पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/३१

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प्रकरणं १ श्लो० 14

श्रौर (अपरे) वेदांत शास्त्र के मानने वाले श्राचार्य उस श्रात्मा को (आभ्यंतरम्) अन्नमय प्राणमय मनोमय विज्ञानमध ऋश्रानन्दमय इन पांच कोशों के अन्तस्थित (परम ज्योति: ) सर्व प्रकाशों से उत्कृष्ट स्वयं प्रकाश रूप कहते हैं । (एवं सति) इस उक्त प्रकार से मत भेदों के होने पर (विविषिोः ) जिज्ञासु को (श्रुवि युक्तिभिः मुहुः) श्रुति और युक्तियों की सहायता से पुनः पुनः साक्षात्कार पर्यन्त (विचारः युक्तः) विचार ही करना योग्य है।॥१३॥

अब विचारांग जीव-विवाद के अन्तर विचारांग भूत ईश्वर के विषय में भी अनेक मत दिखलाये जाते हैं।

स्रग्धरा छन्द

एवं विश्वस्य हेतु प्रकृति मभिदधुः केपि केचित

पराएणूनीशेनाधिष्टितांस्तान्कतिचन कतिचिन्नश्वर

ज्ञानमेव । अन्ये शून्यं स्वभावं कतिवन समयं

केपि केवियदृच्छां कमन्ये ब्रह्ममायाशुबलित

मपरे सोपि तस्माद्विमृश्यः ।।१४॥

कोई प्रधान को ही विश्व का हेतु कहते हैं, कोई ईश्वर प्रेरित परमाणु को, कोई क्षणिक विज्ञान को, क7३ शून्य को, कोई स्वमाव को, कोई काल को, कोई इच्छा को, कोई कर्म को तथा कोई माया सहित ब्रह्म को जगत् का कारण कहते हैं। ऐसा भेद होने सें जिज्ञासु को इसका विचार करना चाहिये ॥१४॥