पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१४६

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• १३८ ] स्वाराज्य सिद्धि

सत्यमित्यभिधायिनी श्रुतिरद्वयं स्फुटमभ्य
सत् चित् अनंत ब्रह्म है । वह ब्रह्म अद्वयरूप, मन वाणी का अविषय, पंचकोश रूप गुहा के आन्तर रहा हुआ और नित्य अलौकिक है ऐसा कहा है । उसने सत्य असत्य की रचना की और उसमें वह व्याप्त हुआ । परन्तु ब्रह्म तो स्वयं ही सत्य है, ऐसा कहकर श्रुति उस ब्रह्म का स्पष्ट श्रद्वयरूप से निर्णय करती है ॥१९॥
उपक्रम में (सञ्चित् अनंतं ब्रह्म ) ब्रह्म सत् चित् सर्व भेद
रहित है, इस प्रकार कथन किया है और अंत में (एकं अशेष वांन्मनसातिगम्) वह ब्रह्म सर्व भेद से रहित होने से एक है अर्थात् श्रद्वय रूप है तथा सर्व लौकिक और वैदिक वचनां का तथा सर्व प्राणिश्रों के मनका श्रविषय है इस प्रकार कथन किया है। फिर मध्य में (पंचकोश गुहान्तरम्) अन्नमय प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय रूप पांच कोश रूप गुहा के अंतर स्थित है तथा ( शश्वत्) शाश्वत् है अर्थात् निरंतर है (निगद्य ) प्रत्येक कोश रूप गुहा के मध्य में सर्व कोशों का अधिष्ठान होने से स्थित है इस प्रकार अभ्यास पूर्वक कथन करके फिर (अलौकिकम्) प्रत्यक्षादि लौकिक प्रमाणों से वह ब्रह्मा जाना नहीं जा सकता किंतु केवल उपनिषत् से ही उसका जान सकते हैं. इस प्रकार कथन किया है। फिर ( तत्सत्यं असत्यं विसृज्य ) वह ब्रह्म सत्य मिथ्या रूप जगत् को रच करके अर्थात् अग्नि, जल, पृथिवी रूप सत्य जगत् को