प्रकरण २ श्लो० २४ [ १४५
बात को ही श्र छांदोग्य के अग्रिम ग्रंथ के वाक्यार्थ संग्राहक
श्लोक से दिख. लाया जाता है
सत्प्रसूत मिद' सति स्थितमस्तमेति सति स्वतः
सत्तया 'रिहीणमित्यखिलं सदेव पृथङ मृष्ा ।
कल्पितं हि पृथक् न सन् मृगतृष्णिकोदकव
न्भरोस्तत् सदद्वय मेव वस्त्विति सृष्टि वाक्य
समीहितम् ॥२४॥
यह जगत् सतूरूप से ही उत्पन्न हुआ है, सत् में
स्थित हैं और सतू में लय होता है इसस अपनी सत्ता से
रहित है। सब सत् है इससे भिन्न मिथ्या है, कल्पित पृथक्
नहीं होता । मरुभूमि में रहा हुआ मृगतृष्णाका जल पृथ्वी
से भिन्न नहीं होता तैसे जगत् पृथक् नहीं है, सत्रूप
अद्वैत ब्रह्म ही है । यही सृष्टि ग्रतिपादन वाक्य का
तात्पर्य है ॥२४॥
( सत्प्रसूतम् इदम् ) यह जगत सतरूप ब्रह्म से ही
उत्पन्न हुआ है, ( सति स्थितं ) सत् रूप ब्रह्म में ही
स्थित है और (सति अस्तं एति ) सत् रूप ब्रह्म में ही लय
को प्राप्त होता है। अतएव ( स्वत: सत्तया परिहीणम् ) यह
जगत् कारण भूत ब्रह्म की सत्ता से भिन्न अपनी स्वतंत्र सत्ता
से रहित है । (इति अखिलं सत् एव ) इसी लिये अर्थात् स्वत:
१० स्वा. सि