पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१३५

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प्रकरण २ श्लो० १२ [ १२७ यञ्च श्रुतंप्राक् तत्सत्यं व्याप्य विश्वं घट पिठर मुखं मृत्तिकेवावभाति । तस्मिन् रजाविवाहि निखिलमयि जगत्कल्पितं तत्स्वभावात्त न्मात्रं तत्पृथक्त्वे ह्यसदिदमखिलं स्यात्तदेव घट सत्य हैं, काठा सत्य हँ सब सत्य हैं एस जा सत्य मालूम होता है और जो सृष्टि के पूर्व में सत्य का श्रवण किया है वह सत्य ही ब्रह्मांड को व्याप्त होकर प्रतीत होता है। जैसे मृत्तिका ही घट हांडी आदि में प्रतीत होती है जैसे रस्सी में सर्प है वैसे ही उसमें सम्पूर्ण जगत् कल्पित है, वह उसीका स्वरूप मात्र ही है । उसको पृथक् करने पर संपूर्ण जगत् मिथ्या होता है और अभिन्न होने से वह ब्रह्म है ॥१२॥ (कुभःसन्) घट सत्य है (कुसूलं सत्) धान्य पात्र रूप कुसूल सत्त है (सत् अखिलम्) सर्व सत्य है (इति) इस प्रकार से (यत् सत्यंभाति) जो सत् है (च ) प्रतात हाता और (यत्प्राक् श्रुतं ) जो सृष्टि की उत्पत्ति के पहिले ‘सदेव सोम्य' इत्यादिक श्रतियों में सत् श्रवण किया है अर्थात् निरूपण किया है (तत्सत्यं विश्वं व्याप्य अवभाति ) सो सत्य ही ब्रह्मांडको व्याप्त कर प्रतीत होता है । अर्थ यह है कि अधिष्ठानरूप उपादान की सत्ता ही जगत् में अनुगत होकर प्रतीत हो रही