पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/३६

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स्वाराज्य सिद्धिः

सकल जगत् रूप कार्य की (निर्मितौ ) उत्पत्ति करनेमें (प्रख्या पितम्) हेतु रूप से जिसका, प्रतिपादन किया है (तत् प्रधानम्) वह प्रधान उन जगत् रूप कायकी उत्पत्ति करने में (न क्षमम्) समर्थ नहीं है। वैसे ही (तार्किकैः) केवल श्रुति विरुद्ध अनिष्ट प्राप्त करने वाले तक का आश्रय करते हुए पातंजल, गौतम काणाद, तांत्रिक, पाशुपत श्रादिकों ने(उक्तः हेतु) कहा हुआकेवल निमित्त कारण रूप (ईश्वरोपि) ईश्वर भी (एतादृशे अर्थे) उक्त सकल कार्य की उत्पत्ति करण रूप अर्थ में (न प्रभवति ) समर्थ नहीं हैं। वैसे ही (काणाद् बौद्ध क्षपणक भणित: अणु ') काणाद् ऋषि के शिष्य, बुद्ध के शिष्य, आर्हन्त जैन तथा कापालिक आदि द्वारा प्रतिपादित परमाणु भी जगत् की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं है। इसी प्रकार (कैश्चिदुक्तम्) किसी बुद्ध के शिष्य माध्यमिक शून्य वादी नास्तिकों ने कहा जो (निःसाक्षि शून्य अपि) असाक्षिक निष्प्रमाणिक शून्य है वह भी जगत् की उत्पत्ति करने में समर्थ नहीं है। (तस्मात्) सर्व वादियों के कल्पित कारणों के प्रयोग्य होने से (आस्माकम्) हम वेदांताचायों के मतानुसार (श्रुति गदित पर ब्रह्म एव ) श्रुतियों में स्पष्ट रूप से कहा हुश्रा परब्रह्म ही माया बल से ( सिद्धं निदानम्) जगत् की उत्पत्ति श्रादिकों का अभिन्न निमित्त उपादान कारण है यह सिद्ध हुआ ॥ १६ ॥

आगे दो श्लोकों से सांख्य मत का निरसन करते हैं

नाचेतन्यात्प्रधानं प्रभवति चलितु तन्निसर्ग

क्रियं चेन्नित्यं सर्ग प्रसंगो नियतिरपि यत

सर्ग पूर्वा न पूर्वम् ! बंधो निर्हेतुकः स्यात्कथ