पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१५५

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प्रकरण २ श्लो० २५ [ १४७ [ १४७
सब धमों से रहित अति सूक्ष्म परब्रह्म, परविद्या करके जानने के योग्य है। अक्षर से ही यह उत्पन्न होता है, इसालये सर्व जगत् मिथ्या है, वह ही सत्य है, ऐसा श्रुति श्रद्वत ब्रह्म का हा स्पष्ट कथन करता हैं । श्रपन्न स्वरूप का ज्ञान से वह अपने को नित्य प्राप्त है, इस प्रकार चारों वेद का कथन हें ।॥२५॥
(सर्व धर्म विवर्जितं सु सूक्ष्मं परया विद्यया अधिगम्यं उदीर्य ) सर्व धर्मो से रहित अर्थात् दृश्यत्व आदि सर्व धर्मो से रहित तथा स्थूलत्व के हेतु भूत शब्द आदि गुणों से रहित होने से अति सूक्ष्म रूप पर ब्रह्म पर विद्या से जाना जा सकता है इस प्रकार अथर्वणोपनिषत् के उपक्रम में ही कहकर फिर (अक्षरतस्ततः प्रभवति) निर्विकार ज्ञेय रूप परब्रह्म से ही यह सर्व जगत् उत्पन्न होता है यह उर्णनाभि आदि अनेक दृष्टांतों से कहा है इसलिये सर्वजगत् (मृषा) मिथ्या है यह अर्थ उक्त पृथवी औषधि आदि दृष्टांतों से ही स्पष्टतर प्रतीत होता है । अतएव (तद् हि सत्यम्) सर्व कल्पित जगत् का अधिष्ठान रूप से जानने योग्य ब्रह्म ही एक सत् है (इतिस्फुट परिशेष्य) इस प्रकार सब के अपवादद्वारा निषेध का अवधिरूप अधिष्ठान ब्रह्ममात्रको परिशेषतया निरूपण किया है अर्थात् एक अद्वैत ब्रह्म ही शेष रहता है ऐसा कहा है । वही अद्वैत चिन्मात्र परमानंद और सत् रूप ब्रह्म अपना' स्वरूप है परन्तु केवल श्रज्ञान से करणमहाराज के क्षत्रियत्व के समान अथवा ग्रहाविष्ट किसी ब्राह्मण के ब्राह्मणत्व के सदृश, अथवा व्याध कुलवर्द्धित चक्षत्रिकुमार के राजत्व के सटश अथवा ग्रामीण कुलवर्द्धित सिंह