४६ ब्राह्मस्फुटसिद्धान्ते अथाऽधिमासोपपत्तिः { } अनयोरन्तरम् =७३१।२७" = अथैकसावनदिने चान्द्रमध्यगति:=७९०३५’ रविमध्यग = ५e'८'" १२°११२७ अथ यतः चगरग=१२=१ तिथिस्तस्मात्सावनदिनपूतिकालात् पूर्वमेव चन्द्रदिनतिः सिद्धाऽतः चन्द्रदिसावनदसौरदिन यतः सौरदि =६० ’, यद रविगतिः षष्टिकला भवेत्तदा सौरदिनपूतिः, सावनदन- पूतिरस्ति ५६८एततुल्यरविगतावेवातो दिनसंख्यया सौरदिसं<चान्द्र दिवसम् ततः कचान्द्रमास--कसौरमास= कल्पाधिमासकचांदिन–कसावनदि= कक्षयदिन=कल्पावमदिन एतेन ‘शशिमासाः सूर्यमासोना’ इत्यारभ्य ‘शशिसावन दिवसान्तरमवमानीत्यन्तमुपपद्यते । भास्कराचार्येणापि ‘सौरान्मासादैन्दवः स्याल्लघीयान् यस्मात्तस्मात्संख्यया तेऽधिकाः स्युरित्यादिना तदेव कथ्यत इति ॥२४॥ अब सौरमास चान्द्रमास अधिमास और अवमदिन को कहते हैं। हि .भा.-कल्प पठित रविभगण ४३२००००००० कल्पसौरवर्ष होते हैं अर्थात् कल्प में जितने रविभगण हैं उतने ही कल्पसौरवर्ष होते , कल्पसौरवर्ष को बारह से गुणने से कल्पसौरमास होते हैं, कल्पचन्द्रभगण और कल्परविभगण का अन्तर कल्प चान्द्रमास होते हैं। कल्पचान्द्रमास में कल्प सौरमास को घटाने से कल्पाधिमास होता है । कल्पचन्द्रमास को तीस से गुणने से कल्पचन्द्रदिन होते हैं, कल्पचान्द्रदिन और कल्पकुदिन का अन्तर कल्पावमदिन होते हैं । एक तिथि एकचान्द्रदिन है।२३-२४॥ इन सब की उपपत्ति सृष्ट्यादि काल में नाडीवृत्त और क्रान्तिवृत्त के सम्पात (स्थिरमेषादि) में रवि थे । उसके बाद रवि भ्रमण करते हुए फिर जब उसी बिन्दु में आते हैं तब उनकी एक भगण ( द्वादशराशिभोग ) पूति होती है लेकिन इतने समय में वह सम्पात भी कुछ पूर्वं स्थान से चलेगा, इसलिए पूर्वकथित रवि के एकभगणभोग कालतुल्य सौरवर्षे में सम्पात चलन (अयनगति) जोड़ने से वांस्तव सायन सौरवर्ष होगा. परन्तु यहां आचर्यं निरयण सौरवर्ष ही लेते हैं, कल्पसौरवर्षे भी निरयण ही कहते हैं । कल्पसौरवर्ष *१२=कल्पसौरमास ‘इससे (रविभगणरव्यब्दाः) यह आचार्यकथन निरयणसौरवर्षपरक समझना चाहिएभास्कराचार्यं भी ‘रवेश्वभोगोऽकंव-प्रदिष्टम्’ इससे जो एक रविभगण भोगकाल को एक सौरवर्ष कहते हैं वह भी निरयण सौरवर्ष ही सिद्ध होता है, सब आचार्य यहां अयनगति को शून्य मानते हैं जो ठीक नहीं है । चान्द्रमासकी उपपत्ति अमान्तकाल में रवि और चन्द्र एक ही स्थान में रहते हैं.उसी का नाम दर्शान्त
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