पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/१११

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स्वाराज्य सिद्धिः


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द्वितीय प्रकरण ।


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ॐ श्रीगुरुभ्योनमः । ।


शंभु व्यासं गुरुं नत्वा पालारामं मुहुर्मुहुः ।
प्रकरणेऽप्यपवादाख्ये क्रियते पद्यकाशिका ॥१॥
समूल सकल अनर्थ की निवृत्ति पूर्वक निर्विशेष परमानन्द स्वरूप नित्य मुक्त सदा अद्वैत रूप परब्रह्म में ही सब श्रुतिओं का तात्पर्य है इस अर्थ के प्रकट करने के लिये अध्यारोप प्रकरण के अनन्तर अब स्वाराज्य सिद्धि का दूसरा अपवाद नामक प्रकरण श्रारंभ किया जाता है । ‘अध्यारोपावादाभ्यां निष्प्रपंच प्रपंच्यते । शिष्याणां बोधसिद्धयर्थ तत्त्वज्ञेः कल्पितः क्रमः ।।' जो स्वयं निष्प्रपंच है उसका अध्यारोप और अघवाद किया जाता है। वास्तव में बात तो यह है कि शिष्य के बोध की सिद्धि के लिये ज्ञानियों ने यह प्रक्रिया निकाली है। इस न्याय से इन दोनों प्रकरणों की यथा क्रमसे स्थापना की गई है। अध्यारोप प्रकरण तथा वक्ष्यमाण अपवाद प्रकरण का तात्पर्य निर्विशेष ब्रह्ममें ही है, तथापि भ्रांत पुरुष के बोध के लिये शाखा चन्द्र न्याय से भ्रांत पुरुष की दृष्टि में सिद्ध पदार्थ और पदार्थो के संबंध आदिक भेदको लेकर अपवाद प्रकरण के आदि में दोनों प्रकरणों से सिद्ध पदार्थका लक्ष्य लक्षण भाव दिखलाते हैं।