पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१३६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
128 ]
स्वाराज्य सिद्धिः

है। इस अर्थ में दृष्टांत दिखलाते हैं—(घटपिठरमुखं मृत्तिका इव) जैसे मृत्तिका ही स्वकार्यों में असुगत हुई घट और पिठर श्रादिक कार्यो में व्याप्त रह कर प्रतीत होती है और ( रजौ श्रहिः इव) जैसे रज्जु में सर्प कल्पित है (तस्मिन्) तैसे ही इस सत् रूप ब्रह्म में (निखिलं अपि जगत् कल्पितम्) संपूर्ण जगत् भी कल्पित है। इसलिये (तत्स्वभाभात् तन्मात्रम्) यह सर्व कल्पित जगत् श्रधिष्ठान ब्रह्मरूप होने से ब्रह्म मात्र ही है । इस अर्थ में भी उक्त घट मृत्तिका रज्जु सर्प आदिक दृष्टांत प्रहण करने चाहिये । ( तत्पृथकत्वे हि ) सत् ब्रह्म से भिन्न होने पर (श्रखिलं इदं जगत् असत् स्यात्) यह सब जगत् मिथ्या ही सिद्ध होता है क्योंकि सत् से भिन्न की असत् से विना और कोई गति नहीं है । ( अभेदे हि तदेव ) और स रूप अभेद के होने पर वह ब्रह्म ही है । अर्थ यह है कि जगत् में अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप ये पांच अंश हैं। इनमें श्राद्य तीन अंश ब्रह्मरूप हैं और दो अंश माया रूप हैं। कल्पित वस्तु अपने अधिष्टान से भिन्न नहीं होती, इसलिये सत् ब्रह्म एक है और उसमें भेद प्रतीति श्रज्ञानकृत भ्रांति से है।॥१२॥

यदि सर्व सत् रूप ही है तो शुक्ति रजत का बाध होजाता है और बाजार में स्थित रजत का बाध नहीं हाता यह बाधाबाध व्यवस्था सर्व के सत् रूप एक पक्ष में कैसे हो सकती है ? इस शंका का समाधान करते हैं

इएकैव ब्रह्मसत्ता व्यवहृतिविषये शुक्तिरूप्यादिके

च ख्यांत्याये सत्यमेतज्जगदिति धियमाब्रह्म

बोधाद्विधत्ते ! यावत्स्फूर्ति द्वितीये प्रथितमिव