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स्वाराज्य सिद्धि
(ब्रह्मवित्) ब्रह्मज्ञानी (परं एति) मोक्ष को प्राप्त होता है
( तत्खलु सत् वित् अद्वय लक्षणम् ) और मोक्षस्वरूप ब्रह्म नित्य
चेतन अद्वैत रूप है। (वेदनं च गुहान्तरस्य निज स्वरूप तदाप्तये)
इस प्रकार साक्षी रूप बुद्धि रूप गुहा के अंतर्गत प्रत्यक् साक्षी
आत्मा का ज्ञान निज स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ती के लिये है, (इत्युदीर्य )
इस प्रकार कहकर श्रात स्वोक्त (
भगवती िफर सदद्वयत्वसमर्थ
नाय) सत्यत्व और अद्वयत्व के निरूपण के अर्थ (इमां विश्व
सृष्टिम् ) इस जगत् की उत्पत्ति प्रक्रिया को (समाददे ) ग्रहण
करती है अर्थात् कहती है (हेि) क्योंकि (अन्यथा ) अन्य
प्रकार से ( तत्समर्थनम् न ) निरपेक्ष सत्यत्व आदि का सम
थन नहीं हो सकता ॥२०॥
अब ऋग्वेदीय ऐतरेयोपनिषत् का तात्पय भा श्रद्वयरूप
ब्रह्म ही है यह दिखलाया जाता है
एक एव पुरा बभूव न चापरं स किलाखिलं
वीक्ष्य विश्वमिदं ससर्ज तर्नुप्रविश्य निरीक्षते ।
स्वप्नमावसथत्रयं स विचारतः प्रतिबुद्धवान्
स्वात्मनैव समस्त काममवाप्नुवन्नमृतोऽ
भवत् ||२१||
सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व एक श्रात्मा ही था अन्य
कुछ भी नहीं था । उसने विचार कर सब जगत् को रचा ,
शरीर में प्रवेश किया और वह तीनों अवस्था को स्वप्नवत्
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