३२ चन्द्रादित्यौ सनक्षत्रौ सग्रहौ सह वायुना । लोकालोकं च यत्किंचिच्चाण्डे तस्मिन्समर्पितम् ॥ अद्भिर्दशगुणभिस्तु बाह्यतोऽण्डं समावृतम् । आपो दशगुण होवं तेजसा बाह्यतो वृताः ॥८४ तेजो दशगुणेनैव बाह्यतो वायुनाऽवृतम् । “वायुर्दशगुणेनैव बाह्यतो नभसाऽऽवृतः ॥८५ आकाशेन वृतो वायुः खं च भूतादिनाऽऽवृतम् । भूतादिर्महता चापि अव्यक्तेन वृतो महन् ॥८६ । एतैरावरणैरण्डं सप्तभिः प्राकृतैर्युतम् । एताभ्राऽऽवृत्य चान्योन्यमष्टौ प्रकृतयः स्थिताः ।८७ प्रसर्गकाले स्थित्वा च ग्रसन्त्येताः परस्परम् । एवं परस्परोत्पन्ना धारयन्ति परस्परम् |८६ आधाराधेयभावेन विकारश्च विकारिषु । अव्यक्तं क्षेत्रमुद्दिष्टं ब्रह्मा क्षेत्रज्ञ उच्यते ॥८६ इत्येष प्राकृतः सर्गः क्षेत्रज्ञाधिष्ठितस्तु । अबुद्धिपूर्वं प्रागासीत्प्रादुर्भूता तडिद्यथा ।€० स' एतद्धिरण्यगर्भस्य जन्म यो वेद तत्त्वतः। आयुधमन्कीर्तिमान्धन्यः प्रजावांश्च भवत्युत ।€१ निवृत्तिकामोऽपि नरः शुद्धात्मा लभते गतिम् । पुराणश्रवणान्नित्यं सुखं च ममाप्नुयात् ।।६२ इति महापुराणे वायुप्रोक्ते प्रक्रियापादे सृष्टिप्रकरणकथनं नाम चतुर्थोऽध्यायः १४॥ या आलोक है सव उस अण्ड में समर्पित है । वह अण्ड दशगुने जल से बाहर से घिरा हुआ है । और इसी प्रकार दसगुना जल बाहर से तेज से आवृत है ।८३-८४॥ दसगुने वयु से तेज बाहर से आच्छादित है । वायु दसगुने आकाश से और आकाश से वायु ढका है । स्वयं आकाश भूतादि अहङ्कार से ढका है । फिर भूतादि । महत्तत्व से तथा महत्तत्व अव्यक्त से परिवेष्टित हैं । इन सात प्राकृत आवरणों से अण्ड आच्छादित है । ये आठ प्रकृतियाँ एक दूसरे को आच्छादित करके रहती हैं । ( सृष्टिकाल मे ) स्थित रहकर फिर प्रलयकाल में एक दूसरे का ग्रास कर जाती हैं । इस प्रकार एक दूसरे से उत्पन्न होती तथा एक दूसरी को धारण करती हैं ।८५-८८ आधार और आधेय भाव से विकृति अपनी प्रकृति में रहती है । अव्यक्त को क्षेत्र तथा ब्रह्म को क्षेत्रज्ञ से अधिष्ठित प्राकृत सर्ग है । यह पहले अबुद्धि पूर्वक हुआ जैसे तड़ित उत्पन्न होती है । हिरण्यगर्भ की उत्पत्ति को जो ठीक ठीक जानता है उसकी आयु, कीत्ति, धन और प्रजा सभी बढ़ती है । शुद्धात्मा निवृत्ति का इच्छुक मनुष्य भी पुराण सुनने से गति पा जाता है एवं उसे सुख और क्षेम मिलता है ८९९२ श्रीवायुमहापुराण के प्रक्रियापाद में सृष्टिप्रकरणकथन नामक चतुर्थ अध्याय समाप्त ।४।।
- इदमघं ड. पुस्तके नास्ति।