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पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः भागः २.djvu/७०

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मध्यमधिकारः ५३ के रहने से पूणन काल में बितरों का राज्यधं सिद्ध होता है । अब पितरों का उदयकाल अर अस्सल कहां कहां होता है इसके लिए विचार करते हैं । भूकेन्द्र स चन्द्रकेन्द्रगत रेखा चन्द्रपृष्ठ में जहां लगती है उस बिन्दु में परिणत चन्द्र है और वही पितरों का कर्व खस्वस्तिक भी है । पितृ वस्त्रस्सिक से नवत्यंश ठप्रसार्ध से जो वृत्त होता है वह पिनरों व क्षितिजवृत्त है, उस में रवि के रहने पर परिणत चन्द्र और उस रवि में गये हुए वृत्त करते हैं उसका नाम सिनवृत्त है । परिण । चन्द्रोपरिंग कदम्ब्रवृत्त करने से सिवृत्त कदम्बप्रोतवृत्त और कनवृत्त के चपों से एक चीय जात्र त्रिभुज बनता है, जिस मे सितवृत्तीय त्रय (fर्जतवृत्तीय रविचन्द्र शरांश) कर्ण है, क्रान्निवृत्तीयचाष (स्थानीय रवि चन्द्रकान्तरांश) कटि है, व दम्बश्रोतवृत्तीय चाप श र भुज है. इस चापीयजाय त्रिभुज में सितवृत्तीय रवि चन्द्रान्तरांश कर्ण वष=४० इसलिए गोली भरेखागणित की युक्ति से कान्क्षिवृत्तीय रवि चन्द्रान्त रश को टिचप भी नवयंश के बराबर होग, अत: पितरों के उदय और अस्त समय में सर्वदा रवि औौर चन्द्र का अन्तर नवत्यंश के बराबर होगा. क्योंकि परिणत चन्द्रोपरिगत वदम्वोतवृत्त और क्रन्तिवृत्त का सम्पात बिन्दु चन्द्रस्थान है । इसलिए कृष्ण पक्ष के साढ़े सप्तमी में पितरों के उदय और शुक्ल पक्ष के साढ़े सप्तमी में अस्त समझना चाहिए । सिद्धाः शिरोमणि में भास्कराचार्य कृष्णे रविः पक्षदलेऽभ्युदेति शुक्लेऽस्तमेत्यथैत एब सिढम्’ इससे यही बात कहते हैं, परन्तु भास्करकथिः पितरों के उदयकाल और अस्तकाल का खण्डन म० म० पण्डित सुधाकर द्विवेदी ने किया है । जैसे भूगेन्द्र से चन्दकन्द्रगत रेखा चन्द्रपृष्ठ में जहां लगी है उस बिन्दु से चन्द्रगर्भक्षितिज धरातल के समानान्तर करने से एक त्रिभुज बनता है. भूकेंद्र से चन्द्रपृष्ठपर्यन्त चन्द्र आसध्युत चन्द्र वर्ण कोटि प्रथमभुज । उदय और अस्तसमय में रबिकेन्द्र सर्वदा पृष्ठ क्षितिज ही में रहते हैं इसलिए वहाँ के रविवर्ण कणं द्वितीयभुज, पृष्ठक्षितिज धरातल में तृ यमुं न, इन कोटि- णं धुनों से उत्रन जात्यत्रिभुज में अनुपात करते हैं यदि रविकर्ण मे त्रिज्या पाते हैं तो चन्द्रमासर्धयुत चन्द्रकर्ण में क्या प्रजायगी रविजेन्द्र लग्न त्रि x (चन्द्रकर्ण +चन्द्रव्या ३ कोणधाः इसके चाप=चा, नवत्यंश में घटाने से र्वकं लगभ कोण प्रमाण अर्थाउ सिवृत्तोय रवि चन्द्रासरांश=६०. -चा, हुप्र! तब ‘भक्ता- व्योंविधोलंब यमकुभि: इत्यदि से पितरों के उदय हलिक गत तिथिप्रम:ण ६ ० - इसको देखने से स्त्रष्ट है कि कृष्ण पक्ष की १२ सrड़े सत में पितरों का उदयकाल नहीं होता है । किन्तु साढ़े सप्तमी में - इतना घटने से जो होता है उसमें उदयकल सिद्ध हुआं, इसी तरह शुक्ल पक्ष की १२ साढ़े सप्तमी में उनका प्रस्तकाल भी नहीं होता है अत: भास्करोक्त ‘कृष्णे रविः पक्षदलेऽयुदेति' इत्यादि ठीक नहीं है; परन्तु म० म० पण्डिक सुधाकर द्विवेदीकृत खण्डन में भी त्रुटि है; उ५ । लिखित खण्डनोपपत्ति में सि वृत्तीय रविचन्द्र.तर पर से 'भक्ताव्यकविधोर्देवा:' इत्यादि से जो थिप्रमाण लाया गया है सो ठीक नहीं है। क्रान्तिवृत्सीय रत्रिचन्द्रन्तर से तिथ्यानयन करना उचित है, इसलिए उ ऊ खण्डन भी दोषयुत है। अत: अब इसका वास्तवानयन प्रकार = च