पृष्ठम्:ब्राह्मस्फुटसिद्धान्तः (भागः ४).djvu/३७२

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यन्त्राध्यायः १४६१ तदा कनप्र, मरष त्रिभुजयोः साजात्यादनुपातेन यx झ = गृहाद्यौच्च्यम् य x तथा पशद्वि, मरद्वि त्रिभुजयोः सजातीयत्वादनुपातः = य (+अपति), -हाद्यौच्च्यम् । अतः यX _ = य (+अपसुति) पक्ष (य) भक्तौ तदा = भू+अपस्मृति छेदगमेन भूx)==(+अपसूति) =ह.भ्+दृअपसृति, समशोचनेन भू.ई-ह.भू= (इ-ड)=इनपचति पक्षौ ३–दृ भक्तौ तदाहअE अपमृति = भू एवमेव -ई.अपस्मृति =भू, एतेनोपपन्नं सूत्र- दृ-द् दृ-दृ मिति ॥३३॥ अव प्रकारान्तर से गृहादि की ऊचाई का आनयन कहते हैं। हि. भा.-सम घरातल में ऊध्र्वाघर लम्बरूप यष्टि स्थापन पर करना, समधरातल में दृष्टि को उस तरह रखना चाहिये जिस से दृष्टि, यष्टि का अग्र और गृहादि का अग्र एक ही सरल रेखा में हो । इस तरह करने से दृष्टि और यष्टि के मूल का अन्तर यहां दृष्टि कहलाती है । पुन: उसी यष्टि को उसी सरल रेखा में पूर्ववत् ऊध्र्वाधर-लस्वरूप स्थापन करना। उसके वश से द्वितीय वेध में भी पूर्ववव ही दृष्टिस्थान निश्चित करना चाहिये । तथा दृष्टि और यष्टि मूल का अन्तर जानना चाहिये । द्वितीय दृष्टि भी ज्ञातव्य है, दोनों दृष्टि स्थानों का अन्तर यह अपसृति कथित है अपति को अपनी दृष्टि से गुणाकर दोनों दृष्टि के अन्तर से भाग देने से अपनी भू (भूमि) होती है । भूमि को शलाका (थष्टि) से गुणाकर अपनी दृष्टि से भाग देने से ग्रहादि की ऊंचाई होती है इति ।।३३।। उपपत्ति । यहां संस्कृतोपपत्ति में लिखित (१) क्षेत्र को देखिये । कन=पश= यष्टि । नम्र =प्रथमदृष्टि=टु । शद्वि=द्वितीयदृष्टि=ट्टी । भर=गृहादि की ऊंचाई । प्रद्वि=अपसति । प्रर=प्रथम भूमि=भ् । द्विर=द्वितीयभूमि==भू=भू+अपछति । तब कनभ, मरप दोनों