पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/२०७

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प्रकरणं 2 श्लो० 5

असत्व है। इससे अद्वैत सत्तृवित् श्रानंद रूप ब्रह्म मैं हूं इस अकार निश्चय कर ॥५२॥ यदि सत् ब्रह्म जगत् का मूल कारण है तो वह प्रतीत क्यों नहीं होता ? यदि वह सत् प्रत्यक्ष के अयोग्य है ऐसा कहा जावेगा तो साधनों की निष्फलता प्राप्त होगी। इस शंका का

  • भी दृष्टांत से ही समाधान किया जाता है

अप्सु प्रलीनमिव सैन्धव खिल्यमदणा पश्यन्ति
ग्रन्न करणेरपि हृद्विभातम्. । विन्दन्ति यद्
सनयेव रसं गुरूक्त्या सदु ब्रह्म तत्त्वमसि दृश्य
मिदं तु न त्वम् ।।५४।।
जल में लीन हुश्रा नमक का टुकड़ा नेत्र । से देखा नहीं जाता, तैसे ही हृदय में प्रकाशमान साक्षी विवेक के अभाव से जाना नहीं जाता। जैसे जल में रहा हुआ नमक रस जिव्ह्या से जाना जाता है ऐसे गुरु के उपदेश द्वारा वह सत्य ब्रह्म तू है और यह दृश्य शरीरादिक तू नहीं है ऐसे जाना जाता है ॥५४॥
तब पिताने कहा कि हे प्रिय दर्शन, इस लवणको जल पूरित घटमें डालो, फिर रात के बाद कल मेरे पास श्राना । तब श्वेतकेतु ने वैसा ही किया । दूसंरे दिन प्रातः काल में अपने पांस प्राप्त हुए श्वेतकेतु से पिता ने कहा कि जो कल दिनमें तुमने इस जलपूरित घटमें लवण" डाला था उसको निकाल लांओं' पुत्र