चन्द्रशृङ्गोत्रत्यविकारः ४८६ ग्रान्तरं कोटिः” इति प्रकारान्तरं कथितम् तस्मात् करण( भास्करः ‘तत् क्षेत्र ब्रह्मगुप्तेन रवीन्द्वोरन्तरध्रज्यां द्विगुणां कर्ण प्रकल्प्य तद्भुजवर्गान्तन्पदं कोटिरिति यत् श्यस्त्रं प्रकल्पितं तत् तिरश्त्रोनं जातम् । नहि द्रष्टुदृ ष्टिसंमुखमादर्शवत्’ सिद्धान्तशेखरे श्रीपतिनाप्ये ‘‘समान्यककुभोस्तयोविवरयोगतः स्याद् भुजो दिगस्य च यतो रवेर्भवति शीतगुः स स्फुटः । स्वदृष्टिगुणवनीतः स्वभुजवर्गहीनात् पदे समेतरकपालयोर्वियुतसंयुते ह्यादिमः । दृश्यशङ्कविवरं शशीनयोः स्यात् परो युतिरदृश्यदृश्ययोः । मूलमद्यपरवगंयोगजं विद्धि कोटिमिह पूर्वपश्चिमाम्। बाहुकोटिकृतियोगतः पदं स्याच्छ तिस्तदुभया ग्रसङ्गिनी । श्रादिमान्यपदयोः स्थिते शशिन्यर्कवर्जिततनावयं विधिः ।” भिराचायक्तानुरूपमेव सर्वमुक्तम् । ब्रह्मगुप्तभा स्करादीनां शृङ्गोन्नतिसाधनं न समीचीनमितिसिद्धान्ततत्तवविवेके’ कमलाकरेण बहुप्रतिपादितम् । शृङ्गोन्नतिविचारः शुक्लाङ्गुलाधीनः परं शुक्लाङ्गुलसाधनं कमलाकरस्यापि समीचीनं नास्त्यतस्तस्यच्छुङ्गोन्नतिसाधनमपि न वास्तवमतो वस्तवाथ म.म. पण्डितश्रोसुधाकरद्विवेदिनिमितं ‘वास्तवचन्द्रशृङ्गोन्नतिसाधनम्’ पुस्तकं द्रष्टव्यमिति -८ -६।। अब भृङ्गोन्नति के लिये उपयुक्त स्पष्टभुज कोटि कण के साधन को कहते हैं हि• भा– पृथक् स्थित रविभुज और चन्द्रभुज का एक दिशा में अन्तर और भिन्न दिशा में योग करने से स्पष्टभुज होता है । रवि से जिम दिशा में चन्द्र रहता है वह स्पष्ट भुज की दिशा है, अपनी-अपनी दृग्ज्या के वर्ग में अपने भुजवरों को घटाकर मूल लेने से रवि और चन्द्र बी कोटि होती हैं। एक कपाल स्थित रवि और चन्द्र की कोटियों का अन्तर करने से तथा भिन्न कपालस्थित रवि और चन्द्र की कोटियों का योग करने से आद्य संज्ञक होता है । यदि रवि और चन्द्र में एक क्षितिज से ऊपर हो तो दोनों का दृक् शङ्कु को अन्तर अन्य संज्ञक होता है । यदि एक क्षितिज से ऊपर और दूसरा क्षितिज से नीचे हो तो अधस्थित का अदृश्य शङ्कु, ऊध्वं स्थित का हसू शङ्कु होता है इसलिये इन दोनों के योग से अन्य संज्ञक होता है । प्राद्य और अन्य का वगंयोग मूल पूर्वसाबित भुज से पूर्वापर कोटि होती है । भुज और कोटि का वगंयोग मूल तिर्यक् कथं होता है । इस कश्यं के अग्न में चन्द्र बिम्ब केन्द्र होता है इति ।।७-८- उपपत्ति यहां एक गोल में रवि और चन्द्र को मान कर उन दोनों के बिम्बान्तर सूत्र रू कणं का साधन करते हैं । रवि केन्द्र से चन्द्र शङ्कु के ऊपर लम्ब करने से सम्बमूल से रवि केन्द्रपर्यन्त प्रन्यसंज्ञक है । लम्बमूल से पूर्वापर रेखा को समानान्तर रेखा करना उस के ऊपर रविंकेन्द्र से जो द्वितीय लम्ब होता है उसके मूल से प्रथम लम्ब (पूर्वलम्ब) के मूल पर्यन्त आद्य संज्ञक हैं। आद्य और अन्य का वगंयोगमूल द्वितीय लम्बमूल से चन्द्रबिम्ब सैन्पर्यन्त रेखा दिंतीयलम्ब के ऊपर लम्बरूप (र १ अच्याय युक्ति से) होती है । मौर
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