आत्मा में हीं है, क्योंकि देवदत्त'जानता है. इच्छा करता है, . द्वेष काता है, इत्यादि व्यवहार में देवदत्त शब्द का मुख्य । विषय-आत्मविशेप ही है।
संदिग्धस्तूपचार ,॥-१३:॥
संदिग्ध है उपचार तो
व्या- पूर्वपक्षी) जघ 'देवदत्त' वा 'मैं’ शब्द का शागरिं: और आत्मा.दोनों में प्रयाग होता है, तो यह संदिध है; कि आत्मा में मुख्य प्रयोग है. और शरीर में उपचार छै, वा शरीर:- में मुख्य है और आत्मा में उपचार है । विनिगमना के अभाव से एक निर्णय, नहीं दृो सकता है ।
अहमिति प्रत्यगात्मनि भावात् परत्राभावा दर्थान्तर प्रत्यक्षः ॥ १४ ॥ : . .
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अहं' यह (प्रतीति) अन्तरात्मा में होने से और दूसरे में न होने से भिन्न, वस्तु के प्रत्यक्ष वाली है।
व्या- 'मैं इस.प्रतीति से शरीर का प्रत्यक्ष नहीं किन्तु ५ शीर स:भिन्न जो आत्मा है. उस का प्रत्यक्ष होता है, क्योंकि “मैं? यह प्रतीति अन्तरात्मा में होती है. दूसरे में नहीं होती । यदि “मैं' का विषय शरीरोता. तो मैं का ज्ञान बाह्य इन्द्रियों से होता, पर 'मैं ' का ज्ञान वाह्य इन्द्रियों से नहीं: मनसे-होता. है, इी लिएदूसरे के िवषय में 'मैंयह झाननहीं होता। सो मैं का विषय जव' आत्मा है, तो 'मैं जानता हूँ? इच्छा- कता हूं.. यत्र करता हूं, द्वेष करता हूं, मैं सुखी हूं, मैं दुःीं हूं, इत्यादि मयोगं मुख्य हैं, और 'मैं देवदत्त' इत्यादि प्रतीतिसे देवदत्त