पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/३७

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प्रकरणं १ श्लो०


मथ न भवेदुबंध मोचाव्यवस्था निःसौख्यं नापि

मोक्षस्पृहयतिमतिमान् कापिलं तेन दुष्टम् ।१७

अचेतन प्रवानसे जगत् की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यादि उसकी प्रवृत्ति स्वभाव से मानी जाय तो नित्य सृष्टि होगी और यदि उसका सहायक श्रदृष्ट माना जाय तो वह पूर्व हैं ही नहीं । फिर इसमें बंधन हेतु रहित होगा और बंधमोक्ष की व्यवस्था नहीं होगी । दूसरे, मतिमान पुरुष सुखरहित मोक्ष को भी नहीं चाहता इस कारण से कपिल का मत दूषित है ॥१७॥ (प्रधानम्) सत्व, रज और तम की साम्यावस्था रूप प्रधान (चलितुम्) पुरुष के भोग के लिये सृष्टि करने में प्रवृत्त होने में ( न प्रभवति) समर्थ नहीं है । कारण यह कि (अचैतन्यात्) प्रधान जड़ स्वरूप है। (वेत्) यदि (तत्) सो प्रधान ( निसर्ग क्रियम्) स्वभाविक ही प्रवृत्ति स्वभाव वाला हो, (नित्य' सर्ग प्रसंग:) तो सर्वदा काल सृष्टि ही होती रहेगी, प्रलय कभी भी नहीं होगा और यदि सांख्यवादी ऐसा कहें कि जैसे जड़ स्वभाव वाले जलादिकों की प्रवृत्ति में निम्न देश आदिक हेतु हैं, तैसे ही जड़ प्रधान की प्रवृत्तिमें भी अदृष्ट ही कारण है तो यह भी उन सांख्यवादियोंका कहना संभव नहीं, (यतः नियतिरपि ) क्योंकि वह नियति या अदृष्ट (सर्ग पूर्वा ) सर्ग होने के बाद ही हो सकता है । भाव यह है, पहिले सृष्टिसिद्ध होजाय तो पीछे शरीर की शुभाशुभ प्रवृत्ति क्रिया से उत्पन्न हुआा शुभाशुभ अदृष्ट भी प्रधान की प्रवृत्ति में निमित्त कारण हो सकता है परंतु अभी