यन्त्राध्यायः १४६३ यष्टिमूलादधिको लम्बः कोटि: । अघिकलम्वगृहादिमूलयोरन्तरं भुजः। यष्टिमूलाद्गृहादिमूलपर्यन्तं कर्णाः । एतैः कोटिभुजकणैरुत्पन्नमेकं त्रिभुजम् । लम्वौच्च्यान्तरं कोटिः। लम्बमूलयोरन्तरं भुजः यष्टिः कर्णः। एतैः कोटिभुज । कणैरुत्पन्नं द्वितीयं त्रिभुजम । त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातो यदि लम्बौच्च्यान्तरकोटौ लम्बमूलान्तरं भुजो लभ्यते तदा ऽधिकलम्बकोट कि समागच्छति, अधिकलम्ब गृहादिमूलयोरन्तरभूमिस्तत्स्वरूपम्= लम्बमूलान्तर x अघिकलम्ब माचार्योक्तमिति ।३४।। अव गृहादि मूलवेध से भूमिज्ञान कहते हैं । हि. भा-इष्टयष्टि की मूलस्थ दृष्टि से यष्टघण्गत गृहादि के मूल को वध करन । यष्टि के मूल और अग्र से लम्ब करना, इन दोनों लम्बमूलान्तर को अधिक लम्ब से गुणाकर लम्बौच्च्यान्तर से भाग देने से भूमि होती है ।।३४।। उपपत्ति । यष्टि के मूल से अधिक लम्बकोटि । अधिकलम्ब ग्रहादि मूल के अन्तरभुज । यष्टि के मूल से ग्रहादिमूलपर्यन्त कथं इन कोटि भुज कर्णा से उत्पन्न एक त्रिभुज । तथा लम्बौक्या न्तर कोटि, लम्बमूलान्तरभुज । यष्टि कथं इन कोटिभुज कणों से उत्पन्न द्वितीय त्रिभुज इन दोनों त्रिभुजों के सजातीयत्व से अनुपात करते हैं यदि लम्बौच्च्यान्तर कोटि में लम्बमू लान्तर भुज पाते हैं तो अधिक लम्बकोटि में क्या इस अनुपात से अधिकलम्ब गृहादिं मूल का लम्बम्लान्तर. अघिकलम्ब अन्तर भूमि प्रमाण आता है उसका स्वरूपः = आ -इससे आचायों लम्बच्यान्तर क्त उपपन्न हुआ इति ॥३४॥ इदानीं भूमिज्ञाने वंशौच्च्यज्ञानमाह । लब्धोनो इग्लम्बो दृग्लम्बादग्रलम्बके हीने । अधिकेऽघिको गृहौच्च्यं तलाग्रके विद्धया दृष्ट्या ३५॥ सु० भा०-इष्टप्रमाणयष्टेरॉलस्थदृष्ट्या गृहाद्यग्र विध्येत् । यष्टिमूलाग्रा स्यां भुवि लम्ब कार्यो। मूलाल्लम्बो दृग्लम्ब इत्युच्यते । भूर्लम्बौच्च्ययोरन्तरेण गुणिता लम्बनिपातयोरन्तरेण भक्ता लब्धेन दृग्लम्बो हीनः कार्यो दृग्लम्बादग्र
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