पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१४७

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प्रकरण १ श्लो० २० [ १३९


तथा प्राकाश वायु रूप असत्य जगत् कोरचकर तथा इनभूतोंके समुदाय रूप परन्तु भूतों से विलक्षण श्राकृती वाले इस शरीर रूप जगत् को रच करके फिर (इत्युभयं विवेश ) उक्त सत्य मिथ्या रूप जगत को स्वसत्ता प्रदान करके उसमें व्याप्त हुआ। अर्थात् यह जगत् स्वाधिष्ठान रूप ब्रह्म की सत्य से सत्य है और ( स्वत: सत्यम्) ब्रह्म स्वतः ही अर्थात् स्वभाविक ही सत्य है (इति अभिधायिनी श्रुतिः) इस प्रकार कथन करने वाली तैत्तिरीयोपनिषत् की ब्रह्मवल्ली श्रुति (स्फुटं अद्वयं अभ्यधात्) स्पष्ट ही अद्वय रूप ब्रह्म का निर्णय करती है ।॥१९॥

अब सृष्टि वाक्यों का तात्पर्य श्रद्वय ब्रह्म ही में है यही बात अन्य रीति से दिखाते हैं
ब्रह्मवित्परमेति तत्खलु सचिदद्वय लक्षणं वेदनं च गुहांतरस्य निजस्वरूप तदाप्तये । इत्युदीर्य सदद्वयत्व समर्थनाय समाददे विश्व स्टष्टिमिमां श्रुतिर्नहि तत् समर्थनमन्यथा ॥२०॥
ब्रह्मज्ञानी मोक्ष को प्राप्त होता है । वह ब्रह्म नित्य चैतन्य अद्वयस्प है, बुद्धिरूप गुहा के प्रान्तर प्रत्यगात्मारूप ब्रह्म की प्राप्ति के लिये उसका ज्ञान ही हेतु है ऐसा कह कर सत्य और श्रद्वय ब्रह्म के निस्पण के लिये श्रुति इस जगत् की उत्पत्ति आदि की प्रक्रिया को ग्रहण करती हैं, क्योंकि अन्यथा उसका समर्थन नहीं होता ॥२०॥