पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१४५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

प्रकरण २ श्लो० १८ [ १३७ प्रत्यक्षादि बाहर के प्रमाणों से बढ़े हुए द्वैत भ्रम के सत्यरूप से प्रतीत होने से श्रुति सहज में अद्वय बोध कराने में असमर्थ है, इसलिये वहव्यवहारक पदार्थ मिथ्या है इस प्रकार कहने की इच्छा से उत्पत्ति प्रलय की प्रक्रिया को कहती है ॥१८॥ (अक्षजादि बहिःप्रमाण समेधित द्वयविभ्रमे) प्रत्यत् आदिक बाह्यार्थ विषयक प्रमाणों से जो द्वैत भ्रम बढ़ा हुआ है वह द्वैत भ्रम (जाग्रति ) सवकी बुद्विमें स्फुरण होने पर (श्रुतिः सहसा अद्वय प्रतिबोधने अक्षमा ) उस समय श्रुति भगवती शीघ्र हा श्रद्वत श्रथ का बाध करान म श्रसमथ हैं । इसालय ( इदं व्यावहारिक वस्तुजातं मृषा इति विवक्षया) यह व्याव हारिक वस्तु समूह मिथ्या है इस प्रकार कहने की इच्छा से अर्थात् इस प्रकारके तात्पर्य से श्रुति भगवती ने (विसृष्टि संहृति लक्षणां प्रक्रियां रचयां बभूव ) उत्पति प्रलय रूप प्रक्रिया की रचना की है । भावार्थ यह है कि जगत् के भिथ्यात्व बोधन द्वारा रज्जु सर्प न्याय से जगत् ब्रह्मरूप ही है इस प्रकार ब्रह्मके अद्वैत ज्ञान क उपाय रूप स पुनः पुनः श्रुत सृष्टि आदिकों का कथन कर रही है ।१८।। उपक्रम उपसंहारादिक षट लिंगों से तैत्तिरीयोपनिषत् की ब्रह्मवल्ली की श्रुतियां अद्वय ब्रह्म की ही बोधक हैं यह अर्थ अब दिखलाते हैं ब्रह्मसचिदनन्त मेकमशेष वाङ मनसातिग पंचवकोश गुहान्तरं च निगद्य शश्वदलौकिकम् । तद् विसृज्य विवेश सत्यमसत्यमित्युभयं स्वतः