पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१५४

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१४६ ] स्वाराज्य सिद्धिं
सत्ता हा न होने से यह सर्व जगत् कारणभूत सत् ब्रह्म स्वरूप ही है । (पृथक् मृषा) कारणीभूत ब्रह्म से पृथक् मिथ्या है। मिथ्याभूत वस्तु अपने अधिष्टानरूप कारण से भिन्न नहीं होती। इस बात को स्पष्ट करने के लिये मिथ्या का दृष्टांत दिया जाता है । (कल्पितंहि पृथक् न सत् मृग तृष्णिकोदकवत् मरोः) जैसे सूर्य संतप्त निरुदक मरुभूमि से मृगतृष्णा का जल पृथक् नहीं है तैसे ही, कल्पित जगत् भी सत् ब्रह्म से पृथक् नहीं है किंतु सत् ब्रह्म रूप ही है, कल्पित की अधिष्ठान से पृथक सत्ता कन्याक नहीं होती । ( तत्) इसलिये अर्थात् कल्पित वस्तु के अधिष्ठान स्वरूप होने से ही ( सत् वस्तु अद्वय एव ) सत् रूप ब्रह्म अद्वैत रूप ही है (इति स्मृष्टि वाक्य समीहितम्) यह सृष्टि प्रतिपादक वाक्यों का तात्पर्य है ॥२४॥

अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते । यत्तद्द्रेश्यमग्राह्यमगोत्र मवर्णमचतुः श्रोत्रं तदपाणिपादम् ॥ नित्यं विभु सर्व गतं सु सूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूत योनिं परिपश्यंति धीराः । यथोर्ण नाभिः सृजते गृहणते च यथा पृथिव्यामोषधयः संभवंति । यथा सत: पुरुषात् केशलोमानि तथाऽक्षरात् संभवंतीह विश्वम् ।।

इन अथर्वण वेद के मुण्डकोपनिषत् के सृष्टि वाक्यों का भी अद्वैत रूप ब्रह्म में ही तात्पर्य है यह अब दिखलाया जाता है
विद्यया परयाऽधिगम्यमुदीर्य धर्म विवर्जितं तद्धि सत्यमिति स्फुटं परिशेष्यवेदनमात्रतस्त त्स्वयं भवतीति नित्यमवासमाह तुरीयगी : i२५