५ पूर्वोक्त दोनों फलों में एक घन हो और दूसरा ऋण हो तो दोनों फलों के योग से स्वोदय कलान्तर कला को भाग देने से जो लब्घ घटी हो उससे दृयुति गत वा एष्य होती है ।१६॥ स्वोदय लगन और छ राशियुत प्रस्तुलग्न की अन्वर कला को पूर्वलब्ध घटी से गुण। कर अपनी-अपनी दिनमान घटी से भाग देने से जो फलकला आती है उसको स्वोदयलग्न में जोड़ देना यदि उदयलग्न छ राशियुत अस्लग्न से अल्प हो तब, अधिक हो तो फलला को स्वोदयलग्न में ऊन करना तब समझोतोय युति में समलिप्तिक ग्रहोदय होते हैं । यदि वे दोनों ग्रह रात्रि में इष्टलग्न से न्यून हो, छ राशियुत इष्टलग्न से अधिक हो तो ने दर्शन योग्य होते हैं इति ॥१७.१८ ॥ उपपत्ति | पूर्व क्षितिज में जब ग्रह बम्व रहता है तत्र क्षितिजवृत्त में रन्तिवृत्त का व प्रदेश लगा रहता हैं वही उदय लग्न है ताकालिक ग्रह स्थान-शर आदि के द्वारा उसका (उदय- लग्न) ज्ञान होता है, आचार्य ने कदम्ब प्रोतीय युति कालिक ही स्थानशर आदि को स्वल्पान्तर से ग्रह बिम्बोदय कालिक स्वीकार कर उदयलग्न का साधन किया हैं, और पश्चिम क्षितिज में प्रह्र बिम्ब के रहने पर भी उन्हीं शरादि को लेकर अस्त लग्न (पश्चिम क्षितिज में ग्रह बिम्ब के रहने से पश्चिम क्षितिज में क्रान्तिवृत्त का जो प्रदेश लगा रहता है) का साधन किया , उसमें छ: राशि जोड़ने से ग्रह बिम्बास्त काल में पूर्व क्षितिज में लग्न होता है, उदय लग्न में प्रह- बिम्ब का उदय होता है, छ: राशि युत अस्तलग्न में अस्त होता है, उन दोनों के अन्तर में स्वदेशोदय से "ऊनस्य भोग्योऽधिकमुक्तयुतो मध्योदयाढय:" इससे, जो घटिकायें होती हैं वे प्रहदिनमान घटिका होते हैं, उतने काल तक क्षिति के ऊर ग्रह बिम्ब भ्रमख करा.है इसलिए ग्रह दिनमान नाम रखना ठीक ही हैं। सद्धान्त शेखर में "कॅमेण सङ्कलिंशियो विधाय साध्ये पृथक् खलु तयोरुदयास्तलग्ने’ इत्यादि सं० उपपत्ति में लिखित औ पं श्लोक मी उपपन्न होता है. जिसका उदयलग्न ऊन रहता है वह ह पहले प्रस्त होता है जिसका उदय लग्न अधिक रहता है वह पछे वदित होता है । तथा बिसका अस्तलन इन रहता है वह प्रह पहले अस्त होता है। जिसका अधिक रहता है वह पीछे ग्रस्त होता है। जिस प्रहबिम्ब का द्वितीय प्रहबिम्ब की अपेक्षा पहले उदग्र होता है और पहले ही प्रस्त होता है उसके आगे योग की सम्भावना होती है, जिस प्रह का बदय अन्य ग्रह से पहले होता है भर अस्त पीछे होता है वह ग्रह योग कर प्रागे चले जाते हैं इसलिए योग गत होता है. सिद्धान्त- शेखर में ‘प्रह्योरुदयास्यलग्नयोरूनं यच्च निधास्त सम्भकम्" इत्यादि सं• ठपपति में लिखित श्लोक से श्रीपति ने भी आचार्योंक्त युति के गतेष्यत्व-प्रतिदिन के अनुरूप ही प्रतिपादन किया है ।
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