पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२०८

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स्वाराज्य सिद्धि

श्वेतकेतु, जैसे पहले पिंडरूप लवण था वैसे उसकोदर्शन स्पर्शन प्रयत्न से भी न जानसका । तब पिता ने कहा कि (अप्सु. प्रलीनंसैन्धवखिल्यं इव अच्णा न पश्यंति) जैसे जलमें संश्लिष्ट हुए अर्थात् विलीन हुए लवण के टुक्ड़े को, तुम्हारी क्या वात महा प्रगल्भ पंडितजन भी नेत्रों द्वारा वा त्वचा से नहीं जान सकते वैसे ही, (यत् हृदि भातम् ) जो सत् ब्रह्म इदय में साक्षी स्वप्रकाशरूप से प्रतीत होता है ( करणै: न पश्यंति ) नेत्र श्रादिक करणों द्वारा उस सत् ब्रह्मा को पंडित जन भी नहीं जान सकते हैं । तब उस सत्त ब्रह्म की उपलब्धि का क्या साधन है ? इस जिज्ञासा की निवृत्ति भी दृष्टांत से ही की जाती है। जब पुत्र नेत्रादिकों से जलमें पूर्ववत् लवण का पिंड देवसका, तब पिता ने कहा कि, हे प्रिय दर्शन, तू श्रब इस जलके ऊपरीभाग से ही जलको लेकर आचमन कर । लब पुत्र ने तैसे ही किया । तब पिता ने पूछा हे पुत्र यह जल कैसा है ? तब पत्र ने कहा खबारी द्वै । तब पिता ने कहा कि श्रब जलके मध्य भागसे जल लेकर श्राचमन कर । तब पुत्रने वैसेही कियां । नब पिता ने पूछा यह जल कैसा है ? तब पुत्र ने कहा कि खारी ी है । नब पिता ने कहा कि श्रब नीचे के भागसे जलको लेकर आचमन कर । पत्र ने वैसे ही किया । पिता ने पूछा यह जल कैसा है ? तब पत्र ने कहा कि खारी ही है तब पिता ने कहा किं ( रमनया इव रसम् ) हेप्रिय दर्शन, जैसे इस जलमें लवण है परंस इस जलस्थ यसको श्रथत् लवण को केवल रसना द्रिय से ही–(विंदंति ) जानते हैं. वैसे ही कारण रूप ब्रह्मात्मा इस शरीरमं ह्री. वतमान हैं । परंतु (गुरु उक्त्या विंदंति ) गुरु के उपदेश द्वारा ही जिस सतृरूप स्वयं प्रकाश श्रात्मा को जानते हैं.(सत् ब्रह्म तत्त्वमसि ) वह सतू रूप झक्षा