पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२३४

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- - - - - - - - - - - - स्वाराज्य सिद्धि -- -- -- --- --- -- ---



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- --- - - सत्सहायः स्वतश्च । अत्तान् विक्षेप शान्त्ये चपलमपिमनोलालनेवां हठाद्वा रुद्धवा ध्याये दनन्तं परमसुखचिदात्मानमेकं विविक्त ||१०॥ इस प्रकार बोध कराने पर भी यदि अनिश्चित बुद्धि वाले को ज्ञान नहीं होता तब वह ब्रह्मनिष्ठ के संग में अथवा स्वयं वेदान्त वाक्यों का बारंबार विचार करे । चंचलता की निवृत्ति होने पर एकांत देश में टिककर इंद्रियां और मन को प्रेम से अथवा हठ से रोककर परम सुखरूप, एक चित्स्वरूप ओर अनंत श्रात्मा का ध्यान करे ॥१०॥ ( इत्थम्) इस पूर्व उक्त प्रकार से (संबोधितस्यापि यस्य अनवहित मतेः बोधो न वृत्तः) उपदेश करने पर भी जिस पुरुष को संशय आदिकों से आत्म तत्व में अनिश्चित बुद्धि वाला होने से आत्म ज्ञान नहीं सिद्ध हुआ है, (सः) वह पुरुष ( भूयो विचार व्यसन वश मनाः स्यात् सत् सहाय: स्वतश्च ) श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ विद्वानों की सहायता पाकर अथवा कृतश्रवण होने से स्वतः ही अर्थात् अपने आप ही पुनः पुनः मन को वेदांत शास्र के अनुकूल विचार में लगाता रहे अर्थात् विचार का अभ्यास करे । राग द्वेप आदि युक्त पुरुष (विक्षेप शांत्यै ) चंचलता की निवृत्ति के लिये (अक्षान्) इन्द्रियों को (चपलं मन अपि) और चंचल स्वभाव मन को (लालनैः ) शास्त्रानुकूल किंचित्तू अभिलषित अर्थ संपादन रूप लालन से