पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२०९

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प्रकरणं 2 श्लो० 55

तू ही है। ( इदं दृश्यं तु त्वं न) तू यह दृश्यरूप नहीं है ! श्रर्थात् यह दृश्यमान पांच भौतिक शरीर तू नहीं है ॥५४॥ सत् गुरुओं का उपदेश संसारबंधन से छुड़ाने वाला है इस अर्थको ही अब दृष्टांत से स्पष्ट किया जाता ह ।
वीरैरिवासि पुरुषो विपिने विस्पृष्टो रागादि
भिस्तनुषु नद्वविशुद्धदृष्टिः । पान्थेरिवेष
गुरुणासि विमुक्तबंधः सद्ध ब्रह्म तत्त्वमसि याहि
सुखं स्वधाम ।।५।।
जैसे किसी पुरुष को चोरो ने आंखें बांधकर वस्त्रा भूषण रहित करके जंगल में छोड़ा हो और वहां उसे कृपालु पथिक पुरुष श्रांख खोलकर रास्ता बताता है, जिससे वह स्वस्थान को प्राप्त होता है, तैसे राग द्वेषादि चोरों ने तेरी स्वस्वरूप की दृष्टि को बांधकर, निर्मलता आदि का हरण करकेतुझे संसार में छोड़ा है वहां से दृष्टि खोलकर उपदेश देते हैं कि वह सत् ब्रह्म तू ही है, इससे तू स्वस्वम्हप धाम को प्राप्त होगा ॥५५॥ (चौरैः इव पुरुष: विपिने) जैसे अपने निज देश विशेष से दूर देश में लाकर किसी धनी परुष के नेत्र बांध करके उसे घोर वन में चोरों ने छोड़ दिया और उस पुरुष के सर्व भूषणों को हर लिया हो (रागादिभिः नद्धविशुद्धदृष्टिः पुरुषः तनुष विस्पृष्टोऽसि ) वैसै ही राग द्वेष आदिक चोरों नै स्वस्वरूप रूप