पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२३२

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स्वाराज्य सिद्धिः

( विषय श्रबोध दलनाय वा संविदो विषय उपराग जनः नाय ) घट आदिक बाहर के विषयों में स्थित चेतन को श्रावरण करने वाले श्रज्ञान के नाश के अर्थ श्रथवा चेतन का घट आदिकां के साथ संबंध करने के लिये (धियं विषयाकृतित्वं उपनेतु तनोः बहिः विषय अक्षयोग सरणिः दृष्यते ) अन्तःकरण के घट श्रादिक बहिर्विषय की प्राकारता के प्राप्त करने को शरीर से बहिर विषय इन्द्रियसन्निकर्ष रूप मार्ग अवश्य सिद्धांत में अंगी कार किया है परन्तु सर्वातर चैतन्य के प्रत्यक्ष में नहीं ॥८॥ श्रात्मा स्वतः स्फुरण रूप है, इसलिये वह बहिर घटादिक जड़ विषयों के समान इन्द्रिय जन्य वृत्ति की अपेक्षा स्वसिद्धि श्रर्थ नहीं करता, इस तात्पर्य से सिंहावलोकन न्यायसे अब फिर आत्मा का निश्चय कराते हैं।

यन्नेचत्यं चतुरायैः प्रतिविषयममी येन संधु

क्षितार्थाः यद् वागादेः पदं न व्यवहरति मुहु

येन वागादि वर्गः । येन प्राणः प्रणीतस्तनु

करणमनोबुद्धयो येन चेद्धास्तच्छुद्ध स्वेन सिद्ध

निरुभयमभयं बोधसत् सौख्यमात्मा

जो चक्षु आदि से जानने को अशक्य है और चतु आदि जिस चैतन्य से अपने अपने विषय को प्रकाश करने में समर्थ होते हैं, जो वाक् आदि ज्ञानेन्द्रियों का विषय