४३६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते का होता है, इस तरह स्थित्यर्धे युक्त तथ्यन्त से स्फुट मोक्षकाल होता है, उस स्फुट प्रल स्फुट मोक्षकाल का तथा स्पष्ट दर्शान्त काल का अन्तर स्पर्शाक और मौक्षिक स्पद थत्यवं होते हैं, एवं जैसे स्थित्यर्ध से स्पष्ट स्थित्यध साधन किये गये हैं उसी तरह प्रसकृत् कर्म से अपने विमर्दार्ध | से स्पष्ट विमर्दधे साघन करना चाहिये, अर्थात् पूर्ववत् मसकृत् कर्म से स्फुट संमीलन काल और स्फुट उन्मीलन काल का साधन कर उनके और मध्यकाल के अन्तर के बराबर स्पष्ट विमद्धं द्वय समझना चाहिये। यहां आचार्यों ने पहले मध्यकाल लम्बन ही को स्थूल से स्पर्धे काल में और मोक्षकाल में स्वीकार किया है उससे असकृत् कर्म में कोई हानि नहीं हैं ॥१६-१७ उपपत्ति पहले पूर्वकपाल में विचार करते हैं । गर्भय दर्शान्त से पूर्व पृष्ठीय दर्शान्त के होने के कारण स्वतः गर्भय दर्शान्त से पहले पृष्ठीय स्पर्शकाल होता हैं पृष्ठाभिप्रायिक सशैकाल में पृष्ठाभिप्रायिक स्थित्यंधं कला और लम्बनान्तर कला के योग तुल्य गर्भा- भिप्रायिक रविचन्द्रान्तर कला देती है, क्योंकि स्पर्शकाल में सूर्यस्थान से चन्द्रस्थान पश्चिम दिशा ही में होता है, गर्भाभिमायिक रविस्थान से पृष्ठाभिप्रायिक रविस्थान पूर्वं दिशा में होता है, चन्द्र का भी उसी तरह होता है, पृष्ठाभिप्रायिक रविकेन्द्रगतकदम्बप्रोतवृत्त और चन्द्र केन्द्रगत कदम्बप्रोतवृत्त की अन्तर कला कान्तिवृत्त में स्थित्यर्धकला है, अतः स्थित्ययं कल में चन्द्रलम्बन कला को जोड़ने से गर्भाभिप्रायिक चन्द्रस्थान से पृष्ठाभि प्रायिक एरविस्थान पर्यन्त ऋन्तिवृत्तयकला =स्थिईक कचंलेक, इसमें रविलम्बनकला को हीन करने से गर्भाभिप्रायिक रविचन्द्रान्तरकला=स्थिक +खंलंक--रल के, जब रविलम्बन कला से स्थित्यर्धकला अल्प होगी तब रविलम्बन कला में स्थित्यर्ध कला को हीन करने से पृष्ठाभिप्रायिक चन्द्रस्थान से गर्भाभिप्रायिक रविस्थान पर्यन्त होता है। उसका स्वरूप = रल क-स्थिरैक, इसको चन्द्रलम्बन कला में होन करने से गर्भाभिप्रायिक रविचन्द्रान्तरकसr= चंलक-(.रल क-स्थि ३ क ) = चंल क—रल क+स्थिई क== स्थिरैक+-लम्बनान्तरक इसको घट्यात्मक करने के लिये अनुपात करते हैं ६०xगर्भयरविचन्द्रान्त रक_६० (स्थि2ऊ+लम्बनान्तक) ६० स्थिक रविचन्द्रगत्यन्तरक गत्यन्तरक अम्बनातरक =-स्थि<च+लम्बुनान्तरव, इतनी घटी करके गर्भीय दर्शान्त से पूर्व है यह सिद्ध हुआ । इसको गर्भाय दर्शान्त में घटाने के तो है । इवलम्बमान्तरष)=गर्भायदध-स्थिरैव--सम्बनान्तरध | में पृष्ठाभिप्रायिक स्पकाल में गर्मीय इन्च अटी में
पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/४५३
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