पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२३१

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प्रकरणं 3 श्लो० 8

हुए चेतन का अंत:करण में स्थित चेतन से श्रभेद् है और वह अभिन्न चेतन स्वयं प्रकाश है। अत: वहां वह फल चेतन की श्रपेक्षा नहीं रखता और घट आदिक विषय तो जड़ होने से स्वप्रकाश के लिये वृत्ति प्रतिफलित चैतन्य की अपेक्षा रखते हैं। इसलिये बहिर विषय के प्रत्यक्ष में इन्द्रियों की परंपरा श्रपेक्षित है परंतु ( वाक्योत्था मोह मात्रं विघटयति चितः स्फूर्तिः अन्या नपेक्षा ) महा वाक्य से उत्पन्न हुई अखंडाकार वृत्तिं चेतन के श्रावरक श्रज्ञानमात्र का नाश करती है और स्फुरण तो स्वरूप होने से स्वतः सिद्ध ही है, वह जड़ घट आदि विषय के सदृश वृत्ति प्रतिफलित चेतन द्वारा नहीं है इसलिये इन्द्रियजन्य वृत्ति की वहां अपेक्षा नहीं है ॥७॥ केवल बाह्य विषयों के ग्रहण में इन्द्रिय और बुद्धि वृत्ति दोनों की आवश्यकता है यह दिखाते हैं मंजुभाषिणी छंद ।

बिषयाप्रबोधदलनाय संविदो विषयोपराग जन

नाय वा धियम् । विषयकृतित्वमुपनेतुमिष्यते

विषयाक्षयोग सरणिस्तनोर्बहिः ।।८।।

घटादिक बाहर के पदार्थ में श्रवच्छिन्न चेतन्य के श्रावरण के नाश के अर्थ अथवा चेतन्य का घटादिक के साथ संबंध जनन के अर्थ बुद्धि को विषय की आकृति को धारण करने के हेतु इंद्रिय मार्ग का अंगीकार किया है ॥८॥