पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१५२

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१४४ ] स्वाराज्यं सिद्धि

एकता प्रतिपादन करने की इच्छा से ही मृत्तिकां पिंड आदि दृष्टांत दिये हैं और इसी प्रकार श्रुति का समन्वय होता है ॥२३॥

(यत् प्रबोध वशात् इदं अशेषं जगत् विदितं भवेत् ) जिसके ज्ञान से यह सर्व ही जगत् जाना जाता है (तत् विवक्त :) उस के कहने के लिये (अत्र ) छांदोग्योपनिषत् के छठे अध्याय में ( सदेव सोम्य गिरा उपक्रम: ) हे सोम्य श्वेतकेतो, यह नाम रूपात्मक जगत् उत्पत्ति से पहले सत् शब्द वाच्य अव्याकृतात्मक ईश्वर रूप ही था, सजातीय विजा तीय और स्वगत भेद रहित एक ही श्रद्वय ब्रह्म था इस वाक्य से प्रारंभ है (तत ) इसलिये (ईक्षण पूर्विका जगतः सृष्टिः) तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय' इत्यादि वचन से ज्ञानपूर्वक जगत् की उत्पत्ति तथा ‘येनाश्रुतं श्रतंभवत्यमतंमतमविज्ञातं विज्ञातम्’ इस वचन से प्रतिज्ञात (तदैक्य विवक्षया) उस ब्रह्म के अद्वैत विवक्षां से ‘यथा सोम्येकेन मृत्पिडेन सर्व मृन्मयं विज्ञात स्यात् वाचारंभणं विकारो नामधेयं मृत्तिकेयेव सत्यम् ’ ‘यथा सोम्यैकेन नखनिकृतनेन सर्व काष्णर्णायसं विज्ञातं स्यात् वाचा रंभ० कृष्णाय समित्येवसत्यमित्येव सोम्य स श्रादेशो भवति । इन वचनों से कहे हुए (मृत्तिकादि निदर्शनानि ) मृतपिंड आदि दृष्टांत (तथाहि) उन उक्त श्रुतिश्रों के समान ( संगतिं प्राप्नुयुः ) दाष्टन्त के साथ समन्वय को प्राप्त होते हैं ।॥२३॥
छांदोग्योपनिषत् का यही तात्पर्य हैं यह छांदोग्योपनिषत् में आगे के ग्रंथु भाग के विचार करन स सिद्ध है अर्थातु सृष्टि वचनों का अद्वैत में ही तात्पर्ण है यह अर्थ सिद्ध होता है, इस