पृष्ठम्:स्वराज्य सिद्धि.djvu/११२

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स्वाराज्य सिद:

हेतुत्वं लक्षणं यद् गदित मिदमुपादान कतृ त्वरूपंताटस्थ्यादास्पदं स्वं गमयति परमं ब्रह्म शाखेव चन्द्रम् । एवं लक्ष्यं च सचित् सुखवपु रखिल द्वेत हीनं सुसूक्ष्मं सत्य ज्ञानादि मन्त्रो दितमखिलमनोवागतीतं गुहास्थम् ॥१|

 जगत् का उपादान और निमित्तस्रूप से जो कहा

गया है उस परब्रह्म का शाखाचंद्र के समान तटस्थ लक्षण से बोध होता है इसी प्रकार यहां भी लक्षय रूप परब्रह्म साचिदानन्द स्क्रूप, संपूर्ण द्वैत रहित, बहुत सूक्ष्म, सत्य ज्ञानादि मंत्रों से कथन किया हुआ, मन वाणी का अविषय और गुहा में रहा हुआ है ॥१॥

 (उपादान कतृत्वरूपंहेतुत्वम्) जगत् जन्मादिकों के प्रति

श्रभिन्न निमित्त उपादान रूप (यत् लक्षणं गदितम्) जो अध्या रोप प्रकरण के पंद्रहवे श्लोक में लक्षण कथन किया है, वह लक्षण ( स्वं श्रास्पदम् परं ब्रह्म गमयति) अपने अधिष्ठान रूप शुद्ध पर ब्रह्म का बोध करता है। किस प्रकार ? (ताटस्थ्यात् ) तटस्थ रहकर । अर्थ यह है किजैसे कोई पुरुष नदी पार जाने की इच्छा वाले नदी का ज्ञान नदी के किनारों में स्थित नदी पुरुष क मे श्रमंबंधित वृक्ष आदिकों से कराता है, वैसे ही साक्षात् संबंध के न होने पर भी कल्पित रूप से समीप की तरह स्थित होने से वह लक्षण निज अधिष्ठान रूप शुद्ध ब्रह्मका जिज्ञासुके प्रति बोध