कि व्यायोग में जिस प्रकार के पुरुष जिस प्रकार के रस और जिस प्रकार की वृत्तियां दिखलाई जाती हैं ईहामृग में भी वही सब होता है। इसमें भेदक केवल इतना है कि इसमें देवी का अभिनय किया जाता है। विश्वनाथ ने इसके उदाहरण के रुप में ‘कुसुमशेखरविजयका उल्लेख किया है। कीथ ने रुक्मिणी हरण को ईहामृग माना है। इसके अतिरिक्त वत्सराज का भी एक ईहामृग प्रसिद्ध है। (४) समवकार- तीन अंकों का एक मात्र रूपक । इसका कथानक प्रख्यात होता है। जिसमें किसी देवता या राक्षस का सम्बन्ध दिखलाया जाता है। दशरूपक के अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति है- ‘समवकीर्यन्तेयी अस्मिन्निति अर्थात् जिसमें काव्य प्रयोजन विखरे रहते हैं। आशय यह है कि समवकार का भेदक तत्व है प्रयोजनों की अनेकविधता। इसमें प्रयोजन अनेक होते हैं- अन्य रूपकों की भांति केवल एक प्रयोजन नहीं। नाट्यदर्पण कार मानते हैं कि त्रिवर्ग के जो पूर्व प्रसिद्ध उपाय होते हैं उन्हीं का इसमें समावेश किया जाता है। ये उपाय विखरे हुये भी हो सकते हैं। और परस्पर संबद्ध भी। इसमें विमर्श संन्धि को छोड़कर चार सन्धियां होती हैं। प्रथम अंक में मुखप्रतिमुख ये दो सन्धियां होती हैं शेष दो अंकों में एक एक क्रमशः गर्भ और निर्वहण सन्धि होती है। इसमें सभी तत्व (सन्धियों को छोड़कर) तीन तीन ही दिखलाये जाते हैं। तीन उपद्रव- (१) युद्ध या जलप्लावन जन्य (२) वायु, अग्नि या गजेन्द्रजन्य और (३) नगर के उपरोध से उत्पन्न। नाट्यदर्पणकार जीव, अजीव और उभयजन्य ते तीन उपद्रव मानते हैं। छल भी तीन प्रकार के दिखलाये जाते हैं- वञ्चकों अर्थात् योजना में अपने लोगों का छल कपट, शत्रु द्वारा जाल का फैलाव या दैव वश किसी अन्य ओर से । शृङ्गार तीन प्रकार का होता है- धर्म शृङ्गार, अर्थ शृङ्गार और काम शुङ्गार। धर्म में अधिष्ठित रहते हुये और धार्मिक नियमों का पालन करते हुये यदि अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति हो जाय तो वह धर्म शृङ्गार होता है। जहां अर्थ प्राप्ति के प्रलोभन से काम प्रवृत्ति देखी