पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२३३

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प्रकरणं 3 श्लो० 1


नहीं है और जिससे वाक् आदि प्रवृत्त होते हैं, जिससे

माण प्रवृत्त होते हैं और जिससे शरीर, इंद्रियां, मन तथा

बुद्धि प्रकाशित होते हैं, वह सत् चैतन्य ही शुद्ध, स्वयं

सिद्ध, अद्वय, अभय और सचिदानंद स्वरूप है ॥९॥

(यत् न ईत्यम्) जो सर्व उपनिषत् प्रसिद्ध सत् आत्मा रूप ब्रह्म चतु आदिक इन्द्रियों द्वारा जानना अशक्य है (अमी येन प्रतिविषयं संधुक्षितार्थः) और यह चतु आदिक, इन्द्रियां जिस चेतन से प्रति विषय सम्यक् प्रकाश पाकर अपने अपने विषय के प्रकाश करने में समर्थ होते हैं, (यत् वाक्गादेः पदं न व्यवहरति ) जो चेतन वाक् आदिक कम इद्रियों का विषय नहीं है, (येन वागादि वर्गः मुहुः), जिस चेतन से पुनः वाक् आदिक कर्म इन्द्रिय प्रवृत्त होते हैं, (येन प्राण:प्रणीतः) जिस चेतन द्वारा प्राण अपने व्यापारमें प्रवृत्त होते हैं तथा (येन चतनु करण मनो बुद्धयः इद्धा:) जिस चैतन्यसे शरीर इद्रिय मन बुद्धि प्रकाशित हुए अनुभव के विषय होते हैं (तत् शुद्ध' स्वेन सिद्ध निरुभयं अभयं बोध सत् सौख्यं आत्मा) वही सत् चेतन,शुद्ध, स्वप्रकाश, अद्वय, अभय और सचिदानंद स्वरूप आत्मा है।॥९॥ जिसका चित्त असंभावना श्रादिक दोषों से प्रसा हुआ है तथा रागद्वेष आदिकों से चंचल है, उसको आत्मलाभ के लिये ‘आत्मा का ध्यान कर्तव्य है, अब इस अर्थ को दिखलाते हैं इत्थं संबोधितस्याप्यनवहितमतेर्यस्य बोधो न

वृत्तः स स्यादूर्योोविचार व्यसन वश मना

१५ स्वा. सि.